उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले से लगभग चालीस किलोमीटर दूर चीड़ और देवदार के वृक्षों से घिरा जागेश्वर धाम जो शिवजी के बारहवें ज्योतिर्लिंग का गवाह है, जहाँ छोटे बड़े लगभग 125 मंदिर हैं. ऐसा माना जाता है की यहाँ पहले लगभग दो सौ से भी ज्यादा मंदिर हुआ करते थे जो समय के साथ नष्ट हुए और अवशेष बन गए.
जागेश्वर के मंदिरों का निर्माण कत्यूरी राजाओं ने करवाया था. पत्थरों के विशाल शिलाओं और देवदार की लकड़ी से निर्मित इस मंदिर में गुप्त साम्राज्य की शैली दिखायी देती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के आंकड़ों पर विश्वास करें तो माना जा सकता है कि इन मंदिरों के निर्माण में दो तीन पीढ़ियों का सहयोग रहा होगा. 2008 में पहली बार मुझे इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ, देवदार और चीड़ के आसमान छूते पेड़ इन मंदिरों की महिमा गाते यहाँ की शीतल हवा के साथ झूम रहे थे.
पहाड़ियों के मध्य बसा यह मंदिर बेहद शांत और व्यावसायिक गतिविधियों से कोसों दूर था.अकल्पनीय शांति बिखरी हुई थी यहाँ के वातावरण में. बीच-बीच में मंदिरों में बजती घण्टियों की आवाज संगीत की तरह कानों में भक्ति रस घोल रही थी. पूरा कुमाऊं मंडल कहानियों और किवंदंतियों से भरा हुआ है जागेश्वर धाम के बारे में भी कई किवंदंतियां मशहूर हैं ऐसा माना जाता है कि निःसन्तान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिए यहाँ आकर कर पूजा यज्ञ कर मनवांछित फल प्राप्त करते हैं. जागेश्वर भोलेनाथ के मुख्य मंदिर के साथ कई छोटे बड़े मंदिरों से सजा हुआ है, जो आपको अपूर्व शान्ति प्रदान करेगा मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ.
मैं चंद उन भाग्यशाली लोगों में हूँ जिन्होंने जागेश्वर ज्योतिर्लिंग की तीन बार यात्रा की हैं. यात्रायें जरूर संक्षिप्त रही किन्तु अनुभव हमेशा एक सामान. मेरी पहली यात्रा और तीसरी यात्रा (जो मैंने इसी साल की 2016 में की है) में अगर कुछ बदला तो वह इस जगह का व्यवसायीकरण. इन आठ सालों में यहाँ एक अच्छा- ख़ासा बाजार बन चुका है. यहाँ खाने के लिए होटल से लेकर ठहरने तक की व्यवस्था है. जागेश्वर के आस पास बने छोटे-छोटे मकान बड़े हो गए हैं जिनको वहां के लोग होटल की तरह प्रयोग कर रहे हैं. जागेश्वर समुंद्रतल से लगभगग पांच हजार फ़ीट की ऊंचाई पर है इसलिए साल भर में आप कभी भी जा सकते हैं लेकिन ठण्ड के मौसम में जरा विशेष तैयारियों के साथ.
इतिहास
उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में 400 से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 125 छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।
इन मंदिरों का जीर्णोद्धार राजा शालिवाहन ने अपने शासनकाल में कराया था. पौराणिक काल में भारत में कौशल, मिथिला, पांचाल, मस्त्य, मगध, अंग एवं बंग नामक अनेक राज्यों का उल्लेख मिलता है. कुमाऊं कौशल राज्य का एक भाग था. माधवसेन नामक सेनवंशी राजा देवों के शासनकाल में जागेश्वर आया था. चंद्र राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटल श्रद्धा थी. देवचंद्र से लेकर बाजबहादुर चंद्र तक ने जागेश्वर की पूजा-अर्चना की. बौद्ध काल में भगवान बद्री नारायण की मूर्ति गोरी कुंड और जागेश्वर की देव मूर्तियां ब्रह्मकुंड में कुछ दिनों पड़ी रहीं. जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने इन मूर्तियों की पुनर्स्थापना की. स्थानीय विश्वास के आधार पर इस मंदिर के शिवलिंग को नागेश लिंग घोषित किया गया
पौराणिक सन्दर्भ
जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वर और भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूणके नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगा के तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है। लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहारभगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिगोंमें से एक है।
पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी। दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद सती के आत्मदाह से दु:खी भगवान शिव ने यज्ञ की भस्म लपेट कर दायक वन के घने जंगलों में दीर्घकाल तक तप किया. इन्हीं जंगलों में वशिष्ठ आदि सप्त ॠषि अपनी पत्नियों सहित कुटिया बनाकर तप करते थे. शिव जी कभी दिगंबर अवस्था में नाचने लगते थे. एक दिन इन ॠषियों की पत्नियां जंगल में कंदमूल, फल एवं लकड़ी आदि के लिए गईं तो उनकी दृष्टि दिगंबर शिव पर पड़ गई. सुगठित स्वस्थ पुरुष शिव को देखकर वे अपनी सुध-बुध खोने लगीं. अरुंधती ने सब को सचेत किया, किंतु इस अवस्था में किसी को अपने ऊपर काबू नहीं रहा.
