डॉ. शैलेन्द्र कुमार : मोप्पलों (मुसलमानों) द्वारा हिन्दुओं के संहार से साक्षात्कार आलेख का यह दूसरा भाग है, इसका पहला भाग इस लिंक से पढ़ा जा सकता है । भाग-1 से आगे……….
यह नरसंहार कितना भयावह और बीभत्स था इसे अनुवादक के इन शब्दों से ही समझा जा सकता है कि, ” ऐसे दुर्बल लोग इस पुस्तक को न पढ़ें, जो हिन्दुओं के संहार जनित रक्तरंजित हिंसा के विस्तृत वर्णन को न पढ़ पाएँ।” वीर सावरकर ने जिस प्रकार इस पुस्तक को लिखा है, उससे ऐसा लगता है कि हम कोई चलचित्र देख रहे हैं और हर अगले क्षण को लेकर भयाक्रांत हैं कि कोई अनहोनी घटने वाली है। इस प्रकार इन दृश्यों को साँस रोककर पढ़ना पड़ता है। नृशंस हत्याओं की न समाप्त होनेवाली एक ऐसी श्रृंखला जिसकी कल्पना मात्र से ही शरीर में सिहरन उत्पन्न होने लगती है। पाठक सोचने पर विवश हो जाता है कि मनुष्य क्या इस सीमा तक हिंसक हो सकता है। इसे पशुवत व्यवहार कहना पशु का अपमान होगा, क्योंकि पशु कभी भी इतने हिंसक नहीं होते। यदि मांसाहारी पशु का पेट भरा हो, तो संभव है वह किसी को हानि न पहुँचाए । परन्तु यह तो इस्लाम है, जिसका जन्म ही हिंसा से हुआ है। बदर की छापेमारी और लूटपाट से लेकर आज तक हिंसा और इस्लाम एक-दूसरे के पर्याय हैं। मुसलमानों द्वारा बकरीद में प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में पशुओं (गाय, बैल, बकरे, भेड़ (आदि) के गले को रेत- रेतकर मारने के कारण जिस हिंसा से सामान्यतः वितृष्णा होनी चाहिए, वह सामान्य सी बात हो जाती है। इसलिए गला रेतते हुए मुसलमानों में द पन्न नहीं होता। कोई आश्चर्य नहीं कि मुसलमानों में सहानुभूति, दया, करुणा गुणों का सर्वथा अभाव रहता है। हाल ही में राजस्थान में कन्हैया नाम के जिस पणा की मुसलमानों ने गला काटकर हत्या की, उसका एकमात्र कारण इन दोनों हत्यारों में मानवीय गुणों का घोर अभाव था।
भीमराव रामजी आंबेडकर ने भी अपनी पुस्तक में इस नरसंहार का प्रभावकारी वर्णन किया है। उनके अनुसार, ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध तो विद्रोह ठीक समझ में आता है, परंतु मोप्पलों का मालाबार के हिन्दुओं के साथ व्यवहार दिमाग खराब कर देने वाला था । हिन्दुओं को मोप्पलों के हाथों भयंकर विपत्ति नरसंहार, जबरन मतांतरण, मंदिरों का भ्रष्ट किया जाना, स्त्रियों पर भीषण अत्याचार, जैसे गर्भवती महिलाओं का पेट चीर देना, 4 लूटमार, आगजनी जैसी भीषण विपत्ति और तबाही का सामना करना पड़ा। संक्षेप में, वहाँ मोप्पलों की बर्बरता का बेलगाम नंगा नाच हुआ और मोप्पलों ने हिन्दुओं पर बेइंतहा जुल्म सेना के पहुँचने तक जारी रखे। यह महज एक हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं, अपितु नियोजित और सोद्देश्य हिंसा थी, जिसमें अनगिनत हिन्दू मारे गए, घायल हुए और उनका मतांतरण हुआ । हिन्दुओं की ठीक- ठीक संख्या का पता नहीं, परंतु यह संख्या बहुत बड़ी है।
