राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की निःस्वार्थ सेवा और सामाजिक कार्य हैं ही ऐसे कि कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है चाहे वह पूर्वाग्रह से ही ग्रसित क्यों न हो? लखनऊ स्थित एक पत्रकार जफर इरशाद के साथ भी यही हुआ। एक ट्रेन हादसे के दौरान संघ की निःस्वार्थ सेवा को देखकर आरएसएस के प्रति उनकी धारणा ही बदल गई। अब तो संघ के खिलाफ बोलने वालों पर उन्हें आश्चर्य होता है कि वे संघ के बारे में कितना कम जानते हैं?
मुख्य बिंदु
* लखनऊ स्थित पत्रकार जफर इरशाद ने बताया कि किस प्रकार संघ की नि:स्वार्थ सेवा ने उनकी धारणा बदल दी
* संघ के सामाजिक कार्य और निःस्वार्थ सेवा को नहीं जानने वाले लोग ही उसके खिलाफ अनाप शनाप बोलते हैं
इरशाद अपनी धारणा बदलने वाले उस वाकये के बारे में बताते हुए लिखा है “एक पत्रकार के रूप में मैं आरएसएस से जुड़ी कई घटनाओं को कवर किया होगा, इसके बावजूद मैं उनकी विचारधारा तथा क्रियाकलापों के बारे में बहुत नहीं जानता था। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संघ मुख्यालय नागपुर दौरे को लेकर मीडिया में किस प्रकार आंधी चली उसके हम सभी साक्षी रहे है? संघ को लेकर मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर मुझे आश्चर्य हुआ कि ये लोग संघ के निःस्वार्थ सेवा और सामाजिक कार्य के बारे में कितना कम जानते हैं, या यूं कहें कि जानते ही नहीं! एक समय था जब मैं भी संघ के बारे में कुछ नहीं जानता था। इसलिए आज वह वाकया लोगों को बताना जरूरी हो गया है कि आखिर मेरी धारणा संघ के प्रति क्यों बदली?”
जफर ने बताया यह वाकया उस समय का है जब मैं एक न्यूजपेपर एजेंसी के तहत कानपुर में प्रमुख संवाददाता के रूप में कार्यरत था। मुझे वैसे ही याद है कि 10 जुलाई 2011 को मेरे फोन की घंटी बज उठी। फोन मेरे संपादक का था। उन्होंने बताया कि फतेहपुर के नजदीक मालवा के पास एक गंभीर ट्रेन दुर्घटना हो गई है। मैंने भी अपने सूत्रों से खबर की पुष्टि करवाई और फिर ग्राउंड रिपोर्टिंग करने दुर्घटनास्थल के लिए रवाना हो गया। जैसे ही घटनास्थल पर पहुंचा वहां हृदय विदारक दुर्घटना को देखकर मुझे धक्का लगा। इस घटना की रिपोर्टिग शुरू करने से पहले मैंने खुद को शांत करने की कोशिश करने लगा। लेकिन उसी दरम्यान मैंने कुछ अजीब देखा? मैंने देखा कि कुछ लोग उजले शर्ट और खाकी पेंट पहने हुए थे और क्षतिग्रस्त ट्रेन से मृतकों को और घायलों को निकाल रहे थे, और मृतकों के शरीर को उजले चादर से ढक रहे थे। वे लोग कौन थे उन्हें पहचानने में मुझे थोड़ा वक्त लग गया? मैं आगे बढ़ा और उनसे पूछताछ की, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और अपने काम में जुटे रहे।
कुछ देर उन्ही व्यक्तियों ने घटना में मारे गए लोगों और जख्मी लोगों के परिजनों को चाय बिस्किट देना शुरू कर दिया। उन्होंने वही चाय और बिस्किट मुझसे भी लेने का अनुरोध किया। चूंकि मैं अपनि रिपोर्टिंग में व्यस्त था इसलिए चाय की एक घूंट ले ली। लेकिन जैसे ही उसे देखा मैं स्तब्ध रह गया। क्योंकि मैं उस व्यक्ति के बारे में बहुत कुछ पता करना चाहता था कि आखिर ये कौन हैं जो अथक रूप से सेवा किए जा रहे हैं वो भी लोगों से बिना कुछ ज्यादा बोले?
