यह शीर्षक कुछ अजीब लग सकता है, परन्तु हाल ही में घटित हुई कई घटनाओं के कारण ऐसा प्रतीत होता है या कहा जा सकता है कि धर्म का पालन करने वाला आम हिन्दू आरएसएस की छवि के कारण खतरे में तो नहीं है? बात करते हैं बीते दिनों कश्मीर में माखन लाल बिन्द्रू की हत्या के साथ। जैसा सभी को ज्ञात है कि माखन लाल बिन्द्रू की हत्या आतंकवादियों ने तब कर दी थी जब वह अपनी दुकान में बैठे हुए थे।
उनकी हत्या के बाद एक पत्र जारी करते हुए उन्होंने लिखा कि वह आरएसएस की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे थे और यही कारण है कि उन्हें मार डाला गया। यह कहकर इसे जस्टिफाई किया गया। यह बेहद ही हैरानी भरा वक्तव्य है कि वह आरएसएस की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे थे। पर आरएसएस की विचारधारा है क्या?
फिर आगे पत्र में लिखा हुआ है कि वह स्वास्थ्य गतिविधियों के माध्यम से कश्मीरी युवाओं को जोड़कर सीक्रेट मीटिंग कर रहे थे। जबकि पनुन कश्मीर के संयोजक अग्निशेखर के अनुसार यह सब निराधार है, बकवास है! अग्निशेखर जी के अनुसार यदि इतने वर्षों से रह रहे उन पंडितों को भी मारा जा रहा है, जिन्होंने वहां रुकने का साहस किया और बाहर से आए हुए साधारण हिन्दुओं को भी मारा जा रहा है, तो इसका एक ही उद्देश्य है कि उन्हें हिन्दू विहीन कश्मीर घाटी चाहिए। और वह इस बात से पूर्णतया इंकार करते हैं कि माखन लाल बिन्द्रू का आरएसएस से कोई भी सम्बन्ध था।
अब आते हैं दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण घटना पर। हाल ही में अमेरिका में एक कांफ्रेंस का आयोजन कराया गया। जिसका नाम था डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व! अर्थात वैश्विक हिंदुत्व को समाप्त करना, और चूंकि प्रतीकों का अपना एक विज्ञान और भाषा होती है, तो उसमें उन्होंने हिंदुत्व के स्थान पर आरएसएस की पोशाक और आरएसएस प्रणाम करते हुए व्यक्तियों को दिखाया और जिसमें से वह एक व्यक्ति को उखाड़ रहे हैं।
अब प्रश्न उठता है कि हिंदुत्व और आरएसएस का क्या सम्बन्ध है? हिंदुत्व को आरएसएस तक सीमित करने का क्या उद्देश्य है? इस आयोजन के बाद से ही हिन्दुओं में क्षोभ, क्रोध और आक्रोश तीनों है क्योंकि इस पूरे आयोजन का उद्देश्य था हिंदुत्व को अमान्य करार करके और नष्ट करके अब्राह्मिक मूल्यों की स्थापना करना।
हालांकि आयोजकों ने यह कहा कि यह हिन्दू धर्म के नहीं, बल्कि राजनीतिक हिंदुत्व के खिलाफ है। परन्तु इसमें कई वक्ता यह कहते हुए दिखाई दिए कि हिन्दू और हिंदुत्व एक ही है। इससे भी एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि क्या आरएसएस ही हिंदुत्व है और हिंदुत्व ही आरएसएस? यदि यह कांफ्रेंस आरएसएस के विरोध में थी तो हिंदुत्व नहीं होना चाहिए था और यदि हिंदुत्व के विरोध में था तो आरएसएस का प्रतीक क्यों?
