नदियां न होती तो भारत न होता, वैदिक संस्कृति न होती और सनातन भी न होता। जब तक नदियां प्रवाहमान हैं, तब तक भारत भी चलायमान है। नदियों की बूंद-बूंद भारत के भाग्य को सींचती है। ऐसी ही एक नदी है, सिंधु नदी। आज सिंधु का अधिकांश भाग हमारे देश में नहीं है लेकिन वैदिक संस्कृति की नींव में सिंधु का ही जल समाया हुआ है। सिंधु से ही हम विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता बन सके। पिछले सप्ताह देश के प्रधान ने सिंधु नदी की पूजा कर उसकी असीम महानता को पहचानने का अवसर हमें दिया है। सिंधु का जल हमारा स्वाभिमान है, जिसे चोट पहुँचाने का काम चीन और पाकिस्तान बखूबी कर रहे हैं।
महाभारत काल के समय भारतवर्ष में कौनसी नदियां प्रवाहित होती थी, उसका वर्णन भीष्म पर्व में दिया गया है। संजय धृतराष्ट्र को भारत भूमि के बारे में बताते हैं कि यहाँ कितने पर्वत हैं, कितनी नदियां हैं, जिनसे हमें जल मिलता है। इस वर्णन में सिंधु नदी का वर्णन भी वे करते हैं।
ऋग्वेद में सिंधु नदी के बारे में बताया गया है। इसकी छह सहायक नदियां हैं, जिनके प्राचीन नाम परुष्णी, वितस्ता, अविक्नी, शुतुद्रि और सरस्वती है। ये सत्य है कि देश अपनी उस नदी को भूल गया, जिसने उसे संस्कृति दी। भाजपा नेता तरुण विजय ने मोदी के लिए अपने एक लेख में लिखा भी है ‘शायद सिन्धु ने पूछा भी हो, ‘आने में इतना विलंब क्यों किया, पुत्र’?
सिंधु नदी के उद्गम को लेकर भारत और गूगल के निर्माता इतने उदासीन थे कि कई वर्ष तक इस नदी का उद्गम ‘सिन-का-बाब’ ग्लेश्यिर को माना जाता रहा। नए शोध के बाद पता चला कि सिंधु का उद्गम तिब्बत के गेजा काउंटी में कैलाश पर्वत के उत्तर-पूर्व से होता है।
यानि सिंधु कैलाश के चरण धोते हुए अपनी 3,600 किमी की विशाल यात्रा पर निकल जाती है। ये हमारा भाग्य है कि सिंधु अब भी हमारे देश से होकर बह रही है। प्राचीन काल में ये कच्छ के रण तक बहा करती थी लेकिन अब इसका मार्ग बदल चुका है। सन 1819 में आए भयावह भूकंप ने इसका मार्ग सदा के लिए बदल दिया।
साठ के दशक तक इस नदी के किनारे बसे तीर्थों में दर्शन करने के लिए भारतीय धर्मावलम्बी सुलभता से जा सकते थे लेकिन बाद के सालों में पाकिस्तान की घटिया विदेश नीति के चलते ये कठिन होता चला गया।
हालाँकि सन 1997 से सिंधु जल महोत्सव आयोजित होने लगा तो लेह तक तक सिंधी समुदाय के लोग आने लगे। देखा जाए तो सिंधु के किनारे बसे अधिकांश महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल पाकिस्तान के नियंत्रण में हैं और उचित देखरेख के अभाव में नष्ट होते जा रहे हैं।
अधिकांश तीर्थ स्थल तो इसलिए तोड़ दिए गए क्योंकि पाकिस्तान एक इस्लामिक देश बन गया। मुल्तान में सिंधु-चिनाब के मुहाने पर अत्यंत प्राचीन सूर्य मंदिर है, जो अब जर्जर हो चुका है। इसे श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की याद में बनाया गया था।
कोणार्क के सूर्य मंदिर से ये बहुत मिलता-जुलता है और इसके निर्माण के पीछे भी साम्ब का नाम ही सामने आता है। बलूचिस्तान में हिंगलाज माता का शक्तिपीठ 52 शक्तिपीठों में से एक है और अब दुश्मन देश में धीरे-धीरे नष्ट होता जा रहा है।
