…कल हम चम्पवात से बाहर निकल गए थे। चम्पवात जिला मुख्यालय से वैसे लोहाघाट 14 किलोमीटर दूर है लेकिन कल हमने जहाँ यात्रा को विराम दिया था वहां से 8 किलोमीटर की दूरी है लोहाघाट की। अब तक हमारे दोनों तरफ देवदार के वृक्षों की एक भरी पूरी शृंखला शुरू हो गयी थी। देवदार एक दम सीधा-सधा पेड़ आसमान को छूने का असफल प्रयास करता हुआ साथ ही साथ कहीं-कहीं झुरमुट में बुरांश के छोटे छोटे पेड़ इन विराट वृक्षों की छत्रछाया में पल रहे थे। बुरांश में गर्मियों के समय फूल आते हैं चटक लाल। पूरे वन की आभा को स्वयं तक सीमित कर लेते हैं। बुरांश के फूलों से शरबत बनता है और गर्मियों में इसका सेवन कर आप स्वयं को तरोताज़ा महसूस करेंगे और पेट की समस्याओं के लिए इसका नियमित सेवन रामबाण। इन्हीं पेड़ों के साथ बाँझ(ओक) के वृक्ष, ओक के वृक्ष जहाँ भी होते हैं वहां पानी बहुतायत होता है। ओक अपनी जड़ो से पानी का संरक्षण करते हैं।
सात आठ किलोमीटर का सफर यदि आप बंद आँखों से भी कर लेंगे तो यहाँ सड़क के दोनों तरफ चल रहे पेड़ आपकी साँसों में इतनी ऊर्जा और खुशबू भर देंगे की आप वर्षों बरस इस गंध को नहीं भूल पाएंगे। मन तो नहीं करेगा इन वादियों से बाहर निकलने का नहीं किन्तु आगे बढ़ते रहना जीवन का नियम है और हमारी नियति। देखते देखते हम लोहाघाट के छोटे किन्तु समृद्ध बाजार से गुजरने लगेंगे। हवा में चूल्हे में जलती लकड़ी और पकौड़ों की मिश्रित गंध से आपको रुकने के मजबूर कर सकती है लेकिन आप रुकिएगा मत क्योंकि यहाँ से पेट भरने का मतलब आगे परेशानी क्योंकि इस यात्रा का सबसे जटिल पड़ाव आगे आने वाला है। तो यात्रियों अपनी पेटी बांध लीजिये!
यात्रियों अपनी पेटी बांध लीजिये!
आगे कई छोटे छोटे कई कस्बे झुरमुटों में कभी पास तो कभी दूर किसी पहाड़ी ढलान पर आप को समय समय पर दिख जाएंगे इसके बाद शुरू होती है घाट की उतराई। यहाँ तक आते हवा में ऊष्मता आने लगेगी नीचे झांकने का प्रयास करेंगे तो मीलों ढलान के अलावा अभी कुछ नहीं दिखेगा। मेरा विशेष आग्रह है की इस समय आपको केवल सामने वाले शीशे की और ही देखना चाहिए वरना खाया पीया बाहर आने में विलम्ब नहीं लगेगा।
घाट की उतराई में आप जैसे जैसी नीचे उतरेंगे गर्मी महसूस होने लगेगी। नीचे तलहटी पर आपको जलप्रवाह दिखने लगेगा. गंगा और उसकी सहायक नदियों का संगम होता है घाट पर। काली नदी का गंगा से संगम का दृश्य सबसे मनोहारी लगता है। मांस खाने के शौकीन लोग यहाँ भुटवा ‘बकरे का मीट’ का स्वाद ले सकते हैं। घाट से एक दूसरा रास्ता निकलता है जो अल्मोड़ा को पिथोरागढ़ से जोड़ता है। नदियों के दोनों पाटों को लोहे के पूल से जोड़ा गया है। यहाँ आपको एक सुरक्षा चौकी भी है जो आने जाने वाली गाड़ियों की जानकारी अंकित करते हैं ख़ास कर शाम 5 बजे के बाद जाने वाले वाहनों की।
और हाँ एक बात बताना में भूल ही गया कि जब आप इस लोहे के पुल को पार करें तो कुछ सिक्के नदी में अवश्य दाल दें वैसे आपको कई लोग ऐसा करते दिख जाएंगे। वह इसलिए की पहाड़ी मान्यताओं के अनुसार घाटों पर मशान, भूत प्रेत का निवास होना माना जा सकता है उनको इस तरह से दान दे कर उनके प्रकोप से बचा जा सकता है वैसे खिचड़ी चढ़ाने की प्रथा भी है घाटों में। किन्तु मेरे हिसाब से यह मामला सम्मान का लगता है नदियां हमें जीवनदानी जल देती है और उनको लाँघ कर हम उनके अपमान से उऋण होने के लिए ऐसा करते हों।
अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और चढ़ाई है!