क्योंकि आरएसएस की हिन्दू की परिभाषा में तो वह सभी हिन्दू ही हैं, जो इस भौगोलिक क्षेत्र में निवास करते हैं। संघ की वेबसाईट के अनुसार:
उपासना,पंथ,मजहब या रिलिजन के नाते नहीं होता है। इसलिए संघ एक धार्मिक या रिलिजियस संगठन नहीं है। हिन्दू की एक जीवन दृष्टि है,एक View of Life है और एक way of life है। इस अर्थ में संघ में हिंदूका प्रयोग होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि Hinduism is not a religion but a way of Life। उदाहरणार्थ सत्य एक है। उसे बुलाने के नाम अनेक हो सकते हैं। उसे पाने के मार्ग भी अनेक हो सकते हैं। वे सभी समान है यह मानना यह भारत की जीवन दृष्टि है। यह हिन्दू जीवन दृष्टि है। एक ही चैतन्य अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए सभी में एक ही चैतन्य विद्यमान है इसलिए विविधता में एकता (Unity in Diversity )यह भारत की जीवन दृष्टि है। यह हिन्दू जीवन दृष्टि है। इस जीवन दृष्टि को मानने वाला,भारत के इतिहास को अपना मानने वाला,यहाँ जो जीवन मूल्य विकसित हुए हैं,उन जीवन मूल्यों को अपने आचरण से समाज में प्रतिष्ठित करनेवाला और इन जीवन मूल्यों की रक्षा हेतु त्याग और बलिदान करनेवाले को अपना आदर्श मानने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है, फिर उसका मजहब या उपासना पंथ चाहे जो हो।
तो क्या इस हिंदुत्व को उखाड़ने के लिए यह आयोजन हुआ था? कौन से हिंदुत्व को हटाना चाहते हैं। जब हम आरएसएस की हिन्दुओं की इस परिभाषा को पढ़ते हैं, तो कई प्रश्न उभर कर आते हैं। जब संघ के लिए हिन्दू भौगोलिक है, और संघ स्वयं कहता है कि वह एक धार्मिक या रिलीजियस संगठन नहीं है, तो फिर उसे आधार बनाकर आम हिन्दुओं को निशाना क्यों बनाया जाता है?
इस भ्रमित अवधारणा का सबसे बड़ा शिकार हुआ है अपने “हिन्दू” धर्म पर टिका रहने वाला हिन्दू। संघ ने हिंदुत्व को जो परिभाषा दी है, उसके कारण धर्मपरायण हिन्दू सहज ही वाम, इस्लाम और पश्चिमी अकेडमिक्स के निशाने पर आ गए हैं। चूंकि संघ के कई पदाधिकारी आज कई पदों पर विराजमान हैं, इसलिए उसे एक राजनीतिक संगठन माना जाने लगा है, जबकि वह राजनीतिक संगठन नहीं है। वह देश की एकता और अखंडता के लिए बना हुआ एक संगठन है, जिसकी स्थापना वर्ष 1925 में डॉ. हेडगेवार जी ने की थी।
इसलिए आरएसएस को राजनीतिक हिंदुत्व से जोड़ना और उसके कारण हिन्दुओं के नष्ट होने की कामना करना, यह सब दुखद है। आखिर हिंदुत्व है क्या? किस हिंदुत्व को नष्ट करने की बात की जा रही है?
