कमलेश कमल। जीवन की डोर सदा से ऐसी है…कब किसकी कट जाए…नहीं पता। एकदम से वही निर्णय– जब तक यह डोर नहीं कटती, लोगों को बचाना है, बचाते रहना है। बात साफ है– असमय किसी की डोर क्यों कटे भला??
सोचता हूँ कि उस आत्मा पर मोह और मैल की कितनी परतें होंगी, जो प्रतिदिन इतनी मौतों को देखने-जानने के बाद भी ‘अकड़’ और ‘पकड़’ में ‘जकड़’ कर रह गई हैं। मिथ्या को अब भी सत्य मानने का कैसा पागलपन रे पगले!
यह जागरण का समय है। सोफे पर, कपड़े पर कोई मैल आ जाए तो झट साफ करते हैं…मन पर पड़े मैल को क्या करते हैं? जाग! मैल झाड़… कौन पराया है? सब उसी अंशी के अंश …धरती से धूल उड़ धरती पर ही गिरती है। मृत्यु सब बराबर कर देती है। यहाँ के खिलौने (धन, पद, तादात्म्य) यहीं छूटेंगे मेरे बावरे मन। सबसे माफ़ी माँग ले। झुक जा!