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India Speak Daily > Blog > समाचार > देश-विदेश > हर मोर्चे पर हांफती भारत की विदेश नीति!
देश-विदेश

हर मोर्चे पर हांफती भारत की विदेश नीति!

ISD News Network
Last updated: 2025/01/27 at 12:30 PM
By ISD News Network 232 Views 9 Min Read
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सुमंत विद्वांस । 1971 में सोवियत संघ और सीरिया के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत सीरिया के तारतस बंदरगाह पर रूस का एक नौसैनिक सहायता केंद्र स्थापित किया गया। शीत युद्ध के उस दौर में भूमध्य सागर में बढ़ते अमरीकी नौसैनिक प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए रूस को यह बंदरगाह चाहिए था और सीरिया को अपने अमरीका-समर्थित शत्रु इस्राइल के खिलाफ सोवियत संघ की सहायता मदद चाहिए थी। इस समझौते से उन दोनों का उद्देश्य पूरा हो गया।

तारतस बंदरगाह उस क्षेत्र में गश्त लगाने वाले सोवियत युद्धपोतों को आवश्यक सहायता प्रदान करता था, लेकिन फिर भी उसकी भूमिका मुख्यतः सप्लाई और मेंटेनेंस सेंटर के रूप में सीमित थी। 1991 में सोवियत संघ टूट गया और रूस की नौसैनिक शक्ति में भी भारी कमी आई। उसके बाद तारतस भी एक महत्वहीन तकनीकी सहायता केंद्र बनकर रह गया।

लेकिन 2011 में सीरिया का गृहयुद्ध आरंभ होने के बाद स्थिति फिर बदली। कई अंतर्राष्ट्रीय शक्तियाँ इस युद्ध में अलग-अलग समूहों को समर्थन दे रही थीं। पुतिन को भी इसमें रूस का प्रभाव फिर से स्थापित करने का अवसर दिखा और मई 2013 में रूस ने 16 जहाजों वाली एक भूमध्यसागरीय टास्क फोर्स बनाई, जिसका मुख्य नौसैनिक अड्डा तारतस को बनाया गया।

सन 2015 में, रूस ने अपनी वायुसेना और नौसेना को भेजकर सीरिया की असद सरकार के समर्थन में बड़े पैमाने पर सैन्य हस्तक्षेप की शुरुआत कर दी। इसके साथ ही इस युद्ध में रूसी सेना के लिए तारतस नौसैनिक अड्डा एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया।

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फिर 2017 में रूस और सीरिया ने 49 साल की लीज का एक समझौता किया, जिससे सन 2066 तक के लिए रूस को इस अड्डे का नियंत्रण मिल गया। इस समझौते से रूस को बंदरगाह का विस्तार करने और परमाणु-संचालित पोत तैनात करने की अनुमति भी मिल गई।

नाटो की गतिविधियों पर नजर रखने, मध्यपूर्व में अपनी शक्ति बढ़ाने और भूमध्यसागर के महत्वपूर्ण जलमार्ग तक अपनी नौसेना की पहुंच बनाए रखने में रूस के लिए तारतस बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था।

लेकिन नवंबर 2024 में असद को सीरिया छोड़कर मास्को भागना पड़ा और इसके साथ ही तारतस बंदरगाह भी रूस के हाथ से फिसलने लगा। दिसंबर में ही रूस ने अपने नौसैनिक उपकरणों को वहां से हटाना भी शुरू कर दिया और अभी पिछले हफ्ते सीरिया की नई सरकार ने तारतस के लिए रूस के साथ हुआ पुराना समझौता रद्द करने की घोषणा कर दी।

सीरिया में असद की हार वास्तव में अमरीका के खिलाफ युद्ध में रूस की हार भी थी। उधर यूक्रेन का युद्ध भी इतना लंबा खिंचना भी रूस के लिए अच्छा नहीं रहा है। अब यदि ट्रम्प यूक्रेन की आर्थिक और सैन्य सहायता बंद कर दे, तो शायद यूक्रेन को भी घुटने टेकने पड़ेंगे और युद्ध जल्दी बंद हो जाएगा। अन्यथा लंबे समय तक यही परिस्थिति बनी रहेगी।

सीरिया में रूस की हार के बाद अब अमरीका और चीन ही दो तगड़े प्रतिद्वंद्वी बचे हैं। यह संभव है कि ये दोनों ही अब तारतस पर भी कब्जा पाने का प्रयास करें। इससे पहले बांग्लादेश में भी एक बंदरगाह को लेकर दोनों के बीच हुई खींचतान में वहां तख्तापलट हो चुका है। सीरिया में भी अमरीका की मदद से ही असद का तख्तापलट हुआ है।

