जाग्रताकाश , स्वप्नाकाश , सुषुप्ताकाश , महाकाश ;
शून्याकाश , चिदाकाश और न जाने कितने आकाश ?
सब कुछ है व कुछ भी नहीं है , सब सपने जैसा ही है ;
सब का सब माया का खेला , यथार्थ में तो “मैं” ही “मैं” है ।
इस “मैं” को जो जान गया है , वो माया को जीत गया है ;
समझ गया है जो माया को , “मैं” की चेरी जान गया है ।
परम-ज्ञान केवल ये ही है , बिन गुरु- कृपा नहीं मिलता ;
महासमुद्र शास्त्रों को जानो , कभी किनारा न मिलता ।
गुरु की कृपा उसे मिलती है , जिस पर ईश-कृपा होती ;
ईश-कृपा उस पर होती है,सुकृत्य की झोली जिसकी भरती
ज्ञान – मार्ग के जितने राही, सुकृत्य का भेद ठीक से जानो ;
केवल यही हाथ में तेरे , यात्रा का प्रारम्भ ये मानो ।
पापपुण्य से सुकृत्य अलग है,निष्कामकर्म भी कहसकते हो
नहीं है इच्छा किसी लाभ की, पुण्य नहीं है कह सकते हो ।
पाप-पुण्य से ऊपर उठकर , कल्याण के जो भी कृत्य हैं ;
प्रारब्ध नहीं इनसे बनता है , ईश – कृपा के हेतुक हैं ।
कई- जन्मों के जब हों इकट्ठे , फलित तभी ये होते हैं ;
दो तरह से फलित ये होते , मार्ग ज्ञान के खुलते हैं ।
मन में होती शुभेच्छा जाग्रत , ज्ञान की इच्छा ये होती है ;
ईश्वर गुरु से मिलवा देता , ईश-कृपा पूरी होती है ।
ईश-कृपा से गुरु है मिलता, तुझको पुरुषार्थ तब करना है ;
श्रद्धावान तुझे होना है , श्रवण, मनन, निध्यासन करना है ।
गुरु की कृपा तब तुझे मिलेगी , ज्ञान का सागर बरसेगा ;
माया- मोह गलित होकर तब , पूरा संसार बिलायेगा ।
तुझ पर आत्मकृपा तब होगी,केवल “मैं” ही “मैं” तब होगा ;
परिछिन्नता का भ्रम टूटेगा , अपरिछिन्न “मैं” रह जायेगा ।
तब केवल “मैं” ही “मैं” होगा , कोई आकाश नहीं होगा ;
अधिष्ठान जैसे केवल “मैं”,अध्यस्त भी केवल “मैं” ही होगा।
“तस्मै श्री गुरुवे नमः”
रचनाकार : ब्रजेश सिंह सेंगर “विधिज्ञ”