राफेल डील को लेकर कांग्रेस और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा फैलाए गए झूठ पर सुप्रीम कोर्ट ने करारा प्रहार कर उसे तहस नहस कर दिया। अब जब कांग्रेस और इको सिस्टम ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भ्रम जाल फैलाना शुरू किया तो केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने उसके सारे भ्रम जाल को अपने एक पोस्ट से तोड़कर रख दिया। जेटली ने अपने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम द्वारा फैलाए भ्रमजाल का इस प्रकार जवाब दिया है। उन्होंने अपने पोस्ट का शीर्षक ही रखा है “राफेल, झूठ, अल्पकालिक झूठ तथा अब आगामी झूठ”। यहां प्रस्तुत है उनके मूल पोस्ट का हिंदी अनुवाद…
अरुण जेटली, केंद्रीय वित्त मंत्री । राफेल पर अभी तक बोले गए सारे झूठ उजागर हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्पष्ट है। राफेल को लेकर सरकार के खिलाफ बोले गए एक-एक शब्द झूठ साबित हो चुके हैं। हितधारकों द्वारा राफेल डील के खिलाफ जारी हरेक तथ्य मनगढ़ंत साबितो हो चुके हैं। इस प्रकार एक बार फिर सत्य की महत्ता स्थापित हो चुकी है। इतना सबकुछ होने के बावजूद इस मामले में झूठ गढ़ने वाले अपनी साख को दावं पर लगाकर इस झूठ को जीवित रखने का प्रयास करेंगें। लेकिन उनकी इस करतूत पर उनके अपने लोग ही ताली बजाएंगे।
कैग पर अस्पष्टता
“रक्षा मामले के सारे लेन-देन की जांच सीएजी यानि कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल करते हैं। इसके बाद सीएजी की रिपोर्ट संसद के माध्यम से लोक लेखा समिति (PAC) के पास जाती है। इसके बाद पीएसी की रिपोर्ट संसद के समक्ष आती है।” यही बात सरकार ने कोर्ट में तथ्यात्मक और वास्तविक रुप से रखी थी। राफेल की आडिट जांच कैग के पास लंबित है। उसके साथ सारे तथ्य साझा किए गए हैं। जब कैग की रिपोर्ट आएगी तो उसे पीएसी को भेज दिया जाएगा। तथ्यात्मक रूप से सही बयान देने के बावजूद अदालत के आदेश में किसी प्रकार की विसंगति है, तो कोई भी कोर्ट से उसे ठीक करने की अपील कर सकता है। कोर्ट के सामने सही तस्वीर रख दी गई है और अब यह अदालत के विवेक पर है कि वह बताए कि कैग की समीक्षा किस चरण में लंबित है। वैसे भी प्रक्रिया, कीमत और आफसेट आपूर्तिकर्ता पर (न्यायालय के) अंतिम निष्कर्षों के संबंध में कैग की रिपोर्ट का कोई मायने ही नहीं है।
लेकिन बुरी तरह से हारा हुआ व्यक्ति कभी सच्चाई को स्वीकार नहीं करता है। हर प्रकार के झूठ पर मुंह की खाने के बाद कांग्रेस ने सर्वोच्च अदालत के फैसले पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है। शुरुआती झूठ में विफल होने के बाद राफेल पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर कांग्रेस कई और झूठ गढ़ रही है।
मैं आश्वस्त हूं कि चल रहे संसद सत्र के दौरान राफेल पर बहस करने की बजाए कांग्रेस पार्टी इस सत्र में हंगामा करेगी ताकि यह सत्र चल ही नहीं सके। क्योंकि कांग्रेस ने तथ्य पर झूठ बोला है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से रक्षा सौदे के तहत लेन-देन पर हुई बहस में कांग्रेस की कमजोरी व्यापक रूप से यह स्थापित हो चुकी है। अगर इस मामले में बहस हुई तो कांग्रेस पार्टी तथा उसके रक्षा सौदे मामले के बारे में देश को याद दिलाने का एक अचछा अवसर होगा।। इतना ही नहीं इस मामले में बोलने के लिए हमलोगों को भी एक अच्छा अवसर हाथ लगेगा।
संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) गठित करने की अनुचित मांग
राफेल के विरोधियों को अपने तथ्य रखने के लिए अपना मंच चुनने का विकल्प था। उनलोगों ने ही सुप्रीम कोर्ट को अपने मंच के रूप में चुना। कोर्ट ने न्यायिक जांच शुरू की। सुप्रीम कोर्ट एक निष्पक्ष, स्वतंत्र तथा संवैधानिक प्राधिकरण है। कोर्ट का फैसला अंतिम है, इसलिए खुद कोर्ट के अलावा कोई इसकी समीक्षा नहीं कर सकता है। ऐसे में कोई संसदीय समिति किस प्रकार कोर्ट के फैसले की समीक्षा कर सकती है। सवाल उठता है कि जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका हो उस मामले में राजनेताओं की समिति विधिक या मानव संसाधन के रूप में उसकी समीक्षा करने के लिए उपयुक्त है? क्या कोई संसदीय समिति राफेल डील के लिए निर्णय प्रक्रिया, ऑफसेट आपूर्ति तथा कीमत पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अलग राय दे सकती है। क्या अनुबंध का उल्लंघन किया जा सकता है, देश की सुरक्षा से समझौता किया जा सकता है और मूल्य निर्धारण डाटा संसद को उपलब्ध कराया जा सकता है?
बोफोर्स सौदे की जेपीसी जांच का क्या अनुभव रहा? सिर्फ वही एक उदाहरण है जब किसी रक्षा सौदे की जेपीसी ने जांच की थी। बी शंकरानंद समिति ने 1987-88 में बोफोर्स सौदे की जांच की। सांसद अपनी पार्टी लाइन के आधार पर बंटे रहते हैं और उसका नतीजा रहा कि समिति ने जो निष्कर्ष निकाला उसमें कहा गया कि कोई घूस नहीं दिया गया था और बिचौलिये को जो पैसा दिया गया था वह उसे उसकी सेवा के लिए दी गयी फीस थी। उस समय सिर्फ विन चड्ढा ही एक मात्र विचौलिया के रूप में सामने आया था। बाद में ओतावियो क्वात्रोची का भी नाम सामने आया। उसके बैंक खातों का बाद में पता चला और इन खातों में सेवा शुल्क के भुगतान का कोई आधार नहीं बनता था।
‘द हिंदू’ में चित्र सुब्रमण्यम और एन राम द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट / दस्तावेज और बाद के सभी तथ्यों के प्रकाश में आने के लिए जेपीसी में उल्लेख किए गए प्रत्येक तथ्य को वास्तव में झूठा माना। यह एक कवर अप अभ्यास बन गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया आखिरी शब्द विधिसम्मत बन जाता है। इसके बाद कोई भी राजनीतिक निकाय कोर्ट के निष्कर्ष पर उंगली नहीं उठा सकता है।
बोले गए झूठ
राफेल डील को लेकर मौलिक सच्च यह है कि राफेल को उसकी गुणवत्ता और कीमत को देखते हुए यूपीए सरकार ने चुना था, लेकिन वही भूल भी गई।
इस बारे में पहला झूठ था कि केवल एक ही व्यक्ति प्रधान मंत्री ने लेनदेन का फैसला किया और वायुसेना, रक्षा मंत्रालय या रक्षा अधिग्रहण परिषद के साथ कोई चर्चा नहीं हुई। यह भी आरोप लगाया गया कि न तो कोई निगोसिएशन समिति थी न ही कोई अनुबंध वार्ता समिति थी। इसके अलावा सुरक्षा कैबिनेट कमेटी की भी कोई मंजूरी नहीं ली गई । जबकि हर तथ्य झूठा था। अनुबंध वार्ता समिति और मूल्य बातचीत समिति की दर्जनों बैठकें हुईं। वायुसेना के विशेषज्ञों के साथ कई बार बैठकें की गई थीं।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संतोष व्यक्त किया है कि फैसले की प्रक्रिया का अनुपालन किया गया है, और इस बारे में लगाए गए सारे आरोप गलत हैं।
