डोकलाम विवाद में जिस तरह से चीन की कुटनीतिक हार हुई है, वह भारत के बदलते और सशक्त विदेश नीति का पुख्ता प्रमाण है। भारत-भूटान-चीन सीमा पर 16 जून को शुरू हुए डोकलाम विवाद पर चीन द्वारा तरह-तरह की हेठी दिखाने के बावजूद जब भारत ने अपनी सेना को वहां से नहीं हटाया तो चीन ने आखिरकार 28 अगस्त 2017 को अपनी सेना को वहां से हटाना ही मुनासिब समझा। पिछले 70 साल में भारत-चीन के बीच की कूटनीति में यह पहली बार है जब चीन को अपना कदम पीछे खींचना पड़ा है!
शिकस्त न खाना पड़े इसलिए चीने ने भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए, मसलन उसने भारत को 1962 की हार की याद दिलाई, उसने यह बताया कि अपनी हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति के कारण भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को युद्ध के रास्ते पर ढकेल रहे हैं, चीन की सेना और विदेश मंत्रालय ने अपने राष्ट्रीय अखबार ग्लोबल टाइम्स की सुर में सुर मिलाते हुए भारत को धमकाने का प्रयास किया कि युद्ध होगा तो भारत की हार होगी, चीन के राष्ट्रपति ने सेना प्रमुख की वर्दी पहनकर खुला सैन्य प्रदर्शन कर भारत को धमकाने का प्रयासा किया।
इस सबके जवाब में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने 19 जुलाई को साफ कहा कि चीन यदि भारत-भूटान-चीन के तिराहे को बदलने की कोशिश करता है तो इसे भारत की सुरक्षा को चुनौती देना माना जाएगा। सुषमा स्वराज ने धैर्य और कूटनीति पर चलने की बात कही और भारत ने वही किया। अपने धैर्य व कूटनीति से भारत ने चीन को दुनिया में अलग-थलग कर दिया। आजादी के बाद पहली बार है जब भारत ने न केवल चीन की गीदड़ भभकियों को मजाक में उड़ाया, बल्कि उसे चेतावनी भी दी और वैश्विक स्तर पर उसे अलग-थलग करने का प्रयास भी किया।
अमेरिका खुलकर भारत के पक्ष में बोला। जापान ने खुले रूप से भारत का समर्थन देने की बात की तो रूस ने अपने आप को इससे अलग रखा। लगता था कि भारत-चीन के बीच सीमित युद्ध हो जाएगा, इसके बावजूद रूस ने कहीं से भी यह संकेत नहीं दिया कि वह चीन के साथ है। इस स्थिति में वैश्विक रूप से चीन के साथ केवल आतंकवादी देश पाकिस्तान ही खड़ा था। उधर पाकिस्तान को भी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने खुलेआम आतंकवादी देश कहा और वहां के आतंकी संगठनों को बैन भी किया। जबकि दूसरी तरफ चीन पाकिस्तानी आतंकवादियों के पक्ष में लगातार वीटो लगाता रहा है। बदली हुई परिस्थिति में चीन बिल्कुल अकेला-थकेला पड़ गया था, इसलिए डोकलम विवाद में अपनी किरकिरी करा कर उसने अपनी सेना, तंबू, मशीन-सबकुछ को वहां से हटा लिया।
दरअसल पिछले 70 सालों में भारत की विदेश नीति पहली बार इतनी मुखर तरीके से प्रकट हुई है। इंदिरा गांधी के समय देश की आक्रामक विदेश नीति की चर्चा जरूर होती है, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। उस समय अमेरिका भारत के खिलाफ था और इंदिरा की सरकार को पूरी तरह से सोवियत संघ की जासूसी संस्था केजीबी ने अपने कब्जे में ले रखा था, जिसकी पुष्टि मित्रोखिन अर्काइव से होती है।