कुछ वर्ष पहले चीन ने अफ्रीका के जिबूती में अमरीकी सैन्य अड्डे के पास ही अपना भी एक सैन्य अड्डा स्थापित किया, जो कि विदेश में चीन का पहला सैन्य अड्डा था। इसके अलावा दक्षिण चीन सागर और प्रशांत महासागर में भी दोनों देश अपने-अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए आपस में लड़ ही रहे हैं।

चूंकि ट्रम्प की ओर से ग्रीनलैंड को हथियाने, पनामा नहर पर फिर से कब्जा करने और कैनडा को भी अमरीका में मिलाने जैसे बयान दिए जा रहे हैं, तो यह भी हो सकता है कि इसी तरह अमरीका तारतस पर भी कब्जा पाना चाहे। लेकिन उसका उल्टा भी संभव है क्योंकि दूसरी ओर ट्रम्प ने विश्व भर में अपनी सेना की तैनाती घटाने और खर्च को कम करने की बातें भी कही हैं।

तारतस का तो जो भी हो, लेकिन यह पक्की बात है कि विश्व भर में चीन और अमरीका के बीच ही खींचतान चलेगी और बाकी सब देश इनमें से किसी के पक्ष में रहेंगे। यह लड़ाई भी केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि तकनीकी क्षेत्र में भी चलने वाली है। कल परसों ही चीन की एक कंपनी ने अपना एआई प्रस्तुत किया है, जो चैट जीपीटी जैसों को कड़ी टक्कर दे रहा है और कीमत के मामले में इन अमरीकी एआई मॉडलों से बहुत सस्ता है।

दुर्भाग्य से वैश्विक मंच पर भारत ने अपनी स्थिति बहुत कठिन बना ली है क्योंकि स्वयं को वास्तविकता से अधिक शक्तिशाली समझने के भ्रम में उसने सब पक्षों को आँखें दिखाईं और अब सब पक्ष उसे भी आँखें दिखा रहे हैं। चीन से तो हमारी पुरानी दुश्मन है। पिछले एक दो सालों में हमारे बड़बोले विदेश मंत्री और पेट्रोलियम मंत्री ने यूरोप और अमरीका को बहुत कड़वी बातें बोलकर उनसे भी कटुता बढ़ा ली थी। अब अपनी गलती का अहसास होने के बाद अमरीका को मनाने में लगे हुए हैं।

ब्रिक्स में भी कई सारे नए देशों के आ जाने से वहाँ भी भारत का प्रभाव घटा है। इसलिए अब इंडोनेशिया जैसे देशों को महत्व देकर ब्रिक्स में अपने लिए समर्थन बढ़ाना पड़ रहा है। क्वाड में तो वैसे भी अमरीका का दबदबा चलता है और भारत, ऑस्ट्रेलिया व जापान तीनों ही सहायक भूमिका में रहते हैं।

इस समय केवल रूस अकेला ही हमारा दोस्त बचा है। यूरोप इस समय सीधे रूस से तेल न खरीदकर भारत के रास्ते खरीद रहा है, इसलिए रूस को भारत की आवश्यकता है और भारत को भी इस दोस्ती से लाभ हो रहा है। हथियारों के लिए भी भारत बहुत हद तक रूस पर निर्भर है। लेकिन रक्षा क्षेत्र में धीरे धीरे आत्मनिर्भरता बढ़ने के साथ रूस पर निर्भरता कम होती जाएगी और ट्रम्प ने यदि वाकई यूक्रेन से युद्ध रुकवा दिया और यूरोप व रूस के बीच सुलह करवा दी, तो भारत का महत्व यूरोप, अमरीका और रूस तीनों के लिए कम हो जाएगा।

दूसरी ओर भारत के लगभग सारे पड़ोसी देश भी इसके दुश्मन बन चुके हैं। कुछ सालों पहले तक सारे देश भारत की ओर थे और पाकिस्तान अलग थलग पड़ा हुआ था। अब परिस्थिति उल्टी हो गई है और सारे पड़ोसी देश मिलकर भारत पर हमले कर रहे हैं। इसलिए खुद को रूस, अमरीका या चीन के झमेले में उलझाने की बजाय इस समय भारत को सबसे ज्यादा ध्यान अपने पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव बढ़ाने व अपने अनुकूल सरकारें स्थापित करने पर लगाना चाहिए। लेकिन संभवतः अमृतकाल बीतने के बाद ही कुछ होगा। तब तक हमें इसी भ्रम में रखा जाएगा कि विश्व भर में भारत का डंका बज रहा है और उसका प्रमाण ये है कि विदेश मंत्री को ट्रम्प के शपथ ग्रहण में सामने वाली कुर्सी मिली थी। सादर!

साभार: सुमंत विद्वांस के फेसबुक वाल से।

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TAGGED: bharat, India's foreign policy, sumant vidwans
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