हिंदुत्व शब्द का उद्गम:
हिंदुत्व का अर्थ क्या है? पहले इस पर ही बात होनी चाहिए और सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग किसने किया? हिंदुत्व शब्द का प्रयोग सबसे पहले चन्द्रनाथ बासु ने किया था और उसमें हिंदुत्व की वह अवधारणा नहीं थी जो आज संघ दे रहा है, पर हाँ, यह सही है कि जिस हिंदुत्व को वाम अकेडमिक्स नष्ट करना चाहता है, चन्द्रनाथ बासु ने वही अवधारणा दी थी।
चन्द्रनाथ बासु ने उस समय हिंदुत्व को परिभाषित किया जब ईसाई मिशनरी अपने तमाम कुतथ्यों से हिन्दू धर्म को मिथ्या प्रमाणित करती जा रही थीं। वह हिन्दू धर्म को केवल मूर्तिपूजा तक सीमित कर रही थीं, और वह यह भी प्रमाणित कर रही थीं कि हिन्दू धर्म को यह नहीं पता है कि गलत कृत्य के लिए अनुताप सच्चा प्रायश्चित है और यह कि हिन्दू धर्म में भगवान को माता और पिता नहीं कहते हैं, इसलिए वह दिव्य नहीं है। बासु ने इस बात का उत्तर देते हुए कहा कि हिन्दुओं में कई ग्रंथों जैसे उपनिषद में निराकार ब्रह्म की बात की गयी है, परन्तु मूर्ति पूजा ऐसे लोगों के लिए वर्णित की गयी है जो अभी ब्रह्म के निराकार रूप को समझने में सक्षम नहीं हैं। फिर उन्होंने दूसरे तथ्य को काटते हुए कहा कि मनुस्मृति हमें बताती है कि जो लोग अपने गलत कार्यों का प्रायश्चित कर लेते हैं, एवं संकल्प लेते हैं कि वह यह कार्य दोबारा नहीं करेंगे, वह शुद्ध हो जाते हैं। और फिर उन्होंने मिशनरी के तीसरे तथ्य का उत्तर देते हुए लिखा कि कई ग्रंथों जैसे ऋग्वेद आदि में भगवान को पिता और माता के रूप में संबोधित किया गया है।
बासु ने हिंदुत्व को धार्मिक मूल्यों पर आधारित बताया और पूरी तरह से यह हिन्दू धर्म पर आधारित था। हिन्दुओं के धार्मिक अनुष्ठान एवं परम्पराएं इसमें मुख्य थीं। उनका हिंदुत्व था हिन्दू धर्म के सार की श्रेष्ठता को सिद्ध करना।
परन्तु यह शब्द लोकप्रिय हुआ विनायक दामोदर सावरकर द्वारा, जब उन्होंने एसेंशियल ऑफ हिंदुत्व निबंध लिखा। उनका हिंदुत्व भी उस हिंदुत्व से अलग है, जिसकी परिभाषा आज आरएसएस में दी गयी है। उनका हिंदुत्व क्या था?
सावरकर ने अपने उस निबंध में बताया है कि हिंदुत्व का अर्थ समग्र रूप से हिन्दुओं को एकत्र करना है। उन्होंने कहा कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सनातनी, सिख, आर्य, अनार्य, मराठा, और मद्रासी, ब्राह्मण आदि सभी ने हिन्दू होने के नाते ही कष्ट उठाए हैं और हम हिन्दू के रूप में ही विजयी हुए हैं। उन्होंने लिखा कि सिन्धु नदी के इस पार जिन लोगों पर भी शत्रुओं (इस्लाम) ने आक्रमण किए हैं, वह हिन्दू बोलते और समझते हुए ही किए हैं।
उन्होंने लिखा कि हमें हिंदुत्व के नागरिक जीवन और सांस्कृतिक एकता को बनाए रखना है और हिन्दुस्थान के सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। हिन्दुइज्म नहीं बल्कि हिंदुत्व की बात करनी है अर्थात हिदू धर्म, जो युद्ध भूमि पर तथा लोकतंत्र के कक्षों में भी लड़ा है। उन्होंने कहा कि एक ही शब्द हिंदुत्व हमारी देह में राजनीतिक रूप से हमारे स्नायु तंत्र में दौड़ सकता है और मालाबार का नायर कश्मीर के पंडितों के लिए रो सकता है। उन्होंने कहा कि हमारे नायकों ने हिन्दुओं के युद्ध लड़े हैं, और हमारे संतों ने हिंदुओं के प्रयासों को आशीर्वाद दिया है और हमारी माताएं हिन्दुओं के घावों पर रोई हैं और हिन्दुओं की विजय पर प्रफुल्लित हुई हैं।
अत: स्पष्ट है कि जहां चन्द्रनाथ बासु का हिंदुत्व हिन्दू धर्म के सार को श्रेष्ठ स्थापित कर रहा था तो सावरकर ने हिंदुत्व को राजनीतिक रूप से हिन्दुओं को एक करने के लिए प्रयोग किया। उन्होंने भी भौगोलिक हिंदुत्व की बात की, पर क्या वह वही हिंदुत्व था, जिसकी बात आरएसएस करता है।
हिंदुत्व शब्द सुनते ही पश्चिम बंगाल का वह हिन्दू जो हिन्दू होने की चेतना के साथ जुड़ा है, वह किसी भी ऐसे हिन्दू की पीड़ा पर रो उठता है, जिसमें हिन्दू चेतना है। परन्तु जिस हिंदुत्व की बात आरएसएस ने की है कि डीएनए के आधार पर सभी हिन्दू हैं, उसमें, कश्मीर का मुसलमान उत्तर प्रदेश के हिन्दू की पीड़ा पर रो सकता है?
