मनीष ठाकुर। याद आता है, यही अगस्त का महिना था ,1986 का एशियाड चल रहा था उसी समय घर में नया-नया रंगीन टीवी आया था। शायद नारा बांधने की तमीज नहीं थी लेकिन इंट पर इंट जोड़ कर गोल्ड मेडल और सिल्वर मेडल हम कॉलोनी के बच्चे और पड़ोस में आए मेहमान के बच्चे आपस में बांट रहे थे। लग रहा था मानों देश के लिए गोल्ड ले रहे हों। उस ऐशियाड में पहली बार पूरी तरह से चीन का दबदवा हो रहा था। दो साल बाद ओलंपिक हुआ, चीन पदक तालिका में बहुत दूर था सभी गोल्ड अमेरिका और तत्कालिन सोवियत संघ मानो आपस में बांट रहे थे। उस वक्त वे दोनो महाशक्ति थे और खेल में भी वो महाशक्ति ही दिख रहे थे।
यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक सोवियत रुस का वजूद रहा। ओलंपिक में अब लगातार सोने का तमगा हासिल करने में अमेरिका के बाद चीन रहता है और तीसरे नंबर वाला देश उससे बहुत दूर जैसे तीन दशक पहले तीसरे नंबर का देश सोवियत रुस से काफी नीचे रहता था। अब चीन इसी बात पर न सिर्फ इतरा रहा है बल्कि खुद को चीन का प्रतिद्वंदी समझने वाले भारत को उसकी औकात बता रहा है। सरकारी चीनी मीडिया ने पदक तालिका में जगह बनाने के लिए तरस रहे भारत को अपमानित करते हुए कहा है ‘’सवा सौ करोड़ वाला देश देखिए कहां है? खुद को महाशक्ति समझने का भ्रम पाने वाला देश एक पदक के लिए तरस रहा है। चीन मीडिया खेल में भारत की लाचारी पर कहता है भारत की बदहाली का कारण हैं मूलभूत ढांचे की कमी, स्वास्थ्य की कमी, ग़रीबी, लड़कियों को खेलों से दूर रखना, लड़कों पर अच्छे डॉक्टर और इंजीनियर बनने का दबाव, क्रिकेट की लोकप्रियता और ओलंपिक के बारे में ग्रामीण इलाक़ों में जानकारी की कमी’’।
कई दशकों से ओलंपिक में भारत की यह बदहाली जस की तस है। हम बस सपना देखते रहे कि अगली बार काया कल्प होगा। लेकिन लगातार चीन की बढती खेल शक्ति ने भी हमारी चेतना को नहीं जगाया। बस हम खाली हाथ लौटे खिलाड़ियों को अपमानित कर अपना गुस्सा निकाल कर ठंढा हो लेते हैं। सवाल यह है कि क्या आजादी के सात दशक बाद भी हम यह माहोल बना सके कि बाप अपने बेटे को दिन भर उस खेल में जान लगाने को उत्साहित कर सके जिसमें उसका बेटा जीता है। जब तक खेल रोजगार का जरिया न बन जाए कोई बाप यह हिम्मत कैसे जुटा पाएगा? फिर ओलंपिक में सोने चांदी की हमारी आस क्या बेईमानी नहीं है ? आज जब खेल में वर्चस्व यह तय करता हो कि आपकी हैसियत क्या है वैसे में क्या खेल को इग्नोर किया जा सकता है? आज की तारिख में देश के 90 प्रतिशत स्कूलों में या तो खेलकुद की कोई व्यवस्था नहीं है यदि है भी तो बस औपचारिकता के लिए। ऐसे में ओलंपिक में भाग लेने गए खिलाडियों से उम्मीद बेइमानी नहीं है?
देश में प्राक्रितिक रुप से सबसे बदनसीब बिहार के कोसी इलाके से लाजबाव फोटो पत्रकार अजय कुमार Ajay Kumar Kosi Biharकी भेजी तस्वीर दिखाता है कि हर साल प्राकृतिक मार झेलते हुए बदहाली में जीने वाले बच्चों में भी क्या प्रतिभा है? क्या इन्हें निखारा नहीं जा सकता? मजा लेने के बहाने ही जो चिंता चीन हमारे लिए कर रहा है वो हम अपने लिए नहीं कर सकते? क्यों दबाव है हमारे बच्चों पर बस इंजीनियर और डॉक्टर बनने का ? जबकि हर बाप का हीरो सचिन तेंदुलकर है। लेकिन सवाल यह कि कितने पिता अपने बेटे को सचिन बनाने का जोखिम ले सकते हैं? क्रिकेट राष्ट्रीय टीम के ग्यारह में न चुने जाने के बाद के अंधकारमय भविष्य से मुक्ति कैसे मिलेगी। हमें यह भ्रम है कि हम सब कुछ क्रिकेट में न्योछावर करते हैं। उनका दर्द जानिए जो राष्ट्रीय टीम का हिस्सा नहीं बन पाए। और अंधेरे में गुम हो गए।
ये बच्चों पर इंजीनियर और ड़ॉक्टर बनने का सबसे ज्यादा दबाव बिहार में और पूर्वी यूपी में है क्योंकि वहां इसके अलावा तीसरा विकल्प है तो बस सिविल सर्विस का ही है। और उससे हारे तो पत्रकारिता का, यहीं से अंधकार शुरु होता है। फिर अंधेरे में कहां तीर चलाया जाए कि निशाना सीधे सोने के तमगा पर लगे? रोजी रोटी के दबाव से हम मुक्त कहां हो पाए की पदक तालिका में फिसड्डी रहने को हम अपमान जनक मान सके। ये मसला अपनमानजनक तो उनके लिए है जो महाशक्ति हैं उनके लिए नहीं जो आंख मुंद कर महाशक्ति बनने का सपना देखते हैं।