शंकर शरण-
हनूदिया खानदान का किस्सा है। कभी नूरू साबू बादशाह हुआ करते थे। पहले वे महज नबाव थे। उन के बचपन के दोस्त थे बादशाह अंगू साबू। जिन ने अपनी उम्र की ढलान पर, राजकाज से बेजार हो यकायक अपनी बादशाहत नूरू के हवाले कर दी।
नूरू के छोटे बिरादर थे सांगी। उन्हें रश्क हुआ कि नूरू बैठे-बैठे बादशाह बन गये। वक्त गुजरने लगा। नूरू बादशाह तो हुए, गो अंगू साबू वाली बात न रही। फिर बहुत वक्त बाद भी बादशाह को औलाद न हुई। हालाँकि उस ने दो ख्वानदे शाहजादे बना लिए थे। सेकू और वामू। दोनों होशियार थे, पर तंगदिल और खुदगर्ज। उन की तंगदिली धीरे धीरे रियाया के शरीफों को तकलीफ देने लगीं। अजलाफों-अरजालों को तो खैर क्या मतलब, औ क्या समझ थी सियासी पचड़ों की!
सो, सांगी नबाव ने अपनी हसरत की तरकीब सोची। गर दरबारियों और काफी शरीफों को भरोसा दिला दे कि हनूदिया खानदान का बेहतर लाल सांगी है, तो किसी हीले से बादशाह को खिसका कर बादशाहत ले सकता है। सो उस ने तिकड़म शुरू कर दीं। कानाफूसी से नूरू की बदनामी में लग पड़ा। इस में उस के हम-मदरसे बड़े काम आए। सांगी की तालीम अजब मदरसे में हुई थी। जिस में बमुश्किल दो-तीन फटीचर किताबें पढ़ाई जाती थीं। मदरसे के मौलवी उन किताबों को भी गैरजरूरी मानते थे। उन का ज्यादा वक्त अपनी खूबियाँ बताने में लगता था। ताकि उन्हें ऊँची चीज समझ कर उन के तालिबान हर हुक्म बेशक तामील करें। इस के सिवा तालिबों को उछलना-कूदना सिखाया जाता था। उन से बस ये उम्मीद की जाती थी कि वे जगह-जगह घूम वैसे मदरसे बनाते रहें। मौलवियों में एक खूबी थी कि उन्होंने पुरानी जहीनी किताबों से ऐसे अल्फाज रट रखे थे, जिसे बमुश्किल कोई इस्तेमाल करता था। लिहाजा, बाज लोगों को मौलवियों की बातें लगतीं। लफ्जों के मानी से उन्हें मतलब न था। बस वे उस के लच्छे दोहरा के खुश होते थे। वही लच्छे उन के शागिर्द भी दोहरते। सो उस मदरसे के तालिबान कमअक्ल होके भी अपने को अक्लमन्द समझते थे।
तो सांगी नबाव के हम-मदरसे मुल्क में घूम-घूमकर, उल्टी-सीधी बातों से लोगों के कान भरने लगे। उन्होंने सौदागरों को खास निशाना बनाया, जो दिल के कच्चे और दिमाग से तंग थे। नबाव के हम-मदरसे उन से रकम भी माँगते रहते थे, ताकि नूरू बादशाह पर तोहमतें लगा के मुल्क की खिदमत करें।
किस्सा-कोताह, सांगी के हम-मदरसों की कोशिशों और वक्त की चाल ने रंग दिखाया। नूरू की बदनामी, शरीफों की गफलत, अजलाफों-अरजालों को दिखे सब्जबाग ने सांगी को मौका दे दिया। वे बादशाहत पर काबिज हो गये।
गोकि अजब मदरसे की खासियत मुताबिक नबाव भी अक्ल में तंग था। तालिबों में भी अव्वल न था। मगर ड्रामेदार लच्छे दे सकता था, जो उस की खासियत थी।
सांगी को गद्दी मिलने के बाद से वो बादशाह कमाल कहलाने लगा। उसे गुमान था कि वो वाकई कमाल है! विलायत के आलिम भी उस के सामने कुछ नहीं। लिहाजा वो सब को लच्छे देते रहता था। दरअसल उस ने लच्छेदारी को बादशाहत का सब से अहम काम मान रखा था। नये-नये लच्छे बनाना, और कोठे पर से मुँह बना-बनाकर रियाया को सुनाना उसे बड़ा पसंद था। हालाँकि शरीफों में ज्यादह लोग इसे बेजायका मानते थे, मगर सांगी को शरीफों की परवा न थी। वो अरजालों में अपनी शख्सियत पर खुद फिदा था।
