इन दिनों हम कई तरह की बंदियों के युग में है. लोगों के आवागमन पर ताले हैं. जंजीरें पड़ी हुई हैं. हर तरफ से बंदियों के विषय में शोर सुनाई दे रहा है, पहले मजदूरों को भड़का भड़का कर भगाया गया और अब उनके नाम पर मर्सिया पढने के लिए फेसबुक पर साहित्यकारों के लाइव सेशन हो रहे हैं. इन लाइव सेशंस में तरह तरह की डिज़ाईनर कविताएँ गाई जा रही हैं. सब कुछ इतना स्वाभाविक लग रहा है जैसे यह काल इसीलिए आया हो. मगर एक बात तो है कि कुछ मामलों पर उसी तरह से डिज़ाईनर चुप्पी कायम है जैसे आम दिनों में रहती है. सर एच. एम. इलियट भारत के मध्ययुगीन इतिहास के चरित्र को पहचानते हुए एक धृष्ट परन्तु मनोरंजक धोखा कहते हैं, उसी प्रकार हिंदी के लेखकों का यह कहना कि वह हर गलत विषय पर बात उठाते हैं, वह भी एक मनोरंजक धोखा ही है. उन्होंने अपना एक आवरण बना लिया है, और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी की परिभाषा केवल हिंदुत्व केखिलाफ आवाज़ उठाना ही है.
हाल ही में, जब फेसबुक पर कोरोना काल में हो रहे कथित अत्याचारों पर लाइव साहित्य सेशन हो रहे हैं, उन्हीं दिनों उनके प्रिय प्रदेश केरल से एक खबर आ रही है. न न! कोरोना पर विजय वाली कोई खबर नहीं है, केरल, कोरोना और कालकलवित हुआ कोरोना, जैसे लेख लिख लिख कर एजेंडा परक वेबसाइट्स अपने पन्ने रंग चुकी हैं. अब बात इससे कुछ अलग है. सवाल यह वही है कि स्त्रीवादी मामले कैसे धर्म के आधार पर अलग अलग कैसे हो सकते हैं. 8 मई 2020 को दिन बहुत आम था. कुछ भी खास नहीं था, वैसे भी कोरोना के समय क्या कुछ ख़ास हो सकता है. मगर वह दिन केरल के लिए ख़ास नहीं था. उस दिन केरल के थिरुवल्ला जिले में एक ईसाई कान्वेंट में एक कुआं फिर से किसी की देह को पनाह दे बैठा था. वह थी 21साल की दिव्या पी जॉनी, जो चुंकापरा की निवासी थी, और वह बसिलियन सिस्टर मठ की विद्यार्थी थी और रहस्यमयी स्थितियों में कुँए में मरी पाई गयी. यह कुआं होस्टल के परिसर के भीतर ही है.
कान्वेंट के अधिकारियों के अनुसार यह एक दुर्घटना है और उन्हें इस विषय में तब पता चला जब बाकी साथी उसके कूदने की आवाज़ सुनकर पहुंचे. उसके बाद साथियों ने ही अग्निसेवा को कॉल किया और पुलिस को कॉल किया. मगर हैरानी की बात है कि केरल में ननों के साथ यह दुर्घटनाएं बहुत होती हैं, जैसे इतिहास में शहजादियों के साथ हुआ अत्याचार सामने नहीं आ पाता है, उसी तरह से यह मौतें भी इतिहास के तहखाने में दर्ज होती जा रही हैं. आखिर कांवेंट्स में ऐसा क्या होता है कि केरल में 1987 से लेकर 8 मई 2020 तक 20 से अधिक नन रहस्यमयी स्थितियों में मृत पाई गयी हैं. परन्तु उनके विषय में अधिक खोजबीन नहीं की गयी कि आखिर उनकी मृत्यु कैसे हुई और उनकी मौत के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है?
