
भाजपा स्थापना दिवस; भारतीय जनसंघ के समय से ही कांग्रेस का आघात सहने की आदी रही है भाजपा!
अवधेश कुमार मिश्र। देश ही नहीं अपितु विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बनने की सफलता का सूत्र अगर भारतीय जनता पार्टी को कहीं से मिला है तो वह है उसकी नींव भारतीय जनसंघ का संघर्ष। भारतीय जनसंघ वही राजनीतिक पार्टी है जिसका कलेवर भारतीय जनता पार्टी के रूप में तो बदला लेकिन आत्मा अक्षुण्ण रही। भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही सबसे पहले जम्मू-कश्मीर में ‘विधान लेंगे या बलिदान देंगे’ का नारा दिया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इसी सूत्र वाक्य को धारण कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ स्वयंसेवकों द्वारा शुरू किया गया सफर आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में इस मुकाम पर पहुंचा है।
मुख्य बिंदु
* भारतीय जनसंघ के समय से ही कांग्रेस का आघात सहने की आदी रही है भाजपा!
* जनसंघ के पहले अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने दिया था ‘विधान लेंगे या बलिदान देंगे का नारा!
जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी के रूप में 1984 में पहले लोकसभा चुनाव में महज दो सीटें मिल पाई थी उसी प्रकार भारतीय जनसंघ को 1952 में देश में हुए पहले लोकसभा चुनाव में भी महज दो ही सीटें हांसिल हुई थी। जो कालांतर में उत्तरोत्तर बढ़ती गई। संघर्ष की बात की जाए तो यह तय है कि भारतीय जनता पार्टी के नए नेताओं को उतना नहीं करना पड़ा जितना संघर्ष भारतीय जनसंघ के रूप में उनके पुराने नेताओं को करना पड़ा। भारतीय जनसंघ के निर्माण के साथ ही उसे भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के दमन का सामना करना पड़ा। नेहरू ने तो आरएसएस से लेकर उनके आनुसांगिक संगठनों को मिटाने का हरसंभव प्रयास किया। लेकिन उनके सामने गोलवरकर से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे कद्दावर नेता खड़े थे।

guru golwalkar
ऐसा नहीं कि भाजपा के खिलाफ अनर्गल प्रलाप आज ही हो रहा है। यह सिलसिला भारतीय जनसंघ के समय से हो रहा है। माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर के जीवन पर श्री संदीप देव द्वारा लिखी शोधपरक पुस्तक ‘हमारे श्रीगुरुजी’ भारतीय जनसंघ के जन्मपूर्व और जन्मोपरांत के संघर्ष की ज्ञानोपयोगी ग्रंथ है। देवजी के अनुसार कांग्रेस छल-बल का खेल भाजपा के खिलाफ शुरू से करती आ रही है।
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21 अक्टूबर 1951 को अस्तित्व में आया भारतीय जनसंघ को 1952 में ही आजाद भारत के पहले लोकसभा चुनाव का सामना करना पड़ा। 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने भारतीय जनसंघ के साथ यही घात किया था। यहां तक कि भारतीय जनसंघ की पर्ची लगी मतपेटी बदल ली गई थी। यह उस समय की बात है जब कहा जाता है कि नेहरू की लोकप्रियता चरम पर थी। इतना होने के बाद भी 94 सीटों पर चुनाव लड़कर भारतीय जनसंघ ने दो सीटें हांसिल की थी जिसमें बाद में उतरोत्तर वृद्धि होती चली गई।
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