रियो ओलंपिक आपने समापन की और अग्रसर है और भारत की झोली अभी तक खाली है, लोगों में सुगबुगाहट भी है की भारत को कोई पदक नहीं मिला. सन १९०० से हम लगातर ओलंपिक में अपने देश के खिलाडी भेजते हैं और ११६ साल के ओलंपिक के इतिहास में हमारे खाते में दर्ज है केवल २६ पदक. कभी किसी ने सोचा है क्यों ? लगभग 130 करोड़ की जनसंख्या वाला देश भारत एक अकेले ओलंपियन माइकल फेल्प्स के पदको के बराबर ही पदक जीत पाया है. दोस्तों! आइये जरा विश्लेषण करते हैं भारत का ओलंपिक में मैडल नहीं जीतने के पीछे क्या कारण है? क्यों हम ओलंपिक में पदकों के मामले में इतने गरीब हैं?
भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हर परिवार अफ़सोस जाहिर कर रहा है कि भारत को अब तक कोई भी मैडल नहीं मिला, चिंता सबको है, कोसना भी सबको है लेकिन कभी किसी ने सोचा क्यों? हमारा खेलों के प्रति कितना समर्पण है? हमारे अपने घरो से कितने खिलाडी देश को दिए हैं या देना चाहते हैं, मित्रों एयर कंडीशन कमरो में खिलाडी तैयार नहीं होते , खेल के मैदान स्वयं को तपा कर ही खिलाडी तैयार होते हैं, हममें से कितनों ने यह सोचा कि मेरा बेटा या बेटी फलां फलां खेल खेलेगा और देश के लिए ओलंपिक से मैडल लाएगा, जवाब हम सब का लगभग एक ही होगा. हमें देश में क्रांति चाहिए, लेकिन क्रांति की आहुति में जलने वाला अपने घर से नहीं बल्कि पडोसी के घर से होना चाहिए . इस मानसिकता के साथ रह कर हमें कोई हक़ नहीं बनता यह कहने का कि भारत ओलंपिक में पदक क्यों नहीं लाता?
सोचिये जरा कहा जाता है विद्यालय देश के भविष्य का निर्माण करते हैं. क्या वाकई आज के विद्यालय में देश का निर्माण हो रहा है ? मैं तो कहूँगा नहीं स्कूलों में केवल सपने दिखाए जा रहे हैं, विद्यालयों का कार्य होता है विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास करना लेकिन यह विकास केवल स्कूलों की टी आर पी के साथ जुड़ गया है ,स्कूलों ने विद्यार्थियों को ग्रेडिंग का खेल सिखाया, कक्षायें हाईटेक हो गयी, कंप्यूटर लग गए लेकिन स्कूल वाले खेल के मैदानों में हॉकी और फुटबॉल के पोल लगाना भूल गए , स्कूल का इंफ्राटेक्चर शानदार बनाते गए कक्षाओं का भी विस्तार करते गए लेकिन मैदान सिकुड़ते चले गए. विकास तो हुआ है लेकिन वह सर्वांगीण है! यह सवाल आप पर छोड़ता हूँ?
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ आज के स्कूलों में पढने वाले अधिकतर विद्यार्थियों को यह तक नहीं पता होगा की ओलंपिक में कौन कौन सी स्पर्धायें होती है या फलां-फलां प्रतियोगिता का क्या नाम है? अब आप सोच लीजिये खेलों के प्रति उदासीन इन विद्यालयों से आप भविष्य के ओलम्पिक खिलाड़ियों की उम्मीद रखते हैं तो आप महामूढ़ हैं.
डीडीए, जीडीए, आवास-विकास जैसी संस्थाओं ने अपनी जिम्मेदारी निभाई आपको आवास मुहैय्या करवाया तथा यह भी सुनिश्चित किया कि वहां पर बच्चों के लिए खेलने की व्यवस्था हो इसलिए पार्क बनाये. लेकिन हमने और हमारे ही द्वारा चली गयी संस्थाओं जैसे RWA और समितियों ने उन खेलने वाली जगहों का सौंदर्यीकरण कर उस पर एक बोर्ड चस्पा कर दिया कि ‘यहाँ पर खेलना मना है’ खेल फिर रख दिए गए ताक पर ! अरे मूढ़मतियों! ये पार्क बच्चों के खेलने के लिए बनाये गए थे यहाँ फूल तो खिल गए लेकिन किस कीमत पर ! फूल से बच्चों के विकास पर फावड़े चला दिए हमने ! देश में मॉल बनते हैं व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी बनते हैं लेकिन खेलने के लिए खेल परिसर नहीं! तो किस हक़ से हम और आप ओलंपिक से मैडल की उमींद लगाए बैठे हैं?
यदि कोई खिलाडी अपनी मेहनत और दम पर कोई मैडल ले आता है उस पर केंद्र सर्कार और राज्य सरकार अपने अपने खजाने लुटाने के लिए तत्पर रहते है. अरे ! राज्य और केंद्र सरकार के अधिपतियों! पदक जीतने के बाद करोडो रुपये देने से बेहतर होता कि यही पैसा पदक जीतने की तैयारी में लगाया होता. सफलता प्राप्त करने के बाद खिलाडी की पीठ थपथपाने से पहले सफल होने के लिए कंधे पर हाथ रखते तो ज्यादा बेहतर होता.
दीपा कर्मकार दीपिका कुमारी जीतू रॉय.विकास कृष्णन जैसी प्रतिभायें बहुत हैं हमारे देश में जरूरत है सिर्फ नेक नियति और आंख खोलने की वरना हम 116 साल में हमने केवल 26 मैडल जीते हैं और अगले 100 सालों में भी 100 मैडल का आंकड़ा पर कर पाएंगे संदेह है.