आखिर क्या कारण है कि इन लड़कियों के परिवार वाले भी शिकायत दर्ज कराने नहीं जाते. सिस्टर लूसी ने भी वर्ष 1987 से आज तक ऐसी कम से कम 15 घटनाओं के बारे में बोलते हुए प्रश्न उठाए हैं कम से कम अब तो पुलिस सारी जांच ईमानदारी से पूरी करेगी.
सिस्टर लूसी वही हैं, जिन्हें आज भारत के बौद्धिक जगत ने सबसे बड़ा धोखा दिया है. सिस्टर लूसी ने बिशप फ्रैंको मुलक्कल के खिलाफ आवाज़ उठाने के हिम्मत की थी, जिस पर साल 2014 से साल 2016 के बीच केरल के कोटययम जिले में कुराविलान्गद कान्वेंट के एक और नन के बलात्कार का आरोपी है. उस समय लूसी का साथ देने के स्थान पर हम सबने मौन रहने में ही भलाई समझी. साल 1992 में 18 वर्षीय सिस्टर अभया की भी ऐसी ही रहस्यमयी स्थितियों में मृत्यु हो गयी थी. यह एक ऐसा मामला था, जिसकी जांच सबसे लम्बे समय तक चली थी और अंत में स्थानीय पुलिस ने उसे आत्महत्या साबित कर दिया था. परन्तु बाद में शोर मचने पर उच्च न्यायालय ने इस मामले को सीबीआई को भेज दिया था, जिसने अपनी जांच में साबित किया था कि यह आत्महत्या नहीं बल्कि दो पादरियों और एक सिस्टर द्वारा किया गया क़त्ल था.
ऐसे ही तमाम मामलों से चर्चों का इतिहास लाल हो चुका है, ऐसा ही एक मामला आया था साल 2015 में जब केरल के कोट्टयम जिले में 69 साल की सिस्टर अमला लिसीक्स की निर्जीव देह सिर पर चोट के निशान के साथ मिली थी. ऐसा क्या है कि कुँए में कूदकर नन अपनी पीड़ा को इतने गहरे दबा देती है कि वह दिल्ली तक नहीं आ पाती, साल 2018 में भी सिस्टर सुषमा ने कुँए में कूदकर आत्महत्या कर ली थी, जिसे बाद में कहा गया था स्वास्थ्य के कारणों से उन्होंने आत्महत्या कर ली थी, मगर बाद में उनके कमरे में उनके कटे हुए बाल और खून के धब्बे पाए गए.
यह सिलसिले अंतहीन है और इन पर चुप्पी भी गजब है. दिल्ली तक केरल की यह खबर आ जाती है कि उसने कोरोना को हरा दिया, मगर दिल्ली तक केरल में ननों के साथ हो रहे आत्महत्या के मामले नहीं आ पाते. उन तक सिस्टर लूसी का संघर्ष नहीं आ पाता, उन तक यह नहीं आ पाता कि जो पादरियों के सफ़ेद रंग के चोले हैं, उनमें उनकी ही किसी बहन के खून का तो धब्बा नहीं है. मगर जब इतने सिलेक्टिव हों कि हमें केवल और केवल हिंदुत्व और हिन्दू पुजारियों का विरोध करना है, तब हम पादरियों की इन सभी शर्मनाक हरकतों पर आँखें मूँद लेते हैं.
सिस्टर लूसी समस्त बुद्धिजीवी वर्ग पर एक प्रश्न चिन्ह है, दिव्या पी जॉनी की बिसरा दी गयी मौत एक सवाल है, मगर दुर्भाग्य यह है कि लाल रंग से बेहद प्यार करने वाले हिंदी साहित्यकार उन सभी स्त्रियों के लहू से बहुत प्यार करते हैं, जो पादरियों की हवस का शिकार बनती हैं. यह वह गिद्ध हैं जो स्त्रियों की निर्जीव लाशों को नुचते देखते हैं, मगर चूंकि उनके सामने उनके हिस्से का मांस रखा होता है, तो वह कुछ नहीं कहते.