BHU में जब 1994 मुझे प्रवेश मिला तो मैं बहुत खुश था। जनेऊ में पंडित जी पूछते हैं, बऊआ पढ़े कहां जायब? उत्तर भी वही बताते हैं, ‘काशी।’
काशी पढ़ने का मेरा सपना साकार हो गया था। लेकिन समस्या हॉस्टल की आ गई थी। नये लड़कों को हॉस्टल अलॉट नहीं हो रहा था।
मुझे वहां छोड़ने के लिए पिताजी नहीं गये थे। उन्होंने अपने एक दोस्त के छोटे भाई को भेज दिया था।
वह तीन-चार दिन मेरे साथ एक होटल में रुके और फिर बीएचयू के ही उनके एक जान-पहचान वाले लड़के के कमरे में मुझे छोड़कर चलते बने।
वह राजा राम मोहन छात्रावास था। जिनके साथ मुझे छोड़ा था वह परास्नातक में थे। उनका एक रूम पार्टनर भी था, जो बंगाली था। ज्यों ही बंगाली को ज्ञात हुआ कि हॉस्टल मिलने तक मैं उसी रूम में रुकूंगा, वह मुझसे चिढ़ने लगा। मुझे हिंदुस्तानी कहने लगा। बिहारी बोका होते हैं, ऐसी बात कहने लगा।
मुझे वह जब भी हिंदुस्तानी कहता, मैं पूछता, ‘फिर आप कौन हैं?’
‘मैं बंगाली हूं!’ बड़े गर्व से कहता।
उसने मुझे इतना परेशान किया कि हॉस्टल की प्रतीक्षा छोड़कर मैं कैंपस के बाहर स्थित एक लॉज में रहने चला गया।
बंगाली अन्य राज्यों के लोगों को हीन और हिंदुस्तानी समझते हैं, यह तब मुझे पहली बार समझ आ गया था।
ममता दीदी ने जिस बंगाली अस्मिता को उभार कर अन्य प्रदेश के लोगों के प्रति बंगालियों में नफरत भरने का काम किया है, उसका बीज कहीं न कहीं बंगाल में पहले से है। उनमें श्रेष्ठता दंभ है। वह बांकी हिंदुस्तानियों से स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं।
ममता अपनी रैली में कहतीं, ‘हम बंगाल को गुजरात नहीं बनने देंगे।’ और लोग सीटी बजाते।
ममता दीदी यह भूल गई कि बंगाल में बड़ा निवेश मारवाडी समुदाय का है। बंगाल के विकास में किसी मारवाडी का धन और बिहारी का पसीना, किसी बंगाली से कम नहीं लगा है।
बंगाली भद्र मानुष जब तक सभी भारतीयों को एक नहीं मान कर चलते, उनके अंदर हिंदुत्व का जागरण भी नहीं आएगा।
दुख होता है कि बंकिमचंद्र चटर्जी, विवेकानंद और सुभाषचंद्र बोस की यह धरती अपने ही महापुरुषों के जगाए राष्ट्रवाद को भूल कर क्षेत्रवाद का शिकार हो गया है, और अब यह क्षेत्रवाद सड़ांध मारने लगा है!
इससे पहले की बहुत देर हो जाए, बंगालियों को अपने गढ़े हिंदुस्तानियों की परिभाषा में स्वयं को भी घुलाना होगा, ठीक उसी तरह जैसे चीनी पानी में घुल जाता है। जय हिंद!