भारत की शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल परम्पराओं से निकल कर वातानकूल कक्षाओं तक पहुँच गयी है। शिक्षा ग्रहण कर प्रसारित करने की बजाय केवल जीविकोपार्जन के लिए जीवन के शुरुवाती 20-25 साल खपाने की व्यवस्था बनकर रह गयी है। इस व्यवस्था के तहत भारत के अभिभावक ऊँचे दामों में अपने बच्चों के लिए ऊँची डिग्री खरीदना चाहते हैं ताकि कल उनका बच्चा इंजीनयर या डॉक्टर की डिग्री लेकर देश विदेश में सेट हो जाए। भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हम लेखों की एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं प्रस्तुत है पांचवा आलेख…
राजीव रंजन प्रसाद। विचारधाराओं के मकडजाल ने हालात यह कर दिये हैं कि आप पुरातन उपलब्धियों की बात करेंगे तो हँसी के पात्र बना दिये जायेंगे। विचार के ठेकेदारों के पास अपने अपने कटाक्ष हैं किंतु उनसे विवेचना की उम्मीद मत रखिये। एक समय का गौरवशाली तक्षशिला विश्वविद्यालय इस समय पाकिस्तान में है। अतीत पर आधारित एक उपन्यास लिख रहा हूँ अत: तक्षशिला पर केंद्रित अनेक जानकारियों से दो-चार हुआ। प्राचीन शास्त्रों, बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में इस विश्वविद्यालय तथा उसके गौरव की जानकारी प्राप्त होती ही है साथ ही अनेक विद्यार्थी ऐसे हैं जिनके कार्यों को हम मिथक मान कर भुलाने लगे हैं।
तक्षशिला के ऐसे ही एक विद्यार्थी जीवक की चर्चा आवश्यक है जिसने कालांतर में भगवान बुद्ध के बौद्ध संघ में चिकित्सा का दायित्व उठाया एवं तथागत का उपचार करने का गौरव भी उन्हें प्राप्त हुआ था। कतिपय ग्रंथ जीवक को वैशाली की चर्चित नगरवधु आम्रपाली का तो कुछ मगध की जनपदकल्याणी शालवती का परित्यक्त पुत्र मानते हैं जिसका जीवन मगध के युवराज अजातशत्रु ने बचाया तथा कालांतर में अध्ययन के प्रति उनकी ललक से प्रभावित हो कर सम्राट बिम्बिसार से तक्षशिला अध्ययन के लिये भेजा था।
उस समय, भारतवरर्ष के पश्चिमीछोर पर अवस्थित तक्षशिला विश्वविद्यालय में दस हजार से अधिक विद्यार्थी, विद्वान आचार्यों के मार्गदर्शन में विद्याध्ययन करते थे। किशोरवय के विध्यार्थी विश्वविद्यालय के अधीन संचालित होने वाले विभिन्न गुरुकुलों में प्रवेश करते और अध्ययन समाप्त करने के पश्चात ली जाने वाली परीक्षा उत्तीर्ण कर अपने अपने जनपदों में लौट जाया करते थे। विश्वविध्यालय में विशिष्ठ एवं उच्चस्तरीय अध्ययन की व्यवस्था थी, प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी प्राथमिक शिक्षा अपने जनपद के गुरुकुलों अथवा आचार्य से प्राप्त कर यहाँ पहुँचते थे। प्रत्येक विद्यार्थी जिसे विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त हुआ, वह राजा और रंक के विभेद से अवमुक्त था। धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त आयुर्वेद, धनुर्वेद, हस्तिविद्या, त्रयी, व्याकरण, दर्शनशास्त्र, गणित, ज्योतिष, गणना, संख्यानक, वाणिज्य, सर्पविद्या, तंत्रशास्त्र, संगीत, नृत्य, चित्रकला, विधिशास्त्र आदि विषयों के अध्येता तक्षशिला में समुपस्थित थे।
जीवक ने चिकित्साशास्त्र के चर्चित आचार्य आत्रेय का शिष्यत्व ग्रहण किया। अध्ययन का समापन हुआ तब आचार्य ने जीवक से कहा कि तक्षशिला में सर्वत्र भ्रमण करो और मेरे पास ऐसी वनस्पतियों को ले कर आओ जिनका उपयोग किसी भी औषधि के रूप में नहीं हो सकता है। जीवक कई दिनो भटकता रहा और निराश होकर अपने गुरु के पास लौट आया। उसे ऐसी कोई वनस्पति नहीं मिली थी। जीवक अपने अध्ययन के प्रति चिंतित हुआ चूंकि उसके साथी विद्यार्थी थैलियाँ भर भर कर वनस्पति ले कर गुरु के सम्मुख पहुँचे थे। एक विद्यार्थी तो बैलगाडी भर कर ऐसी वनस्पतियों को लाया था जिनका प्रयोग किसी औषधि के रूप में नहीं होता। आत्रेय ने अन्य विद्यार्थियों को छोड कर जीवक को कण्ठ से लगा लिया और कहा कि जाओ तुम्हारी शिक्षा पूरी हुई, अब जगत का कल्याण करो। जगत का कल्याण करना कभी शिक्षा का उद्देश्य और शिक्षितों का कर्तव्य हुआ करता था।