नरसंहार का सर्वाधिक घृणित पक्ष है आबालवृद्ध अर्थात सबको तलवार से काट-काटकर कुओं में फेंकना । मनुष्य शवों से ये कुएँ भर गए। ऐसे ही एक कुएँ में एक व्यक्ति जीवित बच गया। जब उसकी मूर्छा दूर हुई, तो उसने देखा कि वह शवों से भरे तालाब में है । वह जितना उस तालाब से निकलने का उपक्रम करता, उतना ही अंदर धँसता जाता । किसी बड़ी और कठोर मानव खोपड़ी को संबल बनाकर वह बाहर निकला ।
इस पुस्तक के हिन्दी संस्करण की भूमिका में जे. नंदकुमार ( प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित ) लिखते हैं कि वैसे तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, डॉ. आंबेडकर, वीर सावरकर और एनी बेसेंट ने 1921 के मोप्पला विद्रोह के पीछे छिपे सांप्रदायिक उद्देश्य की सच्चाई को सामने रखा था । फिर भी राजनीतिक मंशा से प्रेरित मार्क्सवादी इतिहासकारों ने तथ्यों को उलट-पुलट दिया और इसे ब्रिटिश तथा उनके सामंती समर्थकों के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए एक मामूली संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया । यह विडंबना ही है कि केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ नेताओं के परिवार के सदस्य राज्य में हुए इस सबसे भीषण सांप्रदायिक दंगे के शिकार हुए। फिर भी उन्होंने इसे सर्वहारा वर्ग की ओर से बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ चलाए गए आंदोलन के रूप में दिखाने का प्रयास किया। कम्युनिस्टों के अतिरिक्त राष्ट्रीय नेताओं ने भी इस नरसंहार की गंभीरता को नहीं समझा। यहाँ तक कि स्वतंत्रता के पश्चात भी इस ऐतिहासिक घटना को सही रूप में रखने का प्रयास नहीं किया गया ।
संयोगवश इस नरसंहार के शताब्दी वर्ष ( अर्थात 2021 ) के उपलक्ष्य में गो. स्थाणुमालयन की पुस्तक ” मोपला कांड 2021 हिन्दू नरसंहार की शताब्दी ” प्रकाशित हुई है। इससे पूर्व भी इस हत्याकांड पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक फिल्में भी बन चुकी हैं। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि यह अभी बहुत कम है। अतः आशा है कि प्रस्तुत पुस्तक इस नरसंहार पर उपलब्ध साहित्य की श्रीवृद्धि करेगी। वीर सावरकर की लेखनी अद्वितीय है । जब भी प्रकृति या मनोभाव के चित्रण का अवसर आता है, तो वीर सावरकर का कवि हृदय जाग जाता है। शब्दों से जिस प्रकार के चित्र बनाए जाते हैं, उन्हें पढ़कर पाठक मंत्रमुग्ध हो जाता है। भाग्यशाली हैं वे पाठक, जो उनकी मराठी रचनाओं को पढ़ पाते होंगे ! मराठी के निकट होने के कारण हिन्दीभाषी भी इसका बहुत-कुछ आनंद उठा सकते हैं। वीर सावरकर की इस रचना को लेकर परम विदुषी प्रो. कुसुमलता केडिया जी से चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि वीर सावरकर के विपुल साहित्य को देखकर यही कहा जा सकता है कि इसकी तैयारी उन्होंने पिछले जन्म में ही कर ली थी और इस प्रकार इस जन्म में उन्हें केवल लिखना भर था । प्रतिकूल परिस्थितियों में कैसे उन्होंने इतनी उत्कृष्ट रचनाओं का निर्माण किया, यह विसमयकारी है !