लेकिन बरसों बरस कमाल के भी औलाद न हुई। एक हुई भी तो नबाव ने किसी अरबी दोस्त को सुपूर्द दे दी। मसखरों ने कहा कि हो न हो वो औलाद भी बादशाह की न थी। बेगमों ने सफाई दी कि अच्छी परवरिश और अरबी इल्म हासिल करने के लिए औलाद को अरबों के हवाले किया है। मगर उड़ती-उड़ती खबरों से लगता था कि सांगी का शाहजादा अपने को अरबी समझता है, और मुल्क को अपने लायक नहीं मानता। खैर।
वक्त के साथ रियाया भी समझ गई कि वो औलाद तो गई। बादशाह फिर बेऔलाद ही है। जुबानें चलनी शुरू हो गईं। जब बेऔलादी ही रहनी थी तो गुजिश्ता बादशाह क्या बुरा था! उस की खूबियाँ भी लोगों को याद आने लगीं। पुराने बादशाह के खासुल-खास भी उस की काबिलियत, खुदमुख्तारी, और शाइस्तगी का बखान दोहराने लगे।
इस पर नामर्द नबाव, जो अब कमाल बादशाह था, बडा़ रंज हुआ। अपनी बताने के बजाए वो नूरू के शाहजादों को बदकार, गिरहकट, उठाईगीर वगैरा बताने में पिल पड़ा। कमाल के कसीदेकार भी हैरत में। गो खौफ से कहते न थे, कि बेहतर औलाद का वादा निभाने के बजाए वो पिछले शाहजादों की खोट निकालने में क्यूँ पड़ा है! इस से तो शक पुख्ता होगा कि हो न हो, नबाव नामर्द है। पर नबाव लच्छेदारी के सुरूर में था। उसे गुरूर था कि रियाया उस की खूबसूरती और लच्छों पे फिदा है। लिहाजा उसे औलाद पैदा करने, हकीमों से मशविरे की फिक्र न थी। वह आए रोज नई अचकन-शेरवानी और तकिया पहने दीवाने-आम में अदाएं दिखलाता था। कभी मुस्काते, कभी रंजीदा, कभी संजीदा कि बड़े-बड़े इल्मियों को फलसफे बताता – गोया खुद खुदावन्द ने उसे सब सिखाया हो। कभी ऐंठ में मूँछे सहलाते, कभी ठाठ में लाखों की अचकन डाले, जैसी कैसी अदाओं में। हालाँकि एक अजीब थी कि जब बाज मुल्कों के बादशाह या नबाव आते, या सांगी बादशाह उधर जाता तो इस की सूरत अहमकों सी हो जाती थी। खैर, जो भी हो, उसे औलाद पैदा करने या फर्जंदे निस्बती भी लाने की परवा न थी। जब खासुलखास हज का वक्त आता तो वो मीना बाजार लगवा के, ढोल-ताशे वगैरा से अजलाफों-अरजालों की नजर उतारने की जहद करता।
बेचारी बेगमें! वे भरसक रियाया को कभी मुस्कान, कभी गुस्से से कायल करने की कोशिश करतीं, कि नबाव पूरा मर्द है। बस वो मुल्क की बेहतरी में मसरूफ है कि हरम आने की फुर्सत नहीं मिलती। लौंडियाँ कहतीं कि बादशाह तो छैला है। कोई कहतीं कि वो बड़ी मुश्किलात झेल रहा है। मगर औलाद होगी, तसल्ली रखें। आज नहीं तो बीस साल बाद। अगले खासुलखास हज के बाद उसे खुदावन्द वो ताकत दे कर रहेगा। बाज लौंडियाँ भी सुर मिलातीं कि हाँ नहीं तो, गर खुदा ही न चाहेगा, और इस के लिए रियाया इबादत नहीं करेगी, तो औलाद कैसे होगी भला! आखिर औलाद पैदा करना महज बादशाह के हाथ में थोड़े न है। रियाया को भी दिली इबादत कर, पाक-साफ जिंदगी जी के खुदा को खुश करना होगा। खुदा की खुशी बगैर कोई औलाद कैसे हो सकती है!