तक्षशिला से मगध की ओर लौटते हुए जीवक अपने अर्जित ज्ञान का प्रयोग किसी रोगी पर करना चाहता था। साकेत नगरी में उसे एक धनी श्रेष्ठी की पत्नी के विषय में ज्ञात हुआ कि सिरोरोग से बहुत लम्बे समय से पीडित है। जीवक स्वयं श्रेष्ठी से मिला और नि:शुल्क उपचार करने का उसे प्रस्ताव दिया। घृत में उसने अनेक ऐसी जडीबूटियों को सम्मिश्रित कर पकाया, जिसकी जानकारी अपने शोध से ज्ञात हुई थी। जीवक ने स्त्री को उतान लेटने के लिये कहा तथा नासाछिद्रों से औषधि डालने लगे। औषधियुक्त घृत कुछ देर में मुख से बाहर आने लगा। कुछ ही देर में स्त्री को अपने कठिन रोग से मुक्ति मिला गयी। वैद्य के रूप में जीवक की ख्याति यहाँ से ही आरम्भ हुई। ग्रंथों में जीवक के द्वारा सम्राट बिम्बिसार के भगंदर रोग, अवंति के राजा प्रद्योत के पाण्डु रोग आदि का उपचार करने का उल्लेख भी मिलता है। जीवक एक कुशल शल्य चिकित्सक बने। अनेक ऐसे कारण हैं जिसके लिये शल्य चिकिता के क्षेत्र में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। उन्होंने वाराणसी जा कर मोख्चिका से पीडित एक रोगी की शल्य चिकित्सा की थी। वह ठीक से न तो भोजन कर पाता था न ही मल-मूत्र का निष्कासन सहजता से हो रहा था। जीवक ने उदर भाग में शल्य कर रोगी की उलझी हुई अंतडियों को खोल दिया था।
जीवक की चिकित्सा का तरीका उनकी बुद्धिमत्ता तथा प्रयोग दक्षता की ओर इशारा करता है। एक चर्चित उदाहरण है जब राजगृह का एक श्रेष्ठि उनके पास उपचार के लिये आया। वह भयावह सिरदर्द से पीडित था। एक वैद्य के पास गया तो उसने कहा कि परिजनों को बुला लें छ: दिन बाद मृत्यु हो जायेगी। वह दूसरे वैद्य के पास गया तो जांच के पश्चात उसने चार दिनों में मृत्यु हो जाने की बात कही। भयभीत श्रेष्ठि को जीवक के विषय में जानकारी हुई। जीवक ने परीक्षण किया और कहा कि ठीक हो जाओगे लेकिन शल्यचिकित्सा करनी होगी। इसके उपरांत फिर सात मास तक दाहिने करवट अलगे सात माह तक बायें करवट तथा फिर सात माह उतान लेटे रहना होगा। श्रेष्ठि जीवन बचाने के लिये तैयार हो गया।
जीवक ने उसे औषधि युक्त मदिरा पिलाई फिर चिकित्सा-शैया पर बांध दिया। अब उसने सिर की त्वचा को काट कर कपाल में कुछ औजार डाले और दो कीडे जीवित अवस्था में बाहर निकले। उसने बताया कि यदि मष्तिष्क में ये कीडे काट लेते तो मृत्यु निश्चित थी। अब बारी श्रेष्ठि को विभिन्न अवस्थाओं में विश्राम प्रदान करने की थी। परंतु वह सात दिवस में ही बेचैन हो उठा और अलगी करवट की जिद करने लगा। जीवक ने उसके अगले सात दिनो बाद उतान अवस्था में ला दिया और इक्कीसवे दिवस कहा कि अब आप पूरी तरह स्वस्थ हो।….लेकिन इक्कीस माह के स्थान पर केवल इक्कीस दिन? यही उस श्रेष्ठि का भी प्रश्न था। इसपर जीवक ने कहा कि विश्राम के लिये विभिन्न अवस्थाओं में इक्कीस दिवस की अवधि ही चाहिये थी। यदि वह पहले ही इक्कीस दिवस पता देता तो संभव है श्रेष्ठी को चार दिनों में ही बेचैनी होने लगती। यही किसी भी मरीज का सामान्य मनोविज्ञान है।
जीवक का यह उदाहरण इसलिये कि आधुनिक चिकित्सा शास्त्र, इतिहास के इन पन्नों से किनारा कर आगे निकल गया है। मॉडर्न साईंस को यह बताते हुए शर्म आती है कि प्लास्टिक सर्जरी का तौर-तरीका ऐसे ही किसी जीवक के माध्यम से कथित सभ्य समाज के हाथो लगा था। हम मानसिक गुलाम लोगों के लिये प्राचीन ज्ञान, प्राचीन शिक्षापद्यति, प्राचीन अंवेषण, प्राचीन चिकित्सा पद्यति अदि मिथक हैं, हास्यास्पद हैं। हम साईंस के आगे मॉडर्न लगा कर, शिक्षा प्रणाली के आगे आधुनिक लगा कर और सोच के प्रत्यय में प्रगतिशील जोड कर इतिश्री कर लेते हैं। जीवक का उदाहरण हमारे आगे प्रश्नचिन्ह है कि शल्यचिकित्सा के जनक देश में क्यों चिकित्सा का विज्ञान अब आयातित करना पड रहा है? हमारी शिक्षाप्रणाली में ही कोई चूक रही होगी न?… क्रमशः
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साभार: राजीव रंजन प्रसाद के फेसबुक वाल से
URL: Indian Education System and the Ghost of Lord Macaulay-4
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