भारत की शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल परम्पराओं से निकल कर वातानकूल कक्षाओं तक पहुँच गयी है। शिक्षा ग्रहण कर प्रसारित करने की बजाय केवल जीविकोपार्जन के लिए जीवन के शुरुवाती 20-25 साल खपाने की व्यवस्था बनकर रह गयी है। इस व्यवस्था के तहत भारत के अभिभावक ऊँचे दामों में अपने बच्चों के लिए ऊँची डिग्री खरीदना चाहते हैं ताकि कल उनका बच्चा इंजीनयर या डॉक्टर की डिग्री लेकर देश विदेश में सेट हो जाए। भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हम लेखों की एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं प्रस्तुत है दूसरा आलेख…
राजीव रंजन प्रसाद। शिक्षा की समाजशात्रीय परिभाषा भी होनी चाहिये। विविधता से भरे इस देश में हम एकता का वृक्ष फलता फूलता देखना चाहते हैं लेकिन अमीर-गरीब की तरह बच्चों के बीच भी दृष्टिकोण की खाई खोद रहे हैं। किस स्कूल में पढ रहे हो यह सामाजिक स्तर से जुडा प्रश्न बनने लगा है। अपना ही उदाहरण देना चाहूंगा। मेरे पिता केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक थे, मैंने इसी संस्था में अध्ययन किया और बच्चों को भी नि:संकोच इसी संस्था से पढा रहा हूँ। हर दूसरा व्यक्ति राय दे जाता है कि मुझे बच्चों को किसी अच्छे निजी संसथान में पढाना चाहिये। बहरहाल केंद्रीय विद्यालय जो बहुत अच्छे संस्थान माने जाते थे, जहाँ आज भी प्रतियोगिता परीक्षा-साक्षात्कार आदि के पश्चात देश के श्रेष्ठतम अध्यापकों का चयन होता है वे पहाँ पिछ्ड गये हैं? परीक्षा परिणामों के आंकडे देखता हूँ तो निजी संस्थानों से आगे केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय प्रतीत होते हैं तो समाज बच्चों को शिक्षा के साथ साथ क्या और देना चाहता है?
मैं विचारधाओं की चाशनी चाटना नहीं चाहता। मेरी अपनी स्वतंत्र सोच है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और आंतरिक सुरक्षा जैसे विषय निजी हाथों में सौंप कर हम गहरी खाई खोद रहे हैं। विचारधाराओं के लिये समानता की अवधारणा टाटा को टेमरू के बराबर बना देने की हो सकती है लेकिन टेमरू को टाटा की आँखों में आखें डाल कर बराबरी से सपने देखने का हक तो आपकी अ-समान शिक्षाप्रणाली से ही हासिल हो सकता था। ऐसा क्यों हुआ कि आज भी ग्रामीण-कस्बाई और बहुत हद तक शहरी क्षेत्रों में भी अधिकतम विद्यार्थी सरकारी स्कूलों से ही अध्ययन कर रहे हैं लेकिन हमारे सामाजिक चश्में ने उन्हें दोयम दर्जे का सिद्ध कर दिया है? क्यों कोई अभिभावक यह बताते हुए झिझकने लगा है कि उसके बच्चे किसी पाँच सितारा भवन में नहीं सरकारी स्कूल में पढ रहे हैं? समस्या कब और कैसे उत्पन्न हुई यह चर्चा विस्तार से करना चाहूंगा लेकिन आशा की बहुध धुंधली किरण की तरह एक समाचार पिछले वर्ष बलरामपुर जिले (छत्तीसगढ) से आया था जब कलेक्टर अविनाश कुमार शरण ने अपनी पाँच वर्षीय पुत्री का प्रवेश स्थानीय शासकीय प्रज्ञा प्राथमिक विद्यालय में करवाया। यह सांकेतिक रूप से दिया गया बहुत बड़ा संदेश है, यदि कोई समझ सके।
समान शिक्षा की अवधारणा ही देश में समान सोच का बीजारोपण कर सकती है। आप प्रतिभा को आगे लाये जाने के पक्षधर हैं तो मंहगे जिल्द वाली कॉपियों के साथ चाँदी का चम्मच थमा देने से बात नहीं बनेगी। हमारे नीतिनिर्माता थोडा ठहर कर सोचें कि बेहतर विदेश नीति, बेहतर रक्षा नीति, बेहतर वाणिज्य-व्यापार नीति से बड़ी प्राथमिकता है बेहतर शिक्षा नीति। व्यापारियों के हाथों बच्चों की शिक्षा को थमा देना हमें निकट भविष्य में बहुत भारी पड़ने वाला है। सही समय है कि हम अल्पविराम ले कर सोचें कि पढाना केवल दायित्व नहीं है, केवल बच्चे का भविष्य बनाना ही एकमेव उद्देश्य नहीं हो सकता। देश का स्वरूप गढने की आशा बच्चों से लगायी जाती है, एक दौर का यह फिल्मी गीत है इसे पढें और ठहर कर सोचें, कुछ पंक्तियाँ उद्धरित कर रहा हूँ –
अपने हों या पराए, सब के लिए हो न्याय,
देखो कदम तुम्हारा, हरगिज़ ना डगमगाए,
रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना संभल-संभल के,
इन्साफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के।
क्रमशः…
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साभार: राजीव रंजन प्रसाद के फेसबुक वाल से!
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