खैर घाट के पहले जितनी जटिल उतराई थी आगे उतनी ही जटिल चढाई भी आने वाली है। घाट से पिथौरागढ़ 30 किलोमीटर हैं और इसके ठीक आधे पर गुरना। गुरना पहुंचने में आधे से पैंतालीस घंटे का समय लगेगा क्योंकि पहाड़ों में 30 से 40 किलोमीटर की गति काफी है। गुरना में माता का एक मंदिर है और जहाँ माता हो वहां शेर न हो, हो ही नहीं सकता। दिन के समय तो नहीं लेकिन रात को यदि आप यात्रा करते है तो आपको किसी मोड़ पर दिख ही जाएगा। मैं इस बात का गवाह हूँ जब एक दिन रात्रि-कालीन यात्रा के दौरान बीच सड़क पर मैंने अपनी आँखों से देखा! क्या शानदार जानवर है! अंदर झाँक कर हड्डियों में भी सिहरन दौड़ा दे। गुरना में माता के मंदिर के सामने बिना माथा टेके आगे बढ़ने का ख्याल भी दिल में मत रखियेगा।
कहा जाता है कि माता के मंदिर की स्थापना से पहले इस क्षेत्र में दुर्घटनाएं बहुत होती थी लेकिन अब न के बराबर। मंदिर से कुछ मीटर दूर एक जल धारा है उसका शीतल जल घाट की चढ़ाई और उतराई का सारा दर्द उतर देगा। गुरना से पिथौरागढ़ १४ किलोमीटर रहता है केवल आधे घंटे का सफर
गुरना माता के पास वाले धारे का पानी रख लिया न। इस धारे का पानी पिछले चालीस साल से ऐसे ही बह रहा है मेरी आँखों देखी बात कह रहा हूं। पहले कब से बह रहा है ये गुराना माता ही जाने। गुरना के आस-पास सड़क लगभग पूरे साल ही गीली रहती है धारा होना पहला कारण हो सकता है लेकिन सूरज की किरणें इस जगह शायद ही पहुंच पाती हैं दूसरा प्रमुख कारण। गुरना से कुछ किलोमीटर के बाद सड़क चौड़ी हो जाती है और गड्ढे मुक्त भी। पिथौरागढ़ पहुंचने की पहली निशानी है। यहां आपको कई लोहे के पुल भी दिखेंगे। लोहे के पुल से एक पुरानी घटना याद आ रही है नही सुनाई तो शायद बेमानी होगी।
#वन्यजीवविभाग #NatureEnvironmentWildlifeSociety की नजर इस तरफ डालना चाहूंगा !
