भारत की शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल परम्पराओं से निकल कर वातानकूल कक्षाओं तक पहुँच गयी है। शिक्षा ग्रहण कर प्रसारित करने की बजाय केवल जीविकोपार्जन के लिए जीवन के शुरुवाती 20-25 साल खपाने की व्यवस्था बनकर रह गयी है। इस व्यवस्था के तहत भारत के अभिभावक ऊँचे दामों में अपने बच्चों के लिए ऊँची डिग्री खरीदना चाहते हैं ताकि कल उनका बच्चा इंजीनयर या डॉक्टर की डिग्री लेकर देश विदेश में सेट हो जाए। भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हम लेखों की एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं प्रस्तुत है पहला आलेख…
राजीव रंजन प्रसाद। यह लगभग दो वर्ष पूर्व की बात है। मैं केंद्रीय विद्यालय, नर्मदानगर (खण्डवा, मध्यप्रदेश) में अस्थायी अथवा संविदा पर नियुक्त होने वाले शिक्षकों का साक्षात्कार लेने के लिये आमंत्रित था। केंद्रीय संस्थान में अस्थाई शिक्षकों को अपनी सेवाओं के लिये, किसी निजी शिक्षा संस्थान की अपेक्षा अच्छी तनख्वाह मिलती है; बड़ी संख्या में रिक्त पदों के लिये आवेदन प्राप्त हुए थे। लगभग तीन दिन ये साक्षात्कार चले, बहुत से शिक्षकों अथवा शिक्षक बनने के इच्छुक आवेदकों से चर्चा करने एवं इस माध्यम से अध्यापन की वर्तमान समस्याओं को समझने का अवसर प्राप्त हुआ।
मुझे आश्चर्य हुआ कि बहुत आसानी से गणित और विज्ञान जैसे विषयों के अच्छे अध्यापक सुलभ हैं। इन श्रेणियों में स्पर्धा भी अधिक थी और गुणवत्ता भी अधिक। जैसे जैसे सामाजिक विज्ञान और भाषा के लिये शिक्षकों के साक्षात्कार आरम्भ हुए अत्यधिक निराशा हुई। जो आवेदक इतिहास पढाने का इच्छुक है उसे विषय की बारीक समझ नहीं, जो भाषा का ज्ञान छात्रों को प्रदान करने के लिये अनुबंधित होने की अपेक्षा रखता है वह साहित्य की बुनियादी समझ से दूर है।
यह परिस्थिति मेरे लिये बहुत समय तक चिन्तन बनी रही। जो इतिहास बोध नहीं रखते वे रटा हुआ पढाने के लिये बाध्य होते हैं, जो साहित्य का मर्म नहीं जानते वे सहायक पुस्तकों के रेडीमेड उत्तर घोल कर छात्रों को पिला सकते हैं, इससे उनकी इतिश्री हो जाती है। क्या हम गहरे यह समझ रहे हैं कि हमारे बच्चे किस अंधे कुँए की ओर जा रहे हैं? हमारी शिक्षा व्यवस्था की दशा-दिशा क्या है? विज्ञान और गणित में अच्छे अध्यापक इस लिये मिल जाते हैं चूंकि आज की पीढी में सभी को चिकित्सक बनना है, अभियंता बनना है। जब छात्र अपने कुछ बनने के लक्ष्य का पीछा नहीं कर पाते तो बीएड कर लेते हैं और शिक्षक बन जाते हैं।
अब समाजशास्त्र, इतिहास, भूगोल और हिन्दी जैसे विषय नौकरी प्रदाता नहीं माने जाते अत: महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में इन विषयों को ले कर प्राय: दोयम दर्जे के छात्र (अनेक अपवाद भी हैं) पढ रहे हैं। आप इनसे क्या अपेक्षा रखते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि केवल अध्ययन ही नहीं हमारी अध्यापन व्यवस्था में भी बदलाव की आवश्यकता है? भारत में मैकाले का भूत कब तक भटकता रहेगा? अगली कड़ी में जारी…
साभार: राजीव रंजन प्रसाद के फेसबुक वाल से!
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