जनता जनार्दन राधा कृष्ण उनियाल
जनता कदाचित भेड़ों का झुण्ड है
जो खेत और खलियान भटकता है
हरी व सूखी घास चुगता है
दिशाहीन सा विचरता है
तथा बार-बार कटने को तत्पर रहता है
अथवा
जनता मछलियों का समूह है
छोटी और बड़ी मछलियाँ
जो संकीर्ण तालाब में रहती हैं
आपस में लड़ती व झगड़ती हैं
फिर अचानक कोई बड़ी मछली
छोटी मछली को निगल लेती है
और वह और भी बड़ी हो जाती है
तब वह “नेता मछली” कहलाती है
तालाब गन्दा करना नेता मछली का कर्म है
उस गन्दगी पर जीना जनता मछली का धर्म है
सरासर झूठ है कि जनता को रोटी, कपड़ा, मकान दरकार है
नहीं ! उसे केवल आश्वाशन का ही इंतजार है
जनता तो जूठन पर जी लेती है
लहू का घूंट पी लेती है
क्यू में खड़ी-खड़ी या सड़क पर पड़ी-पड़ी जहाँ कहीं सो लेती है
जनता खुद को सुख सपनों में खो देती है
और अपना शव भी स्वयं ही ढो लेती है
बहुत पुराना कथन है
कि जनता जनार्दन है
अर्थात जनता में ईश्वर का वास है
शायद तभी अमृत्व उसके पास है
जिससे वह मर कर भी नहीं मरती
जैसे नित मरने के लिये ही जीना हो उसकी नियति
जनता की यही बदहाली तो नेताओं को भाती है
इस पर सियासत उनको बहुत अनुकूल आती है
यों तो विदेशी लुटेरे अब हैं लूटकर चले गए
लेकिन लूट का गुरुमंत्र वे नेताओं को हैं दे गए
देश को नेताओं ने खुद की जागीर मान लिया है
राष्ट्र को उन्होंने धर्म से निरपेक्ष कर दिया है
नेताओं ने अपना आचरण तो ख़राब किया है
लेकिन जनता को भी धर्महीन कर दिया है
चुनाव जीतने को “फ्री-फ्री” का उदघोष किया है
जनता को कतई निकम्मा व नाकारा बना दिया है
राम और कृष्ण के आदर्श को भुला दिया है
“बांटो व राज करो” का विमर्श अपना लिया है
ना-ना वाद उगाकर ना-ना विवाद वरपा दिये हैं
अवसरवादी राजनीत से देशद्रोही स्वर पनपा दिये हैं
जनता की अपेक्षाओं को नेताओं ने खूब भड़काया है
किन्तु उन्हे पूरा करने का नहीं कोई रास्ता दिया है
आज अपनी इच्छाओं के बोझ तले जनता लचर व लाचार है
हालात ऐसे हैं बिगड़े कि जनता अब खुद से ही शर्मसार है
पिट-पिट कर जनता की हो गई मोटी खाल है
लेकिन छोड़ती ही नहीं वह अपनी भेड़ा चाल है।