विपुल रेगे। हर फिल्म निर्देशक की एक ‘सिग्नेचर स्टाइल’ होती है। ऐसे ही मधुर भंडारकर की भी एक सिग्नेचर स्टाइल है। मधुर की फिल्मों में भिखारी, वेश्यावृत्ति, शराबखाने बहुत दिखाई देते हैं। कहते हैं मधुर वास्तविकता दिखाते हैं लेकिन उनकी नई फिल्म ‘इंडिया लॉकडाउन’ के बारे में ऐसा नहीं कह सकते। ‘इंडिया लॉकडाउन’ वेश्याओं के मोहल्ले और युवा जोड़ों के ठरकपन से आगे नहीं जा पाती। ये फिल्म लॉकडाउन की भयावहता के केंद्र में नहीं जा पाती। फिल्म देश के आम नागरिक के संघर्ष और विजय की कहानियों से कतराकर निकल जाती है और ठरकपन के उथले गड्ढे में जा गिरती है।
मधुर भंडारकर जैसे गंभीर निर्देशक से हम आशा नहीं कर सकते कि वे लॉकडाउन जैसी त्रासदी पर ऐसी सस्ती फिल्म बना देंगे। लॉकडाउन के दौरान भारत में हज़ारों कथाएं जन्मी। उनमे कुछ बहुत रुलाने वाली थी और कुछ कथाओं में आशा का संचार होता था। मधुर की फिल्म तो डॉक्युमेंटेड भी नहीं है। उनकी फिल्म में कोई आंकड़े, कोई सत्यकथा दिखाई नहीं देते।
मधुर ने ‘लॉकडाउन’ विषय को भुनाने के लिए एक सस्ती बेहूदा फिल्म का निर्माण कर डाला है। क्या इस त्रासदी का शिकार केवल वेश्याएं हुई थी। देह व्यापार एक गंभीर समस्या है और इस पर मधुर को अलग से एक फिल्म बनानी चाहिए। फिल्म का आधे से अधिक हिस्सा तो वेश्यालय के नाम कर दिया गया है। कहानी में कई ट्रेक्स चलते हैं। एक ट्रेक गरीब दपंति का है।
ये ट्रेक अच्छा हो सकता था लेकिन इसमें भी मधुर जी ने ठरक परोस दी है। एक ट्रेक में युवा जोड़ा शारीरिक संबंध बनाने के लिए आतुर है। इस बीच लॉकडाउन लग जाता है। इसमें एक महिला पायलट है, वह भी ठरक का शिकार रहती है। ‘लॉकडाउन’ इतना विस्तृत विषय है कि इस पर एक नहीं कई फ़िल्में बन सकती है। उस भयानक दौर में जिन कहानियों ने जन्म लिया, उन पर तो कई स्क्रीनप्ले लिखे जा सकते हैं।
फिल्म में डॉक्टरों के योगदान पर कोई दृश्य नहीं है। फिल्म में उन दयालु नागरिकों पर कोई दृश्य नहीं है, जो पलायन करते मजदूरों के लिए खाना और पानी लिए खड़े रहते थे। समस्या ये है कि मधुर भंडारकर ने अपने चश्मे से ये त्रासदी देखी है और इसलिए उनकी रचनात्मक प्रस्तुति इतनी लचर सिद्ध हुई है। ZEE5 पर रिलीज हुई ‘इंडिया लॉकडाउन’ उस भयानक त्रासदी का मज़ाक उड़ाती प्रतीत होती है।
इसे देखने पर ऐसी अनुभूति होती है, मानो सांप को छू लिया हो। ऐसी ठंडी लिजलिजी फिल्म भला कौन देखना चाहेगा।