भारत की शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल परम्पराओं से निकल कर वातानकूल कक्षाओं तक पहुँच गयी है। शिक्षा ग्रहण कर प्रसारित करने की बजाय केवल जीविकोपार्जन के लिए जीवन के शुरुवाती 20-25 साल खपाने की व्यवस्था बनकर रह गयी है। इस व्यवस्था के तहत भारत के अभिभावक ऊँचे दामों में अपने बच्चों के लिए ऊँची डिग्री खरीदना चाहते हैं ताकि कल उनका बच्चा इंजीनयर या डॉक्टर की डिग्री लेकर देश विदेश में सेट हो जाए। भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हम लेखों की एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं प्रस्तुत है चौथा आलेख…
राजीव रंजन प्रसाद। संदीपन ऋषि के गुरुकुल से रोचक कहानी बाहर आती है जब कृष्ण और सुदामा एक साथ जंगल से लकडी काट कर लाने के लिये भेजे गये हैं। कुल्हाडी कृष्ण के हाथ में है जो राजा का बेटा हैं और चने सुदामा के पास हैं जो निर्धन का पुत्र। बरसात हो रही है, दोनो समान रूप से श्रम करते हैं लेकिन भूख लगने पर सुदामा सारे चने खा जाता है। इस कहानी को राजा और रंक के दृष्टिकोण से देखने के बाद अब इन दो विद्यार्थियों की तत्कालीन विद्यालय में सम-स्थिति को मूल्यांकित कीजिये। जब इतिहास भेद नहीं करता तो वर्तमान को राजा और रंक के लिये अलग अलग विद्यालय बनाने का अधिकार किसने दिया?
एक और कहानी अतीत से ही। द्रोणाचार्य ने पहली बार ट्यूशन लेना आरम्भ किया था अर्थात धन की आकांक्षा में केवल राजकुमारों के लिये शिक्षा। इसके परिणाम विवेचना योग्य हैं, द्रोणाचार्य न केवल कर्ण और उस जैसे अनेक मेधावी छात्रों से वंचित हुए बल्कि एकलव्य का अंगूठा मांगने जैसी धृष्टता लोभी अध्यापक ही कर सकता था। महाभारत महाकाव्य में ही ऐसे शिक्षकों और राजकुमारों का विरोध किया गया है, एक श्लोक कहता है कि घर में सुविधा के बीच किये गये अध्ययन से आपको ज्ञानी होने का सम्भ्रम हो सकता है तथापि समाज आपको मूर्ख ही मानता रहेगा- आपिचशान सम्पन: सर्वान वेदान पितुगृहे, श्लाघमान इवाधीयाद गाम्य इत्येव तं विदु:।
ध्यान से देखें तो आज द्रोणाचार्य ही द्रोणाचार्य हैं जो अपने अपने अर्जुनों के लिये जाने कितने एकलव्यों का अंगूठा ही नहीं मांग रहे, कतिपय तो सिर की ही मांग करने लगे हैं। द्रौपदी अथवा दुर्योधन को नाहक महाभारत का दोषी माना जाता है जबकि उस युग के भयावह युद्ध का ठीकरा शिक्षक अर्थात द्रोणाचार्य के सर पर ही फोडा जाना चाहिये था। आज क्या यही स्थितियाँ अधिक विकराल रूप से सामने नहीं आ गयी हैं? कोई विद्यालय ऐसा नहीं जहाँ कृष्ण और सुदामा एक साथ पढाये जा रहे हों। दो तरह के विद्यार्थी हैं एक वे जो लग्जरी बसों में स्कूल ले जाये जाते हैं और एयरकंडीशन कमरों में आलीशान सुविधाओं को प्राप्त करते हुए अध्ययन करते हैं।
दूसरे वे हैं जो मध्यांतर में सडी हुई सब्जियों और मक्खी भिनभिनाती खिचडी को खा कर टूटी-फूटी मेज-कुर्सी या जमीन पर बैठ कर ही जोर जोर से पहाडा रट रहे हैं। आज जब किसी सुदामा का पिता धृतराष्ट के सामने जा कर अपना नैसर्गिक हक मांगता है तो दुर्योधन से पहले द्रोणाचार्य ही कह देता है कि स्कूल भवन सरकारी अनुदान से बना है तो क्या हुआ, इसे चलाने में खर्चा लगता है। दुनिया भर की प्राचीन और नवीन पुस्तकें व्यवस्था परिवर्तन की अवधारणा के लिये विद्यार्थियों की ओर आशा से देखती हैं लेकिन ऐसी असमानतायें आपसी संघर्ष और गृहयुद्ध जैसे हालात तो पनपा सकती हैं, सकारात्मक बदलाव सम्भव ही नहीं। क्रमशः …
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साभार: राजीव रंजन प्रसाद के फेसबुक वाल से
URL: Indian Education System and the Ghost of Lord Macaulay-3
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