कुछ छ-सात साल पुरानी बात रही होगी मैं पिथौरागढ़ से हल्द्वानी जा रहा था। ऐसे ही किसी लोहे के पुल से गुजरते हुए एक बैंड पर मुझे कुछ आकृतियां दिखी प्रथम दृष्टया ये मानव शिशुओं सी थी। सोचा शायद घसियारियों के साथ बालक आये होंगे और सड़क के किनारे ढलान पर खेल रहे होंगें किन्तु यह क्या। आश्चर्य मिश्रित और हैरानी से मेरी आँखों की पुतलियां चौड़ी हो गयी जब देखा कि गिनती में कुछ 20 से ज्यादा गिद्ध सड़क से ऊपर की और जा रहे थे। हैरानी इसलिए कि गिद्धों की प्रजाति भारत से लगभग समाप्त हो चुकी थी।
वन उप संरक्षक और वृक्ष अधिकारी & #वन्यजीवविभाग #NatureEnvironmentWildlifeSociety की नजर इस तरफ डालना चाहूंगा शायद आज भी कुछ गिद्ध यहां मिल जायें और उनको संरक्षित किया जा सके। ढाई से तीन फीट के विशाल गिद्ध मैंने पहली बार देखे थे। यदि पंख फैला लें तो पेड़ो से छन कर आने वाले धूप को अपनी आगोश में समेट कर अंधेरा कर दें। इन गिद्धों की विशालता को देख कर जटायु की विशालता का अनुमान लगाना आसान हो गया मेरे लिए। जो मां सीता की रक्षा हेतु महाबली रावण से भी भीड़ गए थे।
मिनी कश्मीर के नाम से नामकरण करने वाले ने बड़ी बारीकी से पिथौरागढ़ का अध्ययन किया होगा।
खैर कुछ ही मोड़ों बाद हम पिथौरागढ पहुंचने वाले थे। ऐंचोली पहुंचते आप जरा गरदन उठाएंगे तो सामने सोर घाटी आपका मुस्कुराते हुए स्वागत करते दिखेगी। ऐंचोली से कुछ इक्कीस किलोमीटर की दूरी पर आठ गांव शिलिंग और मेरे ननिहाल डाबरी होते मेरी जन्मभूमि बड़ाबे है। सोर घाटी पिथौरागढ़ का एक और नाम है। पिथौरागढ़ का मिनी कश्मीर के नाम से नामकरण करने वाले ने बड़ी बारीकी से पिथौरागढ़ का अध्ययन किया होगा।
पिथौरागढ़ के नामकरण पर कई किंवंदन्तियाँ है लेकिन मुझे जो मौलिक लगी उसके बारे मैं बताता हूँ। पिथौरागढ़ मैं पहले कई जलाशय थे कालांतर में पानी सूखता गया और ये घाटी पिथौरागढ़ के नाम से मशहूर हुई। नेपाल नरेशों और चंद राजाओं ने यहाँ एक दूसरे को परास्त करकर बारी-बारी शासन किया किन्तु अंग्रेजों के यहाँ आने के बाद इस आपसी युद्ध पर विराम लग गया। इतिहास की और देखें तो पृथ्वी राज चौहान को भी पिथौरागढ़ के नामकरण के साथ जोड़ा जाता है। घूमने के लिए यह काफी सुरम्य स्थल है। यहाँ के कई प्रसिद्ध स्थलों से लोग भली भांति परिचित हैं इसलिए मैं इनका विवरण नही दूँगा लेकिन अवश्य कहूंगा कि रात में पिथौरागढ़ अवश्य देखना चाहिए।
रात के समय पिथौरागढ़ की ख़ूबसूरती शब्दों में बयां नहीं की जा सकती इसके लिए आपको अपनी आंखों से देखना पड़ेगा किन्तु मैंने जो अनुभव लिया उसको जरूर बताऊंगा। घरो में जलने वाली लाइट रात में प्रतीत होती है जैसे किसी ने सैकड़ों जुगुनू रात की काली चादर में टांग दिए हों, जो तारों की भांति टिमटिमा रहे हो। पिथौरागढ़ जिसने भी रात में नही देखा उसकी यात्रा अधूरी है।
ट्रैकिंग और अध्यात्म का अनूठा संगम!