विश्व के अन्य भागों से भारत आने के लिए प्राचीन काल में वेगवान सिंधु नदी को पार करना आवश्यक हो जाता था। यूनानवासियों ने इसलिए नदी का नाम ‘इंडस’ और देश को इंडिया पुकारना शुरू किया। आज भी भारत को छोड़ इस नदी को ‘इंडस’ ही कहा और लिखा जाता है। राजा सगर के वंशज सिंधुद्वीप यहाँ के प्रदेशों को जीत लिया था, इसलिए भारतवर्ष में ये नदी सिंधु के नाम से जानी गई।
सिंधु का वेग अत्यंत प्रबल है, इसलिए इस पर बाँध बनाने के प्रयास असफल हुए। बने तो वे टिक नहीं सके। सिंधु पर सबसे पहला बांध चीनी और पाकिस्तानियों से पहले एक भारतीय इंजीनियर ने बनाकर दिखा दिया था। उनका नाम था मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या। आधुनिक भागीरथ ने ‘सक्खर’ नामक स्थान पर पहली बार सिंधु नदी पर बाँध बनाया था। यहाँ से कई नहरें निकाली गई, जिनसे ये प्रदेश हरा-भरा हो गया।
तिब्बती धर्मग्रंथों और लोकोक्तियों में सिंधु नदी के उद्गम के स्थान को ‘सिंघी खम्बम’ कहा जाता है। इसका अर्थ होता है शेर का मुंह। हमने सेटेलाइट इमेजनरी से इस स्थान का फोटो प्राप्त किया। आप देख सकते हैं कि बायीं ओर से ये स्थान शेर के खुले मुंह की तरह दिखाई देता है। भारतीय नदियों के प्राचीन प्रमाण आज भी जस की तस है, जैसे गोमुख, जैसे सिंधु उद्गम।
इंडिया स्पीक्स डेली की ओर से सिंधु नदी के उद्गम को टैग कर दिया गया है। विश्वभर के सनातनी अब गूगल अर्थ पर जाकर उद्गम के दर्शन कर सकते हैं। 32°29′54″N 79°41′28″E कोआर्डिनेट्स पर जाकर इस स्थान के दर्शन किये जा सकते हैं।
आश्चर्यजनक ये भी है कि इस स्थान पर शेर का मुंह बहुत ऊंचाई पर जाने के बाद ही दिखाई देता है। इसका आकार लगभग एक किमी है, इसलिए इस स्थान पर खड़े होकर मुंह का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रश्न फिर से वही पुराना वाला आता है कि उस काल में इसे देखकर नामकरण कर पाना कैसे संभव हुआ होगा।
सिंधु के बिना हिन्दू जैसे बिना प्राण के शरीर हैं। सिंधु का ऐश्वर्य अब वह नहीं रहा, जो प्राचीन काल में हुआ करता था। श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय ये नदी समय के साथ प्रदूषित हुई है और पाकिस्तान वाले क्षेत्र में इस पर अतिक्रमण भी बहुत हुआ है लेकिन आज भी इसका वेग कम नहीं पड़ा है। किसी भी दिन जब सिंधु क्रोधित होगी तो उसकी प्रचंड लहरें उसकी देह पर बने बांधों को उखाड़ फेकेगी।
एक भूकंप के कारण प्राकृतिक बांध बने और सिंधु कच्छ के रण से पीछे हट गई। सिंधु का इतिहास है कि वह मार्ग बदलती रही है। संभव है किसी दिन ऐसी ही कोई प्राकृतिक घटना सिंधु माँ को पुनः कच्छ के रण तक लौटा लाए। इतिहास को हम नहीं दोहरा सकते, हम मानवों में वह क्षमता ही नहीं है। वह स्वयं ही खुद को दोहरा सकता है। संभव है कि सिंधु के विषय में इतिहास स्वयं की पुनरावृति करे और उसके घाट पुनः शंखनाद से जीवंत हो उठे।
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