आखिर में मैंने उस स्वयंसेवक का पीछा किया। मैंने उनसे अपनी पहचान दिखाने को कहा। उन्होंने पूरे शांत चित्त से मेरी ओर देखा और कहा “अगर आपको और चाय की जरूरत है तो कृपया उस पीपल पेड़ के नीचे आ जाएं।” हालांकि मुझे चाय की जरूरत थी ही नहीं मुझे तो उन निःस्वार्थ स्वयंसेवकों के बारे में पता लगाना था। मैं उस पीपल के पेड़ के पास पहुंच गया। जैसे वहां पहुंचा तो देखा कि कुर्ता-पायजामा पहने एक बूढ़ा सा आदमी उस पेड़ के नीचे से महिलाओं और पुरुषों को कुछ निर्देश दे रहा था। मैंने उनसे उस स्वयंसेवकों के बारे में पूछा। मेरे प्रश्न पर वे मुस्कुराए, लेकिन बगैर कोई जवाब दिए अपने काम में व्यस्त हो गए।
मैं वहां से अपना जवाब लिए बगैर लौट आया और फिर से अपनी रिपोर्टिंग शुरू कर दी। शाम को वही बूढ़ा आदमी कहीं से मेरे सामने आया और मुझे एक प्लास्टिक का बैग थमा दिया। मैंने उनसे उस बैग में क्या है उसके बारे में पूछा। उन्होंने शांतिपूर्वक जवाब देते हुए कहा कि इसमें चार रोटियां और सब्जी है। आप काफी समय से रिपोर्टिंग कर रहे हैं लेकिन अब आप पहले भोजन कर लें। इस बार मैं दृढ़ हो गया और खुद का परिचय देते हुए कहा कि मेरा नाम जफर इरशाद है लेकिन जब तक आप अपनी पहचान मुझे नहीं बताएंगे तब तक मैं यह खाना नहीं खाउंगा। इस बार उस बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि ये लोग संघ के स्वयंसेवक (आरएसएस) हैं। यह सुनते मुझे फिर एक धक्का सा लगा। मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि जिस व्यक्ति का जुड़ाव संघ से होगा उसका चेहरा इतना मानवीय भी हो सकता है जितना उनलोगों का था। यह घटना मेरे लिए बिल्कुल नई थी!
इसके बाद मैंने उनसे अपने कार्य और सामाजिक सेवा के बारे में और कुछ बताने को कहा ताकि में उसे अपनी स्टोरी में समाहित कर सकूं। उन्होंने सीधे से मना कर दिया। जब मैंने जोर देकर कहा तो वे सिर्फ अपने इंतजाम के बारे में बताने को तैयार हुए वह भी शर्त के साथ। शर्त ये थी कि मैं इसके बारे में किसी और को न बताऊं। उन्होंने बताया कि जो महिला चाय और खाना बना रही है वे उनके परिवार की हैं। इसके बाद कहा कि ये कफन जो मृतकों के शरीर को ढकने के लिए लाया गया है वे एक स्वयंसेवक ने ही दान दिया है क्योंकि उनके पास कपड़े की दुकान है। उन्होंने मुझे एक बार फिर इसकी रिपोर्टिंग न करने के वादे के बारे में याद दिलाया और फिर वहां से आगे निकल गए!
इस घटना को हुए करीब सात साल बीत चुके हैं, लेकिन मैं आज भी उस घटना को याद करता हूं क्योंकि वह घटना मुझे देश के स्वयंसेवकों के मानवीय और प्यारे चेहरे याद दिलाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जो निःस्वार्थ सेवा करते हैं उसी का नाम तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।
URL: How did a Muslim journalist’s bias towards the Sangh translate into praise?
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