विपुल रेगे। एक फिल्म ‘आदिपुरुष’ का टीजर क्या रिलीज हुआ, बहुत से मुखौटे उतर गए। भूषण कुमार और ओम राउत की इस फिल्म के बहाने ये पता चला कि हमारे सबसे पवित्र ग्रंथ रामायण में बदलाव को लेकर देश के कुछ जाने-माने लोगों की सोच क्या है। इसे लेकर जो राजनीति शुरु हुई, वह केवल अपना नाम चमकाने का प्रयास है और कुछ नहीं। जनता तो बेलाग अपनी प्रतिक्रिया दे रही है लेकिन तथाकथित पार्टियां संतुलित होकर बात कर रही है। आख़िरकार उन्हें हरे टिड्डों के वोट भी तो चाहिए।
सन 2021 के वर्ष में भारतीय सेंसर बोर्ड ने कुल 12144 फिल्मों को प्रदर्शन की मंजूरी दी। इनमे वे फ़िल्में भी शामिल हैं, जिनके कारण समाज में बहुत बवाल हुआ था। ऐसी फिल्मों पर दर्शकों ने आपत्तियां दर्ज कराई। कई प्रकरण तो न्यायालय तक गए और फाइलों की धूल में दबकर रह गए। पद्मावत, पृथ्वीराज चौहान, पीके का उदाहरण सामने है। भारतीय सेंसर बोर्ड का कार्य गंदगी छानने वाली छलनी का है।
बोर्ड का कार्य यही है कि समाज को बुरे ढंग से प्रभावित करने वाली फिल्मों के आपत्तिजनक दृश्यों पर कैंची चला दे या फिल्म को रिलीज की अनुमति ही न दे। हमारा सेंसर बोर्ड ये दोनों ही कार्य नहीं करता। करता होता तो पीके और आदिपुरुष जैसी फ़िल्में बिना आपत्ति पास कैसे हो जाती। सेंसर बोर्ड की स्थापना सन 1951 से हुई। स्थापना के बाद अधिकांश समय सेंसर बोर्ड पर कांग्रेस सरकारों का आधिपत्य रहा।
कांग्रेस की सोच को सेंसर बोर्ड ने अपना लिया। मंदिरों के अपमान, साधू-पुजारी-सेठ को बुरा दिखाना, धर्म पर चोट करना आदि तरीकों पर फ़िल्में बनती रही और सेंसर बोर्ड उन्हे पास करता रहा। परंपरा बन गई कि हिन्दू धर्म पर प्रहार करने वाली फिल्मों को बिना कट पास किया जाए। आज देश में भाजपा की शक्तिशाली बहुमत वाली सरकार बैठी है लेकिन सेंसर बोर्ड ज़रा भी नहीं बदला।
बोर्ड बदलना तो दूर की बात है, हिन्दू विरोधी फिल्मों को और तेज़ी से पास किया जाने लगा। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। वर्तमान अध्यक्ष प्रसून जोशी को भी इसी सरकार ने बैठाया है। प्रसून जोशी कैसा काम कर रहे हैं, ये देश ने आदिपुरुष के टीजर से अच्छे से समझ लिया है। आदिपुरुष को लेकर दिखावे की राजनीति शुरु हो गई है।
टीवी चर्चाओं में जब सेंसर बोर्ड की भूमिका पर प्रश्न होते हैं तो भाजपा के प्रवक्ताओं को कोई अफीम सुंघा देता है। वैसे भी नूपुर शर्मा प्रकरण के बाद भाजपा प्रवक्ताओं की प्रतिष्ठा बहुत गिर चुकी है। मध्यप्रदेश के गृह राज्य मंत्री डॉ नरोत्तम मिश्र ने पहले तो फिल्म का पुरजोर विरोध किया लेकिन जब एक पत्रकार ने पूछ लिया कि मध्यप्रदेश में फिल्म पर बैन लगाएंगे तो उस पर चुप्पी साध गए।
स्पष्ट है कि आदिपुरुष को लेकर भाजपा नेता और उनके सोशल मीडियाई भाड़े के लेखक अपनी सरकार से प्रश्न कैसे कर सकते हैं। भाजपा में लोकतंत्र होता तो अवश्य मिश्र जी सेंसर बोर्ड को कटघरे में खड़ा कर सकते थे। महाराष्ट्र में भी इसे लेकर राजनीति चालू है। राज ठाकरे की पार्टी ने फिल्म के निर्देशक ओम राउत को क्लीन चिट दे दी है। राज ठाकरे ने क्षेत्रीय अभिमान को रामायण से उपर ले जाकर रख दिया है।
इस सारे काण्ड के ज़िम्मेदार भारतीय सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी चुप है। किसी टीवी चैनल के उत्साही पत्रकार ने उनके मुंह में अब तक माइक नहीं घुसेड़ा। विगत 15 सितंबर को जोशी जी का जन्मदिन था। उस दिन मीडिया ने प्रसून को ज़ोर शोर से याद किया। अब पत्रकारों को प्रसून याद नहीं आ रहे हैं। फिल्म ‘दिल्ली-6’ के लिए प्रसून जोशी ने एक गीत लिखा था।
उस गीत को सुनकर तारीफ़ के लिए जोशी को पकिस्तान से कॉल आई थी। अब हमें समझ आ गया है कि आदिपुरुष जैसी फ़िल्में सेंसर बोर्ड से बिना आपत्ति कैसे पास हो जाती है। जब आपकी मानसिकता ही हिन्दू विरोधी हो तो कुछ कहने की आवश्यकता कहाँ रह जाती है।