ओशो।
“संन्यास को मैं घर—घर पहुंचा देना चाहता हूं तो ही संन्यास बचेगा। लाखों संन्यासी चाहिए।
दो—चार संन्यासियों से काम नहीं होगा। और जैसा मैं कह रहा हूं उसी आधार पर लाखों संन्यासी हो सकते हैं।
संसार से तोड़कर आप ज्यादा संन्यासी नहीं जगत में ला सकते, क्योंकि कौन उसके लिए काम करेगा, कौन उनके लिए भोजन जुटाएगा, कौन उनके लिए कपड़े जुटाएगा?
एक छोटी—सी दिखाऊ संख्या पाली—पोसी जा सकती है। लेकिन बड़े विराट पैमाने पर संन्यास संसार में नहीं आ सकता।
सिर्फ दो—चार हजार संन्यासी एक मुल्क झेल सकता है। ये संन्यासी भी दीन हो जाते हैं, ये संन्यासी भी निर्भर हो जाते हैं, ये संन्यासी परवश हो जाते हैं और इनका विराट, व्यापक प्रभाव नहीं हो सकता।
अगर जगत में बहुत व्यापक प्रभाव चाहिए संन्यास का, जो कि जरूरी है, उपयोगी है, अर्थपूर्ण, आनन्द पूर्ण है तो हमें धीरे— धीरे ऐसे संन्यास को जगह देनी पड़ेगी जिसमें से तोड़कर भागना अनिवार्यता न हो, जिसमें जो जहां है वह वहीं संन्यासी हो सके।
वहीं वह अभिनय करे और वहीं वह साक्षी हो जाए, जो हो रहा है उसका साक्षी हो जाए।
तो एक तो संन्यास को घर से, दुकान से, बाजार से जोड्ने का मेरा खयाल है। अदभुत और मजेदार हो सकेगी वह दुनिया, अगर हम बना सकें जहां दुकानदार संन्यासी हो। स्वभावत: वैसा दुकानदार बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा।
जब अभिनय ही कोई कर रहा हो तो बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। और जब कोई साक्षी बना हो तो फिर बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। संन्यासी अगर दफ़र में क्लर्क हो,चपरासी हो, डॉक्टर हो, वकील हो तो हम इस दुनिया को बिलकुल बदल डाल सकते हैं।
तो एक तो संसार से टूटकर संन्यासी दीन हो जाता है और संसार का भारी नुकसान होता है, संसार भी दीन हो जाता है।
क्योंकि उसके बीच जो श्रेष्ठतम फूल खिल सकते थे वे हट जाते हैं, वे बगिया के बाहर हो जाते हैं। और बगिया उदास हो जाती है। इसलिए संन्यास का एक जगत व्यापी आन्दोलन जरूरी है।
जिसमें हम धीरे— धीरे घर में, द्वार—द्वार में, बाजार में, दुकान में संन्यासी को जन्म दे सकें। वह मां होगी, पति होगा, पत्नी होगी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
वह जो भी होगा वही होगा। सिर्फ उसके देखने की दृष्टि बदल जाएगी। उसके लिए जिन्दगी अभिनय और लीला हो जाएगी, काम नहीं रह जाएगा।
उसके लिए जिन्दगी एक उत्सव हो जाएगी, और उत्सव होते ही सब बदल जाता है।
ओशो
नव संन्यास क्या?