महेंद पाल आर्य | ऋषि दयानन्द जी 1872 में बंगाल पहुंचे थे उन दिनों भारत कि राजधानी बंगाल थी बंगालभर को विद्वानों का प्रदेश माना जाता था |
ऋषि दयानन्द जी चाहते थे विद्वानों से मिलकर समाज में फैली वेद विरोधी विचारों को समाप्त करके मानव मात्र को वेद परम्परा से जोड़ा जाय | जब कि समाज में फैली कुरीतियों पर प्रहार बंगाल से राजा राममोहन राय जी के द्वारा छेड़ा जा चूका था |
सति प्रथा के खिलाफ बालविवाह के खिलाफ विधवा विवाह के पक्ष में यह सभी कार्य राजा राममोहन राय जी के चलाये हुए थे | उनके बड़े भाई के मृत्यु के बाद, उसी चिता में राममोहन जी की भाभी को जलाया गया था |
इस घटना ने राममोहनराय को विचलित कर दिया था, वह इसके खिलाफ कमर बाँध खड़े हुए और अंग्रेजों से मिलकर सति प्रथा के खिलाफ कानून बनाया जो बहुत कारगर हुआ | ऋषि दयानन्द जी जब बंगाल आये थे राममोहन राय का दौर ख़तम हो गया था | पर उनके द्वारा छेड़े गए काम का सम्पूर्ण दुनिया में असर हुआ|
ऋषि दयानन्द जी जब बंगाल आये इस समय रामकृष्ण परमहंस, रानी रासमणि का पूरा प्रभाव बंगाल में छाया हुआ था | रानी रासमणि की कहानी भी समाज में उनका एक अलग ही परिचय था |
ऋषि दयानन्द जी चार मास का समय बंगाल में लगाया था इसमें बहुत कुछ बातें लोगों से हुई बंगाल के शिरमोर कहे जाने वालों से भी मिले ऋषि के वैदिक विचारों को सुनकर ब्राह्मण कहे जाने वालों को अटपटा सा लगा और ऋषि दयानंद जी के विचारों के खिलाफ जुलुस भी निकाला |
बंगाल में एक ब्राह्मण पंडित जाने माने विद्वान् जिनका नाम ईश्वरचन्द्र बाद में जिनको विद्यासागर की उपाधि मिली वही एक ऋषि दयानंद जी का समर्थन किया और उन ब्राह्मणों के जुलुस में नहीं गए, खुलकर ऋषि का समर्थन किया और कहा हमें अलग एक संगठन बनाकर काम करना चाहिए |
एक बड़ी लम्बी कहानी को बहुत कम करके लिखने लगा, बंगाल में जितना काम ऋषि दयानन्द जी ने किया वह भी ऐतिहासिक है वह काम एक दयानन्द जी को छोड़ किसी से न हुआ है और न होना सम्भव था जो अंग्रेजी राज्य का विरोध एक अंग्रेज भारत देश को चलाने वाले के सामने किया यह मानों कि उस अंग्रेज के गाल में एक तमाचा ही था | ऐसा ही अंग्रेज के गाल में तमाचा मारने वाले सुभाष चन्द्र बोस भी थे |
ऋषि दयानन्द बंगाल छोड़कर बनारस, कानपुर, बिठुर में क्रांतिकारी विचार देकर बहुतों को अंग्रेजी राज्य के खिलाफ प्रचार किया लम्बी कहानी है संकेत मात्र करता जा रहा हूँ आर्य समाज की पहचान की तरफ | 1874 में महाराष्ट्र पहुंचे यहाँ आचार्य कमल नयन जी के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ उसमें श्याम जी कृष्ण वर्मा को तैयार किया था |
1875 में आर्य समाज की स्थापना की और इस संगठन के माध्यम से सभी मत पंथ वालों से शास्त्रार्थ की परंपरा को चलाया जिससे आर्य समाज की पहचान बनी, सम्पूर्ण भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में आर्य समाज को अगर दुनिया में मानव कहलाने वालों ने जाना तो सिर्फ और सिर्फ धरती पर चले मत पंथ वालों के साथ धर्म चर्चा को लेकर ईसाई मुसलमानों तथा पौरानिकों के साथ शास्त्रार्थ होने से आर्य समाज की पहचान बनी |
आज इस काम को आर्य समाज वालों ने छोड़ दिया, जिस कारण आज आर्य समाज के नाम से बंगाल वाकिफ नहीं है और न बंगाल के लोग आर्य समाज को जानते हैं | जबकि 1885 में कोलकाता शहर में आर्यसमाज की स्थापना हुई थी |
उन दिनों भारत के क्रांतिकारियों की शरणस्थली बनी यही 19 विधान सरणी कोलकाता आर्य समाज | उन दिनों से लेकर आज तक बंगाल में बंगलाभाषियों के बीच आर्यसमाज और दयानंद जी के विचारों को नहीं पहुंचा सके |
कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आर्य समाज के क्रियाकलापों को देखकर अंग्रेज थर्राए थे बंगालभर क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया आर्य विचारों से लोग जुड़े थे आज वही बंगाल के मूल बंगाली कहलाने वाले वैदिक विचारों से अवगत नहीं हो पाए, यह जिम्मेदारी किन लोगों कि थी ? आर्य समाज जिस कार्य से अपना पहचान बनाया उसी कार्य को आर्य समाजी कहलाने वाले छोड़ बैठे, आर्य समाज को फैलाने के बजाये एक सीमीत दायरे में ला खड़ा किया |
आइये हम और आप सब प्रतिज्ञा करें वैदिक विचारधारा और ऋषि परम्परा को उजागर करते हुए दयानंद के छेड़े गये काम को अंजाम दें और पुन: उसी शास्त्रार्थ की परम्परा को जन-मानस में लिए चलें, जिससे आर्य समाज की पहचान बनी थी |