बहरहाल तीन-चार खासुलखास हज के बाद भी जब हरम में शहनाइयाँ न बजीं, तो शरीफों को शक हुआ कि हो न हो नबाव पूरा नामर्द है। उस ने बस पिछले नबाव को बदनाम करने की खातिर जवाँमर्दी की एक्टिंग की थी। मगर अब बेचारी बेगमें, और लौंडियाँ क्या करतीं! उन ने तो खुदी रंगीन किस्सों में फँस के अपने को नबाव के हवाले किया था। कुछ बाकायदा हरम में दाखिल हो गई थीं, जिन को नबाव ने मखमल, तोसक, चोबदार, वगैरा दिलवा दिए थे। लौंडियाँ कुछ खास न पा के भी उम्मीदवर थीं, और सांगी नबाव के ऐसे दिलकश किस्से सुनाती रही थीं, कि अब जैसे-तैसे भी नबाव की खूबियाँ बताने के सिवा उन्हें कोई राह न सूझती थी।
जब करीबी लोग पूछते कि सांगी की औलाद का क्या बना, तो लौंडियाँ बात गोल कर तसल्ली देतीं कि ये नबाव पिछले से लाख दर्जे बेहतर है। नूरू शाहजादों की मत सोचो, जिन के मामा पराए मुल्क के हैं, जिन की परवरिश विलायत में हुई थी, वगैरा वगैरा। करीबी सोच में पड़ जाते कि छोकरी को हुआ क्या है! इस से सांगी नबाव की बाबत पूछो तो ये नूरू बादशाह और उस के शाहजादों की खामियाँ गिनाने लगती है।
किस्सा-कोताह कि बेगमें और लौंडियाँ मुश्किल में पड़ीं। औलाद होने में उन का रोल भी होना था। मगर अस्ल रोल तो नबाव का था, जिस से खानदान और रियासत रहती है। गर वही नकारा, तो बेगमें क्या करें! वे तो राजी-खुशी हरम दाखिल हुईं थीं। अब किसे कहें कि नबाव तो हरम आता नहीं! न हरम से बाहर कोई इश्क के किस्से उड़े। न वो हकीम बुलाता है। सो, हो न हो नबाव नामर्द है, और मर्ज लाइलाज है। तो क्या हकीमों से मिले, और क्या बेगमों के पास जाए!
मगर चूँकि गुजिश्ता बादशाह को बदनाम कर तख्त पर काबिज होने का जरिया यही हुआ था कि सांगी अपने को शानदार मर्द बताए, तो अब बेगमें और लौंडियाँ क्या करें! बस नूरू बादशाह के नुक्स बताती दिन काट रही हैं। फिर, कइयों को मखमल, मेवे, वगैरा मिले हुए हैं। सब जान गये हैं, आदत हो गई है। उमर ढल रही है। अब कहाँ जाएं!
बाकी, औलाद होनी न होनी खुदा की कुदरत है। खुदा की पनाह से कोई बाहर थोड़े न जा सकता है…