दूसरा प्रमुख झूठ यह था कि यूपीए द्वारा 500 मिलियन यूरो के मोल-भाव करने के मुकाबले एनडीए ने प्रति विमान 1600 मिलियन यूरो का भुगतान किया । यह आरोप एक ‘कहानी लेखन’ से ज्यादा नहीं था। सरकार ने यूपीए कार्यकाल के मूल्य तथा वर्तमान मूल्य का विवरण चार्ट सुप्रीम कोर्ट के सामने मुहरबंद लिफाफे में प्रस्तुत किया। इससे पता चला कि सरकार ने महज विमान के लिए 9% सस्ता सौदा किया और यूपीए द्वारा एक हथियारयुक्त विमान की तुलना में 20% सस्ता सौदा हुआ। अदालत ने सारी कीमत देखने के बाद भी कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की।
तीसरा प्रमुख झूठ यह है कि अदालत के फैसले के हवाले से कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार द्वारा एक विशेष व्यापारिक घराने का पक्ष लेने पर आपत्ति जताई है। जबकि कोर्ट ने कहा है कि ऑफसेट आपूर्तिकर्ताओं के चयन में भारत सरकार का कोई लेना देना नहीं है। ऑफसेट आपूर्तिकर्ता का चयन पूरी तरह से डेसॉल्ट ने अपने विवेक से किया है।
अदालत के फैसले के बाद, यह बहस खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन न तो लॉबीस्ट और न ही राजनीतिक विरोधी इस मामले को छोड़ने को तैयार हैं
विघटनकारियों के प्रमाण पत्र
राफेल अपने हथियारों के साथ एक ऐसा लड़ाकू विमान है जो भारतीय वायुसेना की मारक क्षमता बढ़ाने के लिए जरुरी है । भारत भौगोलिक दृष्टि से एक संवेदनशील क्षेत्र में स्थित है। इसे खुद को बचाने की जरूरत है। ऐसे हथियार की आवश्यकता को खत्म नहीं किया जा सकता है। जब ऐसे रक्षा उपकरणों को खरीदा जाता है तो जाहिर है कि कुछ आपूर्तिकर्ता परेशान हो जाते हैं । आपूर्तिकर्ता चालाक होते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि भारत की कमजरो करी कौन है जिसके सहारे देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ा किया जा सकता है।
राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में राहुल गांधी का इस सौदे का विरोध हताशा भरा है। यह यूपीए सरकार थी जिसने राफले को शॉर्टलिस्ट किया था क्योंकि यह तकनीकी रूप से सबसे अच्छा और सबसे सस्ता था। एक अंतर सरकारी समझौते में प्रधान मंत्री मोदी ने फ्रांसीसी सरकार के साथ समझौते पर जोर दिया और उन शर्तों को और सुधारने के लिए कहा जिन पर यूपीए सरकार सहमत थी।
राहुल के विरोध के वो तीन कारण
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इसका इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि मोदी भारत के इतिहास में सबसे साफ-सुथरी सरकार चला रहे हैं। विरोध का दूसरा कारण यह भी है कि राहुल गांधी पर बोफोर्स का बोझ है। वह राफेल और बोफोर्स में ‘‘अनैतिक रूप से समानता’’ स्थापित करने का हताशा भरा प्रयास कर रहे हैं। राफेल में कोई बिचौलिया नहीं है, कोई घूस और कोई क्वात्रोची नहीं है। विरोध का तीसरा कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सरकारों के द्विपक्षीय सहयोग की वजह से संप्रग सरकार के समय के घोटालेबाजों को भारत लाया जा रहा है। जाहिर है कि लोगों को इस बात का भी भय है कि इनमें से ‘‘कौन कितनी बात उगलेगा।’’
राहुल गांधी को अपना राजनीतिक करियर बनाने में लुटियंस पत्रकारों का हमेशा से सपोर्ट मिलता रहा है। स्थायी रुप से पीआईएल दायर करने वाले शुरू से ही राष्ट्रीय सुरक्षा की जगह उसकी राह में आने वाली बाधाओं को प्राथमिकता दी है । वे भारत को चोट पहुंचाने वाले किसी भी व्यक्ति को सहयोग करने को तैयार हैं। विघटनवादी गठबंधन का दायरा इसलिए तो व्यापक था।
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URL : jaitley calls congress bad losers on rafale deal and ruled out jpc!
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