यदि आप ट्रेकिंग का शौक रखते हैं तो दो जगह जिनसे में भलीभांति परिचित हूँ वह हैं ध्वज मंदिर दूसरा थल-केदार मंदिर। ध्वज मंदिर जाने के दो रास्ते हैं एक ज्यादा जटिल है मेरी पहली यात्रा के दौरान पता नही होने के कारण जटिल रास्ते से जाना पड़ा। यहाँ की चढ़ाई एक दम सीधी है। पिथौरागढ़ से कुछ एक घण्टे के सड़क मार्ग के बाद आप स्वयं को ध्वज मंदिर के प्राथमिक गेट पर पाएंगे क्योंकि यह प्रवेशद्वार सड़क से बिल्कुल लगा हुआ है। यहां से आप गर्दन उठा कर मंदिर देखने का अथक प्रयास न कीजियेगा मंदिर नही दिखेगा। वह बात अलग है कि आपकी गर्दन पर बल अवश्य पड सकता है।
पानी की समुचित व्यवस्था न हो तो यहां की चढ़ाई दुखदाई हो सकती है। जल-पान तो छोड़िए आपको यहाँ आदमी तक नही दिखेंगे। हां मुख्य मंदिर से कुछ 70,80 सीढ़ी नीचे आपको एक बाबा और उनकी कुटिया मिलेगी। ये बात 2008 की है जब एक बाबा वहां धूनी जमाये बैठे थे और सुदूर गांव से कुछ लोग उनके लिए पानी आदि की व्यवस्था करते थे। उस यात्रा में हमारे साथ पूरा परिवार था और बच्चे भी। पानी रास्ते में समाप्त हो चुका था। हम मंदिर के नीचे छोटे से मैदान में सुस्ताने के लिए बैठे ही थे कि बाबाजी ने आवाज लगाई ‘चाय पिनछाई’। ‘अंधा क्या मांगे दो नैना’ हमने झट से हामी भर दी, वैसे तो मैंने कई बड़ी जगहों पर बैठकर चाय पी हुई है लेकिन बाबाजी की चाय ने शरीर में नयी ऊर्जा भर दी। चाय-पानी पीकर हम मंदिर पहुंचे। मंदिर मे नीचे तलहटी से आये गाँव के लोगो की पूजा अंतिम चरण पर रही होगी शायद। समय हो रहा था उनके प्रसाद ग्रहण करने का ।
सब्जी रायता और गरम गरम पूड़ी की खुशबू ने पेट में खलबली मचा दी थी किन्तु महादेव के दर्शन के बिना कुछ नही खाने का संकल्प याद आया वैसे भी उन गांव वालों के लिए हम अनजाने थे लेकिन पहाड़ों में प्रचलित शिष्टाचार वश उन्होंने हमसे पूछा किन्तु हमने न चाहते हुए भी नकार दिया। हमने दर्शन किये और वापस नीचे उतराई शुरू की जो चढ़ने से सरल थी लेकिन ऐतिहात ज्यादा रखना पड़ता था, जरा सा पांव गलत पड़ा आप बिना रुके सैकड़ों फ़ीट नीचे ।
थल-केदार की यात्रा भी लगभग ध्वज जैसी ही है लेकिन जटिल नही कह सकते वर्तमान संदर्भ में बात करें तो। यहां जाने के भी दो रास्ते हैं एक मेरे ननिहाल डाबरी के पास से और दूसरा मेरे गाँव बड़ाबे के पास से। यदि दस पंद्रह लोगो का समूह है तो आप किसी भी मौसम में यहां जा सकते हैं अकेले जाने का खतरा न लें क्योंकि जंगली जानवरों से आपका सामना कही भी हो सकता है। ट्रैकिंग, दर्शन और आत्मिक सुख के लिए यहाँ अवश्य जायें। धन्यवाद
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फोटो साभार: Project Go Native
URL: pithoragarh decorated with nature its own hands-1
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