नहीं! हाँ, वह गाजा के मुसलमान के लिए दिल्ली में दंगा जरूर कर सकता है, पर वह कश्मीर में किसी भी हिन्दू को नहीं रहने देगा। वह बहाने खोजेगा! पर वह रहने नहीं देगा!
सावरकर का हिंदुत्व धर्म के आधार पर हिन्दू चेतना को एक सूत्र में बांधता है, परन्तु आरएसएस का हिंदुत्व ऐसा नहीं है। हालांकि अपने मिशन स्टेटमेंट वह लिखता है कि हमें हिन्दू संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि यह स्पष्ट है कि यदि हिन्दुस्थान की रक्षा करनी है, तो हमें पहले हिन्दू संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए। यदि हिन्दू संस्कृति ही हिन्दुस्तान से गायब हो जाएगी तो यह केवल भौगोलिक रूप से ही हिन्दुस्थान रह जाएगा, केवल भौगोलिक सीमाएं ही राष्ट्र नहीं बनाती हैं।”
यह आरएसएस के संस्थापक डॉ केशवराज हेडगेवर जी का कथन है। और यह कथन सही भी है, परन्तु समस्या यह है कि इसमें जो लिखा है और जो संघ बाद में कह रहा है, और जिसके कारण आम हिन्दू को संघी समझकर एकेडमिक्स में अपना दुश्मन मान लिया जाता है, उसमें जमीन आसमान का अंतर है।
समस्या यह है कि अकेडमिक्स में जरा सा हिन्दू विचार रखने वालों को संघी कहकर अछूत बना दिया जाता है, या फिर एकेडमिक्स रूप से ही संघ को आधार बनाकर हिन्दुओं और हिंदुत्व को नष्ट करने की योजनाएं होती हैं, उससे हानि आम धर्म परायण हिन्दू की होती है।
जबकि संघ की एक नहीं कई गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिनसे हिन्दुओं की अवधारणाओं को ही निशाना बनाया गया। हिन्दुओं को सांस्कृतिक रूप से निर्बल किया गया, या करने का प्रयास किया गया, जैसे वर्ष 2017 में यह समाचार आना कि मनुस्मृति से ऐसे भागों को हटाया जाना, जो दलित विरोधी और महिला विरोधी हैं, और हिन्दू ग्रंथों के विरोध में तर्क में प्रयोग किया जाता है।
यह कहाँ से संस्कृति की रक्षा या फिर हिन्दू संस्कृति को बनाए रखना हुआ, जब हज़ारों वर्ष पूर्व लिखे गए ग्रन्थों में कथित सुधार की बात की जा रही है। बजाय इसके कि पाठ्यक्रम में सुधार करके जाति और कास्ट के बीच अंतर बताने की प्रक्रिया आरम्भ की जाती, पाठ्यक्रम में वर्ण के विषय में ज्ञान प्रदान किया जाता और पश्चिमी पिछड़े दृष्टिकोण को हटाकर भारतीय कर्म प्रधान दृष्टिकोण बताया जाता, इस बात का कुप्रयास किया गया कि धार्मिक ग्रंथों के पाठ बदले जाएं?
