
सनातन और पश्चिम की दो राहों में फंसा पति – पत्नी संबंध
आदित्य जैन । सनातन परम्परा में पत्नी को जीवन संगिनी ( संपूर्ण जीवन संग रहने वाली ) , भार्या ( भार को वहन करने वाली ) , धर्म पत्नी ( कर्तव्य का बोध कराने वाली ) , अर्धांगिनी ( पति के शरीर , मन , बुद्धि , अंहकार और चेतना को स्वयं में धारण करने वाली ) आदि पदों से अभिव्यक्त किया जाता है । वहीं पश्चिमी परम्परा में पत्नी का आशय यौन इच्छा के पूर्ति के साधन , वित्तीय आदि अन्य दायित्वों को पूर्ण करने वाले अस्थाई माध्यम के रूप में होता है । भारतीय परम्परा में विवाह और पश्चिमी परम्परा में विवाह में बहुत अंतर है । आज यह विवाह दो राहों के बीच खड़ा हुआ है।
विवाह होने के पश्चात् वर और वधू ऐसे अटूट रिश्ते से जुड़ जाते हैं , जिन्हें सात जन्मों तक सहेजकर निभाना होता है। सात जन्मों का आशय एक तरफ तत्त्वमीमांसा के दार्शनिक और आध्यात्मिक पहलू से जुड़ा है तो दूसरी ओर मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक पहलू से भी जुड़ा है । तत्त्वमीमांसा के अंतर्गत पुनर्जन्म का सिद्धांत आता है , जो यह मानता है कि हमारे अस्तित्व की अपरिवर्तनशील इकाई आत्मा भौतिक देह के नष्ट हो जाने पर नवीन भौतिक देह को ग्रहण करती है , जिसकी पुष्टि भगवान श्रीकृष्ण गीता में करते हैं। इस नवीन भौतिक देह का विवाह के रूप में सम्मिलन उसी अपरिवर्तनशील इकाई आत्मा को धारण करने वाली देह से होता है , जो पूर्व में उससे विवाह के रूप में जुड़ी थी ।
सात जन्मों की धारणा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता है। पुरुष और स्त्री छोटी – छोटी बातों पर या अनजाने या जानबूझकर हुई बड़ी गलतियों का समाधान निकालने का प्रयास करते हैं , न कि वर्तमान संबंध को तोड़कर नए संबंध बनाने की भावना से युक्त होकर कार्य करते हैं । आज यूरोप , अमेरिका आदि पश्चिमी समाज जिस विचार से पीड़ित हैं , वह यही है । वहां अधिकांश लोग अपने संबंध को 20 वर्ष भी स्थिर नहीं रख पाते हैं । अर्थात् एक जन्म ( 85 वर्ष ) के एक – तिहाई हिस्से में ही वह संबंध टूट जाता है। आज यह प्रवृत्ति भारत में भी तेजी से बढ़ती हुई दिखाई दे रही है।
इसका कारण क्या है ? संबंधों का बाजारीकरण हो जाना , संबंधों का मूल्यांकन लाभ के दृष्टिकोण से करना , स्त्री या पुरुष द्वारा एक – दूसरे का अधिक से अधिक भोग करने के प्रवृत्ति का बढ़ना । यहां भोग का तात्पर्य मात्र शारीरिक नहीं है , बल्कि यह वित्तीय , मानसिक , भावनात्मक या किसी भी प्रकार का हो सकता है ।
” विवाह ” नामक संस्था का मूल्यांकन दो दृष्टिकोण से किया जा सकता है । प्रथम संस्कार के रूप में , द्वितीय प्रक्रिया या समझौते के रूप में।
यदि इसे संस्कार के रूप में वर्णित करेंगे तो विवाह के माध्यम से दो व्यक्ति , दो आत्मा , दो स्वतंत्र चेतना स्वयं का परिशोधन करती हैं या स्वयं को जानने के प्रयास में स्वयं की कमियों को दूर करने के लिए जीवन भर कृत संकल्प होती हैं । इस दृष्टिकोण में विवाह संबंध दीर्घजीवी , आत्म विश्लेषण परक तथा श्रेय व प्रेय में संतुलन स्थापित करके चलता है ।
यदि इसे ” प्रक्रिया ” के रूप में वर्णित करें तो विवाह पुरुष – स्त्री के मध्य यौन संबंधों की सामाजिक स्वीकृति है । एक दूसरे के पालन – पोषण , निर्वाह तथा रुचियों की पूर्ति हेतु वित्तीय , पारिवारिक , भावनात्मक समझौता है। जहां भी समझौता शब्द आएगा , वहां पारस्परिक लाभ का सिद्धांत आएगा। जहां लाभ का सिद्धांत आएगा , वहां स्वार्थ आएगा । जहां स्वार्थ आएगा , वहां व्यक्तिगत हित आपस में टकराएंगे । फलस्वरूप यदि हितों में टकराव हुआ तो संबंध टूटेंगे । इस प्रकार यह अल्प जीवी , पर विश्लेषण परक तथा प्रेय की ओर झुका रहता है।
वर्तमान में विवाह ” संस्कार ” के रूप में न होकर एक ” वित्तीय – सामाजिक प्रक्रिया ” के रूप में स्वीकृत हो रहा है । जिसमें दोनों पक्ष अपने स्वार्थों की पूर्ति के दृष्टिकोण से इस समझौते को स्वीकार करते हैं । दोनों ही पक्षों की भौतिक अपेक्षाएं या मांग होनी स्वाभाविक है , लेकिन जब यह मांग केवल भौतिक ही होती है तो समस्या को जन्म देती है। किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक चिंतन या जिज्ञासा का न होना , इक्कीसवीं सदी की गंभीर त्रासदी है , जो पति – पत्नी संबंध के मूलभूत आधार को ही खत्म कर दे रही है।
भारत भूमि में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति का उद्देश्य मुक्ति या मोक्ष या कैवल्य की प्राप्ति करना होता है। इन शब्दों का साधारण सा अर्थ है – दुखों से छुटकारा प्राप्त करना। जब व्यक्ति अपने इस आध्यात्मिक लक्ष्य को भूलकर केवल और केवल भौतिक संसाधनों के संग्रह और अपने प्रेय प्राप्ति में ही लग जाता है तो उसे अंतिम रूप से दुख मिलता है। इस दुख का कारण वह अपने से जुड़े संबंधों को मानने लगता है। अत: धीरे – धीरे माता – पिता , चाचा – चाची आदि पारिवारिक संबंधों में टूटन आती है और अंतत: अपने जीवन साथी से भी संबंध को तोड़ने की मन में इच्छा उठती है। यदि पति – पत्नी दोनों का दृष्टिकोण केवल भौतिक है तो संबंध टूट जाता है और यदि किसी एक का भी दृष्टिकोण आध्यात्मिक है तो संबंध के टूटने की संभावना कम हो जाती है ।
अत: आज इस बात की महती आवश्यकता है कि विवाह को पुन: संस्कार के रूप में समाज में और लोगों के मन – मस्तिष्क में प्रतिष्ठा मिले और दो राहों में फंसे पति – पत्नी संबंध सनातन परम्परा की राह में आगे बढ़े।
।। जयतु जय जय सनातन संस्कार परम्परा ।।
लेखक
आदित्य जैन
सीनियर रिसर्च फेलो
यूजीसी
प्रवक्ता ( तर्कशास्त्र ) जी आई सी , बहराइच
स्थाई निवास : प्रयागराज
adianu1627@gmail.com
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Adbhut vyakhyan
बेहतरीन लेख
अति सुन्दर प्रस्तुति ।