ऋषि एक बेमिसाल अभिनेता था। अपने समकालीन अभिनेताओं में सबसे स्वाभाविक था। उसकी अदायगी, उसका मैनरिज्म , उसका व्यक्तित्व उसने खुद संवारा था। वह किसी बड़े स्टार से कभी प्रभावित नहीं हुआ। यही बात उसे अन्य अभिनेताओं से अलग खड़ा करती थी। कल सुबह नौ बजे के बाद ऋषि एक इतिहास बन गया, जैसे और बन जाते हैं। ये किसी न किसी दिन होना ही था। उसके निधन के बाद देश की शोक अभिव्यक्तियों ने बताया कि उसकी मौत एक युग के अंत पर हस्ताक्षर कर गई। वह युग जो एक आदमी के भीतर सांसें लेता है। उस युग के भीतर उसकी युवावस्था, उसके पसंदीदा सितारें, उसके दौर का संगीत सांस लेता है। ऋषि सत्तर से नब्बे के उस युग का आइकॉन था। उसके लिए रोने वाले हर व्यक्ति के भीतर का वह युग भी ढह गया था। ऋषि के साथ शायद उसके आंसू उसके निजी युग का मर्सिया पढ़ रहे थे।
हम सबके अंदर सब कुछ बदल जाता है लेकिन हम अपने अंदर के उस दौर को सदा जीवित रखना चाहते हैं, जब हमारी उम्मीदें जवां हुआ करती थी, जब किसी के पास से गुज़रने पर धड़कनें सौ मीटर की दौड़ लगाने लगती थी। तब उस गुज़िश्ता दौर के गीत, उन गीतों को गाने वाले, उन पर अभिनय करने वाले हमारे दिल के किसी कोने में रहने लगते हैं और ऐसे रहते हैं कि हटाने से भी नहीं हटते। ऋषि ऐसे लाखों दिलों में रहने वाला किरायेदार था। मुफ्त में रहता था और जाने का नाम नहीं लेता था। आख़िरकार कल वह चला गया। जाने कितने दिलों के कोने खाली कर गया। माना वह स्वाभाविक अविस्मरणीय अभिनय करता था लेकिन उसका अनोखा चार्म और उस पर फिल्माए गीत उस अभिनय पर हमेशा हावी रहते थे। ऋषि के गीत जाने कितनी प्रेम कहानियों को चलाने वाले पहियें बन गए। बीते दौर का रोमांस, उसकी फिल्मों के गीतों के बिना अधूरे थे, निपट निर्जीव थे। उनमे रसायन का सर्वथा अभाव रहता था।
‘बॉबी‘ के गीत ‘मैं शायर तो नहीं‘ से उसने बताया कि गीतों में अभिनय एक अलग ही कला होती है। ऋषि इस कला में माहिर था। उसके साथ गीतों में नज़र आने वाली अभिनेत्रियों पर भी उसके चार्म का असर होता था। उसका साथ पाते ही डिम्पल, नीतू, टीना और श्रीदेवी जैसे खिल उठती थी। एक सहज स्वाभाविक प्रेम रसायन परदे पर निर्मित होता और हम ऋषि की जगह खुद को महसूसते थे। उसके रोमांटिक गीतों की फेरहिस्त बहुत लम्बी है लेकिन उनमे एक गीत ऐसा है जो गुज़रे वक्त में ठहरा हुआ है। फिल्म ‘क़र्ज़’ का बहुत खूबसूरत गीत है वह। वैसे तो इस फिल्म के सभी गीत खूबसूरत थे लेकिन इस गीत की बात ही कुछ और है। गीतों के फिल्मांकन में ये अनूठा है। किसी पेड़ का पत्ता झड़ न पाया हो और टहनी में अटका रह गया हो, वैसा ही ये गीत वक़्त की टहनियों में अटका हुआ है।
मोंटी एक प्रसिद्ध गायक है। अपने मैनेजर से उसका करार है कि वह कम्पनी के अलावा किसी और के लिए या किसी पार्टी में गाना नहीं गाएगा। एक दिन मोंटी एक पार्टी में पहुँचता है। वहां उसकी निगाहें एक सुंदर पहाड़ी लड़की टीना से मिल जाती है। निगाहों का समंदर हिलोरे लेता है और मोंटी की शर्त टूट जाती है। वादा तो सिर्फ वॉयलिन की धुन बजाने का था लेकिन मोंटी खुद को रोक नहीं पाता। दर्द-ए-दिल, दर्दे जिगर दिल में जगाया आपने, पहले तो मैं शायर था, आशिक बनाया आपने। सिर्फ दो ही लोग जानते हैं कि पार्टी में दरअसल क्या हुआ है। जब मोंटी का मैनेजर वहां पहुँच जाता है तो एक पल के लिए मोंटी खामोश हो जाता है। फिर टीना कहती है ‘गाइये ना’। इस मनुहार को मोंटी टाल नहीं पाता। ये प्रेम की श्रेष्ठ अवस्था होती है, जब महफ़िल सजी हो और दो ही लोग जानते हो कि प्रेम दीप जल पड़े हैं।
रफ़ी साहब की शीरी आवाज़, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का मोहक संगीत, सुभाष घई का निर्देशन जैसे मोंटी पर आकर केंद्रित हो जाते हैं। और बनता है एक ऐसा गीत, जिसे सुनते समय भी कल्पना में मोंटी और टीना की केमेस्ट्री वाले दृश्य याद आते हैं। गीत ख़त्म होते-होते टीना पार्टी से जा चुकी है और मोंटी की निगाहें उसे हर कोने में तलाश रही हैं। वक़्त के पंजों ने कल ऋषि कपूर को दबोच लिया लेकिन इस गीत को दबोचा नहीं जा सकेगा। जितनी बार इस धरती पर प्रेम की निर्दोष कोंपले खिलेंगी, मोंटी की वायलिन पर थिरकती उँगलियाँ मौजूं हो उठेंगी। उस गीत का एक अंतरा आज बहुत प्रासंगिक बनकर उभरा है।
और थोड़ी देर में बस, हम जुदा हो जाएंगे
आपको ढूंढूंगा कैसे, रास्ते खो जाएंगे