हिन्दू संस्कृति को यदि किसी स्तर पर प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है , तो वह है विद्यालय स्तर पर! पाठ्यक्रम में बच्चों को उन्हीं की संस्कृति के विषय में विषपान कराया जाता है, और हिन्दू धर्म के हर रीतिरिवाज के प्रति घृणा भरी जाती है जैसे कन्यादान के प्रति यह कविता:
इसे कक्षा दस में पढाया जाता है। भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें उसके मुख्य धर्म हिन्दू धर्म के विषय में आधिकारिक रूप से उसकी नई पीढी के मस्तिष्क में विष घोला जाता है।
पिछले सात वर्षों में एनसीईआरटी की पुस्तकों में मुगलों का महिमामंडन नहीं हटाया गया है, इस झूठ को नहीं हटाया गया कि मुगलों ने युद्ध के बाद हिन्दुओं के मंदिर बनवाए थे।
इतिहास में कुंती के विषय में झूठी क्रांतिकारी कहानी नहीं हटाई गए, जिससे बच्चों के कोमल मस्तिष्क में अपने महाभारत और रामायण के प्रति एक घृणा का भाव उत्पन्न हुआ।
प्रभु श्री राम जी की जलसमाधि को आत्महत्या कहने वाली कविता भी चलती रही:
हिन्दुओं की चेतना पर होने वाले इस आक्रमण को रोकने के पिछले वर्षों में प्रयास नहीं किए गए।
आम हिन्दू के साथ यह सांस्कृतिक अन्याय उस सरकार में हो रहा था, जिसके सदस्य उस संगठन के सदस्य हैं जो हिंदुत्व का प्रतिनिधि बना हुआ है। और आम हिन्दू इस मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहा था, परन्तु जो लड़ाई लड़ रहा था, और जिसका संघ से कोई सम्बन्ध नहीं था, उसे एकेडमिक्स में “संघी” कहकर अपमानित किया जा रहा था और यहाँ तक कि एकेडमिक्स पर संघ को घेरने के लिए हिन्दू का प्रयोग किया गया, उस हिंदुत्व का जिस हिंदुत्व का संघ के हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि उस पूरी की पूरी कांफ्रेंस में संघ के हिंदुत्व के विषय में बात नहीं हुई, बात हुई तो केवल हिन्दुओं को तोड़ने की और हिन्दुओं को कोसने की।
हिन्दू स्त्रियों को कोसा गया, परन्तु वही भाषा तो यहाँ की पाठ्यपुस्तकों में थी, और अभी भी है, तो सांस्कृतिक रूप से कैसे भारत को अक्षुष्ण रखने के प्रयास संघ द्वारा किए गए, यह भी स्वयं में प्रश्न है क्योंकि पुस्तक सबसे बड़ा माध्यम हैं, जिनके माध्यम से सांस्कृतिक एकता लाई जा सकती है, वही हिन्दुओं के विरोध में सबसे अधिक है। यहाँ तक कि प्रकाशक अभी भी हिन्दू चेतना वाली पुस्तकों को प्रकाशित करने से इंकार कर देते हैं।
अभी भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हिन्दू स्त्रियों को तोड़ने के लिए तमाम प्रपंची वेबसाईट चल रही हैं, परन्तु उन पर कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है। फेमिनिज्म के नाम पर हिन्दू परिवार को छिन्न भिन्न किया जा रहा है, परन्तु उससे लड़ने के लिए दृष्टि का अभाव दिखता है।
कुल मिलाकर यह प्रतीत हो रहा है कि एक आम धर्मपरायण हिन्दू जो हो सकता है कि राजनीतिक रूप से भाजपा को वोट देता हो, परन्तु जिसका कोई भी लेना देना आरएसएस के हिंदुत्व से नहीं है, और जो संघ के हिंदुत्व के स्थान पर चन्द्रनाथ बासु के हिंदुत्व पर विश्वास करता है, वह वाम और इस्लामी एकेडमिक्स का शिकार हो जाता है।
अब तो आतंकवादी भी हिन्दुओं को मारने के लिए संघ का सहारा लेने लगे हैं!
