
भारतीय शिक्षा प्रणाली- पाठ्यपुस्तक लिखने वालों को काटे हुए है एक विचारधारा का कीड़ा!
सूर्य सिद्धांत स्पष्ट करता है कि – “सर्वत्रैय महीगोले स्वस्थामुपरिस्थितम्। मन्यन्ते खेयतो गोलस्तस्यक्कोर्ध्वक्कवोप्यध:” अर्थात यह पृथ्वी गोल है इसलिये हम सभी अपने अपने स्थान को उपर ही समझते हैं। यह पृथ्वी वृहद शून्य के मध्य स्थित है तथा इसमें ऊपर क्या और नीचे क्या? लगभग तीसरी सदी ईसापूर्व अथवा उससे भी पहले का यह प्राचीन भारतीय शास्त्र हमारी पाठ्यपुस्तक में न तो विज्ञान, न इतिहास न ही भूगोल में कही उद्धरण के रूप में भी अपनी जगह बना पाया, क्यों? रोचक तथ्यदेखें तो सूर्य सिद्धांत न केवल पृथ्वी को गोल बता रहा है अपितु ग्रहों के व्यास की भी सटीक गणना कर रहा है। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि सूर्य सिद्धांत बुद्ध ग्रह का व्यास 3008 मील बताता है जो कि वर्तमान में ज्ञात 3032 मील से केवल 24 मील कम है। इतना ही नहीं इस शास्त्र द्वारा शनि ग्रह के व्यास की गणना 73882 मील की गयी है (वर्तमान की तुलना में अशुद्धि केवल 1%), मंगल ग्रह के व्यास की गणना 3772 मील की गयी है (वर्तमान की तुलना में अशुद्धि केवल 11%) और इसी तरह की सटीक गणनाये अनेक गहों-तारों की प्राप्त हो जाती हैं।
एनसीआरटी की पाठ्यपुस्तकों के पाईथागोरस है जो धरती को केवल इस लिये गोल मानते हैं चूंकि यही सबसे सुन्दर ज्यामितीय आकृति होती है। उनका मानना था कि पृथ्वी ही ब्रह्माण्ड (उस समय सौरमंडल को ही ब्रह्माण्ड मान लिया गया था।) का केंद्र है इसलिये गोल है। संज्ञान लेना चाहिये कि भारत में ब्रम्हाण्ड की संकल्पना इससे बिलकुल इतर है तथा वह असीमित-अनंत की ओर इशारा है जो कि अब वर्तमान की मान्यता भी है।
क्या आर्यभट्ट (476-550 ई.) ने प्ट्थ्वी को गोल नहीं कहा था? उन्होंने पृथ्वी को गोल मान कर ही तो कर्क और मकर रेखाओं का निर्धारण किया है? क्या यह सच नहीं कि अपनी इन रेखाओं के माध्यम से बहुत बारीकी से आर्यभट्ट ने वर्ष भर में दिन और रात के समय के बारीक से बारीक अंतर की विवेचना की है और उस दिवस का निर्धारण भी किया जब दिन और रात बराबर होते हैं। मैं यह नहीं कहता कि पृथ्वी को गोल बताने का श्रेय पाईथागोरस से छीन लिया जाये, मेरा कहना है कि हमारे विद्यार्थियों को आर्यभट्ट भी ठीक से क्यों ज्ञात नहीं होना चाहिये? आप विध्यार्थियों को अवश्य बतायें कि न्यूटन पेड के नीचे सो रहा था और तभी सेव गिरा और उसने जान लिया कि धरती में सभी वस्तुओं को स्वयं की ओर खींचने की ताकत है। क्या दुर्भाग्य नहीं है कि न्यूटन से अधिक तार्किक भास्कराचार्य (1114-1185 ई.) हमारे विद्यार्थियों को अल्पज्ञात अथवा अज्ञात हैं जबकि यही बात वे अधिक स्पष्ट तौर पर कहते हैं।
पुत्री लीलावती अपने पिता भास्कराचार्य से प्रश्न करती है कि यह धरती किस वस्तु पर टिकी हुई है चूंकि कही कहानियाँ उसने सुन रखी हैं कि वह कछुवे की पीठ पर अथवा शेषनाग के फन पर रखी हुई है। तब पिता भास्कराचार्य समझाते हैं कि पृथ्वी किसी पर टिकी हुई नहीं है उसके पास अपना ही बल है (मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो, विचित्रावतवस्तु शक्त्य) पृथ्वी की आकर्षण शक्ति सभी पदर्थों को अपनी ओर खींचती है। इतना ही नहीं भास्कराचार्य सभी ग्रहों में इस तरह की गुरुत्वाकर्षण शक्ति होने की बात भी कहते हुए पृथ्वी के किसी आधार पर न टिके होने की व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि आकाश में समान ताकत चारो ओर से लगी हुई है जिसकारण पृथ्वी समेत सभी ग्रह निराधार टिके हुए हैं (आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं, गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या। आकृष्यते तत्पततीव भाति, समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे)।
यह सब हमारी पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा क्यों नहीं है? वस्तुत: वैदिक समय से आरम्भ कर वर्तमान तक के सभी शोध नकारने की प्रवृत्ति के परोक्ष में स्पष्टत: वाम-दक्षिण विधारधारा-संघर्ष हैं। निर्पेक्षता न तो साहित्य में देखी जा सकती है, न इतिहास में, न ही विज्ञान में। ऐसे में यदि हम अपनी शिक्षा व्यस्था को चलताऊ, पाठ्यक्रमों को कामचलाऊ और शिक्षितों की एकमेव प्रवृत्ति कमाऊ मान लें तो गलत क्या है? विचारधारा का कीडा पाठ्यपुस्तक लिखने वालों को काटे हुए है? हमे तो मैकाले पहले ही सिखा गये कि हम कल्पनाजीवी लोग हैं, मिथक ही रहे होंगे आर्यभट्ट और भास्कराचार्य?… अगली कड़ी में जारी
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