शिव भी अपनी धुन में रमे थे, उन्होंने भी इस पर ध्यान नहीं दिया. ॠषि पत्नियां कामांध होकर मूर्छित हो गईं. वे रात भर अपनी कुटियों में वापस नहीं आईं तो प्रात: ॠषिगण उन्हें ढूंढने निकले. जब उन्होंने यह देखा कि शिव समाधि में लीन हैं और उनकी पत्नियां अस्त-व्यस्त मूर्छित पड़ी हैं तो उन्होंने व्याभिचार किए जाने की आशंका से शिव को शाप दे डाला और कहा कि तुमने हमारी पत्नियों के साथ व्याभिचार किया है, अत: तुम्हारा लिंग तुरंत तुम्हारे शरीर से अलग होकर गिर जाए.
शिव ने नेत्र खोला और कहा कि आप लोगों ने मुझे संदेहजनक परिस्थितियों में देखकर अज्ञान के कारण ऐसा किया है, इसलिए मैं इस शाप का विरोध नहीं करूंगा. मेरा लिंग स्वत: गिरकर इस स्थान पर स्थापित हो जाएगा. तुम सप्त ॠषि भी आकाश में तारों के साथ अनंत काल तक लटके रहोगे. लिंग के शिव से अलग होते ही संसार में त्राहि-त्राहि मच गई. ब्रह्मा जी ने संसार को इस प्रकोप से बचाने के लिए ॠषियों को मां पार्वती की उपासना का सुझाव देते हुए कहा कि शिव के इस तेज को पार्वती ही धारण कर सकती हैं. ॠषियों ने पार्वती जी की उपासना की. पार्वती ने योनि रूप में प्रगट होकर शिवलिंग को धारण किया. इस शिवलिंग को योगेश्वर शिवलिंग के नाम से पुकारा गया.
कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएं पूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।
कैसे पहुँचे जागेश्वर?
दोस्तों आपको बताता हूँ जागेश्वर कैसे पंहुचा जा सकता है? हवाई जहाज से निकटतम पन्त नगर हवाई अड्डा है, जहाँ उतर कर सड़क मार्ग के द्वारा अल्मोड़ा होते हुए जागेश्वर जा सकते हैं. पंतनगर से टैक्सी अथवा बस के रूप में विकल्प मिल जाते हैं. जागेश्वर से निकटम रेल मार्ग काठगोदाम है, जहां से आप तीन घंटे में जागेश्वर धाम पहुँच सकते है.
जागेश्वर जायें तो कहाँ रहें ?
मैं ऊपर बता चुका हूँ कि पिछले कुछ सालों में यहाँ का बहुत ज्यादा व्यवसायीकरण हो चुका है इसलिए जागेश्वर में रहने के लिए होटल और कमरे मिल जाते हैं और कुछ नए प्रोजेक्ट्स निर्माणाधीन है, लेकिन बहुत अच्छे होटल्स और सुविधाओं के लिए अल्मोड़ा सबसे निकट है जहँ आपको रहने के लिए कई विकल्प मिल सकते हैं. तो फिर देर किस बात की है सामन और कपडे बांधिये और पहुँच जाइए सुरम्य वातावरण और भोले नाथ की शरण में!
साभार इनपुट: विकिपीडिया एवं जागेश्वर धाम का इतिहास फेसबुक पेज