राजनीतिक दृष्टिकोण से सर्वप्रथम तो खिलाफत आंदोलन चलाना और उसे स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ना एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक भूल थी। इसके लिए देश और विशेषकर हिन्दू समाज गांधीजी को कभी क्षमा नहीं करेगा। जिस खिलाफत को तुर्की के मुसलमानों ने उखाड़कर फेंक दिया, उसके लिए भारत में आंदोलन करके अंग्रेजों पर दबाव बनाना पूरी तरह निरर्थक और अनुचित था । यह मुसलमानों का विशुद्ध तुष्टिकरण था । उसके बाद मलबार जैसे क्षेत्र में अर्धशिक्षित और अनपढ़ मुसलमानों ने इस खिलाफत को अपनी समझ से परिभाषित किया । उनके लिए खिलाफत का अर्थ था उस क्षेत्र में केवल और केवल मुसलमानों का शासन, जिसमें हिन्दू भी न हों। स्पष्ट है कि इसके लिए हिन्दुओं को दो ही विकल्प दिए गए • पहला, मुसलमान बनना और दूसरा, हत्या। इस बीच मुसलमानों में यह – भ्रांति भी फैली हुई थी कि इस्लामी राज्यों, यथा तुर्की, अफगानिस्तान आदि से उनकी सहायता के लिए इस्लामी फौज आएगी। यदि यह भ्रांति नहीं होती तो संभवतः वे ऐसा नहीं करते, क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम थी और ऐसे नरसंहार के परिणाम की कल्पना मात्र से ही वे स्वयं को नियंत्रित रखते ।वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक में यह भी दिखलाया है कि बिना किसी तैयारी के भी हिन्दुओं ने अपनी वीरता का परिचय दिया और यथाशक्ति लड़े भी पुरुष ही नहीं नारियों ने भी अपने शौर्य का परिचय दिया। इतना ही नहीं, जब वे बंदी बना लिए गए, तब भी उन्होंने मुसलमान बनने के स्थान पर मरना श्रेयस्कर माना और अंततः मृत्यु को वरण किया। अस्पृश्यता के कारण बँटे हुए हिन्दू समाज को भी इस नरसंहार ने एक कर दिया। इस घटना का सबसे संतोषप्रद पक्ष यह रहा कि मुसलमान बने सभी हिन्दुओं का शुद्धिकरण करके उन्हें हिन्दू समाज में वापस ले लिए गया । यह अपने आप में अभूतपूर्व घटना थी, क्योंकि इससे पूर्व हिन्दू, मुसलमान बनने के बाद अपने हिन्दू समाज में वापस नहीं आ सकते थे। इस दृष्टि से इसे क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जा सकता है।
मलप्पुरम ऐसा स्थान है, जहाँ अतीत में एक हिन्दू राजा ने सर्वप्रथम कुछ मुसलमानों को शरण दी थी। फिर उसने अपने राज्य के मछुआरों के प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को मुसलमान बनने को प्रेरित किया। फिर भी मुसलमानों की संख्या अत्यल्प रही। कालांतर में, जैसा कि अनुवादक लिखती हैं, आतंककारी हैदर अली और आततायी टीपू सुल्तान ने इस क्षेत्र में तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया, हिन्दू मंदिरों को तोड़ा और हिन्दुओं की जमीन को छीनकर मुसलमानों में बाँटा । इतने अत्याचार के बाद भी 1921 के नरसंहार के समय मुसलमान अल्पसंख्यक ही थे, जो कि स्वयं दंगाई मुसलमानों की आपसी बातचीत से स्पष्ट हो जाता है। परंतु दुर्भाग्य देखिए कि आज अर्थात 2011 की जनगणना के अनुसार, मलप्पुरम में मुसलमानों की संख्या 70.24 प्रतिशत और हिन्दुओं की मात्र 27.60 प्रतिशत है। यह केरल का एक एकमात्र जिला है, जो मुसलमान बहुल है। इसलिए आज और भी आवश्यक है कि हम मुसलमानों के वास्तविक चरित्र को समझें। वैसे भी केरल में कम्युनिस्टों हिन्दुओं को सर्वाधिक क्षति पहुँचाई है । ईसाई और मुसलमान तो अपनी जगह जमे रहे, उखड़े और उखाड़े गए केवल हिन्दू
प्रस्तुत पुस्तक स्वातंत्र्यवीर, प्रकांड विद्वान, अद्वितीय लेखक, महाकवि, महान इतिहासकार और महर्षि श्री विनायक दामोदर सावरकर द्वारा मराठी में लिखित उपन्यास ” मोपल्यांचे – बंड अर्थात मला काय त्याचे ” के हिन्दी संस्करण “ मोपला कांड अर्थात मुझे उससे क्या ?” का अंग्रेजी अनुवाद है । स्थापित लेखिका सुश्री मंजुला टेकल के इस अनुवाद से मुसलमानों के द्वारा किए गए वर्णनातीत अत्याचार और तज्जनित हिन्दुओं की दुर्दान्तक पीड़ा से अंग्रेजी भाषी परिचित होंगे।
यह कार्य अति आवश्यक हैं। जब तक हम इस घटना को याद रखेंगे, तब तक हम अपने-आप को तैयार रखेंगे कि इसकी पुनरावृत्ति न हो। इस दृष्टि से अनुवादक साधुवाद की पात्र हैं।