बंगलादेश युद्ध के समय कह सकते हैं कि सोवियत संघ भारत के पक्ष में खड़ा था, लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है। दरअसल सोवियत संघ ने भी पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए पूर्वी पाकिस्तान से भारत को दूर रहने को कहा था, लेकिन जब अमेरिका खुलकर पाकिस्तान के पक्ष में आ गया तो शीत युद्ध वाले विश्व में दूसरे गुट के नेता सोवियत संघ की यह मजबूरी हो गयी कि वह एशिया के अपने एक महत्वपूर्ण पार्टनर भारत के पक्ष में खड़ा हो जाए! अमेरिकी युद्धक बेड़ा के पाकिस्तान के पक्ष में प्रस्थान की सूचना के बाद सोवियत संघ भारत के पक्ष में उतरा था, इससे पहले नहीं। इससे पूर्व वह भारत को इस विवाद से दूर रहने को ही कह रहा था, जबकि भारत-सोवियत संघ के बीच कागजी समझौता था कि एक पर हमला, दूसरे पर हमला माना जाएगा।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय भी सोवियत संघ ने चीन के पक्ष में भारत को धोखा दिया था, जबकि नेहरू की पूरी विदेश नीति गुटनिरपेक्षता की आड़ में सोवियत गुट का हिमायती था। संयुक्त राष्ट्र संघ में 1956 में हंगरी विवाद पर जिस तरह से नेहरू सरकार ने पश्चिमी देशों के खिलाफ सोवियत संध का पक्ष लिया, उससे उनकी पूरी गुटनिरपेक्षता की नीति धराशाई हो गयी थी। इस पूरे प्रकरण सहित नेहरू की विदेश नीति की असफलता को आप सभी मेरी पुस्तक ‘कहानी कम्युनिस्टों की‘ में पढ़ सकते हैं।
17 अगस्त 1962 को नेहरू ने सोवियत संघ के साथ ‘इंडो-सोवियत ट्रीटी’ की थी, जिसके तहत भारत को सोवियत संघ से 21 मिग विमान मिलना था और किसी भी देश द्वारा भारत पर हमले की स्थिति में सोवियत संघ को मदद के लिए आगे आना था, लेकिन कम्युनिस्ट चीन के पक्ष में कम्युनिस्ट सोवियत संघ ने इस समझौते को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। सोवियत संघ ने भारत को होने वाली मिग विमान की आपूर्ति तो रोकी ही, चीन को खुला छूट दिया कि वह भारत पर हमला करे और चीन ने इसका फायदा उठाया। पंडित नेहरू की विदेश नीति की यह सबसे बड़ी विफलता थी। सोवियत संघ-चीन की यह पूरी साजिश व नेहरू की विदेश नीति की पूरी विफलता मेरी इसी पुस्तक ‘कहानी कम्युनिस्टों की’ में आप सब पढ़ सकते हैं।
लेकिन आज डोकलाम विवाद में रूस चीन की हिमायत करने के लिए कहीं से भी आगे नहीं आया है। रूस चीन के पक्ष में एक शब्द नहीं बोला है। नेहरू और इंदिरा के समय जहां अमेरिका भारत के खिलाफ था, वहीं इस बार अमेरिका भारत के पक्ष में साफ-साफ बोल रहा था। मोदी सरकार की विदेश नीति ने भारत को नेहरू-गांधी परिवार के समय की पंगू विदेश नीति से बाहर निकालने का कार्य किया है, जिसकी वजह से चीन डोकलम विवाद में आज अलग-थलग पड़ गया है और पाकिस्तान औपचारिक रूप से आतंकवादी राष्ट्र घोषित होने से कुछ कदम की दूरी पर है।
मोदी सरकार की विदेश नीति अमेरिका और रूस, इजरायल-फिलिस्तीन, अरब जगत सहित हर विरोधी गुट को साधने में सफल रही है। वहीं पंडित नेहरू-इंदिरा की विदेश नीति हमेशा एक गुट की पिछलग्गू तो दूसरी को अपना दुश्मन बनाकर चल रही थी। नेहरू की विदेश नीति कभी भी संतुलित नहीं रही और न ही कभी भारत के हित में रही, जिसके कारण भारत को चीन से हार का सामना करना पड़ा। प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की विदेश नीति को 360 डिग्री पर घुमा दिया है, जिसमें केवल और केवल भारत का राष्ट्रीय हित निहित है, इसलिए यह सभी को साधन में सफल है। मेरी पुस्तक ‘कहानी कम्युनिस्टों की’ आप पढेंगे तो पाएंगे कि नेहरू ने अपनी पूरी विदेश नीति को साम्यवादी सोवियत गुट का पिछलग्गू बना दिया था, जिस कारण भारत के स्वाभिमान को कुचलने का अवसर चीन को मिला। आज चीन को पीछे हटना पड़ा है और यही मोदी सरकार की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता है।
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