संदीप देव। चिंता से मुक्त बचपन पुनः याद आ गई!
कल रात्रि मैं सोया था,
और चांद की चांदनी छन-छन कर बिस्तर पर आ रही थी!
बचपन में सोते हुए जैसे आसमान निहारा करता था,
चांद और तारों से घंटों बातें करता था,
ठीक वैसी ही कुछ,
कल रात हृदय में हलचल हुई,
चंद्रमा के साथ अपनी कुछ वैसी ही बातें हुई!

बादलों के झुरमुट से झांकता चांद,
और खामोश आसमान!
आंखों में नींद नहीं
और अंदर कोई गहरी उदासी,
चांद की शीतलता में भी आंखें थीं प्यासी,
फिर न जाने कब आंख लग गई,
बातों का वह सिलसिला न जाने कब टूट गई!
सुबह उठा,
फिर बिछौने पर
मैंने और सूरज ने साथ अंगराई ली,
कल रात आंखों में
निंदिया ज्यादा ही गहरा गई,
चिंता से मुक्त बचपन मुझे पुनः याद आ गई!