दुःख की बात है कि हिन्दुओं के शत्रुओं ने हिन्दुओं को हर स्तर पर नष्ट करने के लिए संघ की ओट ले ली है, पर संघ अभी भी खुलकर हिन्दुओं के साथ नहीं आ रहा है। वह अभी भी सभी भारतीय हिन्दू हैं के झूठ में फंसे हैं। यदि सभी हिन्दू हैं, तो बार बार यह क्यों कहा जा रहा है कि इस्लाम के बिना हिन्दू अधूरा है?
उनके लिए मुस्लिम मुहम्मदी हिन्दू हैं और ईसाई क्रिश्टी हिन्दू, पर मुस्लिम और ईसाइयों के लिए हिन्दू का अर्थ हिन्दू ही है, जो उनका दुश्मन है! हिन्दुओं का शत्रु बोध समाप्त है और उनका शत्रुबोध एकदम स्पष्ट है। उनके लिए संघ ही हिन्दू है और हर धर्म परायण हिन्दू संघी है, जिसे एकेडमिक्स से लेकर हर क्षेत्र में मारना है। परन्तु क्या कभी संघ इस बात को समझ पाएगा कि कितने मुस्लिम और ईसाई खुद को हिन्दू तो छोड़ दीजिये भारतीय भी मानते हैं, जो उनके हिन्दू नेतृत्व में विश्वास करते हैं?
कोई नहीं!
संघ ने स्वयं ही हिंदुत्व की परिभाषा तो बना दी है, पर उस हिंदुत्व की परिभाषा में हिन्दू कहाँ है और किस रूप में है? और क्या संघ को ही हिंदुत्व मान लेने पर आम धर्म परायण हिन्दू के साथ अन्याय हो रहा है? यह सब देखना ही होगा!
हालांकि हाल ही में विजयदशमी पर संघ प्रमुख ने कुछ ऐसे बिंदु उठाए हैं, जिनकी मांग हिन्दू समाज कई वर्षो से करता आ रहा है जैसे हिन्दू मंदिरों का अधिकार हिन्दुओं के पास। यदि संघ और भाजपा हिन्दू हितों के लिए कार्य करने वाली हैं, तो सबसे पहले हिन्दू मन्दिरों को ही सेक्युलर सरकारों से छुटकारा दिलाने के लिए क़ानून बनाना चाहिए था?
जिस प्रकार से संघ प्रमुख के संबोधन में इस बार हिन्दू धर्म की बात की गयी है, वह दिखाई दे और कम से कम शिक्षा, एवं संस्कृति के क्षेत्र में हिन्दू धर्म का अपमान न हो, यह प्रयास किया जाए।
क्योंकि जहां जिहादी तत्वों को यह स्पष्ट है कि वह अपने साथ रहने वालों को भी निशाना बना सकते हैं, अर्थात वह कश्मीर में उन्हें भी मार सकते हैं, जो उनके लिए जीवन भर दवाइयां उपलब्ध कराता रहा, और उसे भी मार सकते हैं जो बेचारा रोजगार की तलाश में बिहार से आया है और उन्हीं के लिए चाट का ठेला लगा रहा है, और उसे भी मार सकते हैं, जो उन्हीं के बच्चों को शिक्षा दे रहा है! उनका निशाना स्पष्ट है कि उन्हें हिन्दू को मारना है, उन्हें भौगोलिक हिन्दू को नहीं मारना है, उन्हें उस हिन्दू को मारना है, जिसके नाम में तनिक भी हिन्दू की पहचान है, और इस धरती को हिन्दू मुक्त करना है!
भटकाव कहाँ है, इसे समझना है!