जसविंदर उर्फ़ जैज कॉलेज की परीक्षा में फेल होने का जश्न मनाने लंदन से एमस्टडर्म जाता है। वहां एक लड़की के साथ वन नाइट स्टैंड के बाद लौट आता है। कई साल बाद जैज चालीस का हो जाता है तो एक लड़की आकर उसे बताती है कि वह उसका ‘जैविक पिता’ है। जैज के लिए ये अनपेक्षित है क्योंकि बीस साल पहले जिस लड़की से वह चंद घंटे के लिए मिला था, उसकी सूरत भी उसे ठीक से याद नहीं है। ये स्टोरी लाइन है सैफ अली खान की नई फिल्म ‘जवानी-जानेमन’ की। शुक्रवार को फिल्म प्रदर्शित होने के बाद जो रिव्यू आए, वे एक आम भारतीय दर्शक की पाचन शक्ति को चुनौती देते प्रतीत हो रहे हैं। यदि आप एक सुसंस्कृत भारतीय दर्शक हैं तो इसे देखकर कुछ समय के लिए सिनेमा से आपको अरुचि हो सकती है।
जसविंदर उर्फ़ जैज के लिए जिंदगी के माने केवल शराब, लेट नाइट पार्टी और खूबसूरत लड़कियां हैं। एक रात पब में जैज को टिया मिलती है, जो उसे बताती है कि वह उसका पिता हो सकता है। डीएनए टेस्ट के बाद ये सिद्ध हो जाता है कि जैज ही टिया का पिता है और खुद टिया भी गर्भवती है और अपने प्रेमी को छोड़ चुकी है। यानी जैज एक ही झटके में पिता के साथ नाना भी बन जाता है। जैज के लिए ये स्वीकार करना मुश्किल है कि उसकी अखंड बैचलर लाइफ एक झटके में खंड-खंड हो चुकी है। टिया अपने बच्चे को जैज की देखभाल में जन्म देना चाहती है। एक दिन एम्सटडर्म से टिया की माँ लंदन आती है तो पता चलता है कि वह तो चरसी है।
फिल्म निर्देशक नितिन कक्कड़ की फिल्म ‘जवानी-जानेमन’ किसी हॉलीवुड की फिल्म की नकल लगती है, जो पश्चिमी समाज की समस्याओं को रेखांकित करती है। निश्चित रूप से उस समाज में ये कल्चर आम है कि माँ अविवाहित हो और बेटी भी अविवाहित ही माँ बनने का निर्णय ले। अमेरिकी समाज में संयुक्त परिवार जैसी कोई अवधारणा नहीं है। वहां आमतौर पर चौदह-पंद्रह की आयु में बच्चे घर छोड़ देते हैं। उस कल्चर को एक हिन्दी फिल्म में एडॉप्ट कर ये फिल्म बना दी गई है, जिसके किरदार तो भारतीय हैं लेकिन ज़िंदगी पश्चिम वाली जी रहे हैं। शायद निर्देशक को ये पता न हो कि वास्तविक धरातल पर देखे तो विदेश में बसे भारतीयों में ऐसे किरदार बहुत कम मिलते हैं, जो नितिन कक्क्ड़ की फिल्म में दिखाए गए किरदारों से मेल खाते हो।
मौजूदा दौर में दर्शकों की पसंद और ट्रेंड बिलकुल ही बदले हुए हैं और ‘जवानी-जानेमन’ जैसी फिल्मों को ये ट्रेंड सपोर्ट नहीं करता है। बाहुबली की परम्परा को मणिकर्णिका ने आगे बढ़ाया और हालिया फिल्म तानाजी ने उसे और समृद्ध किया है। दर्शक अब अपनी फिल्मों में सम्पूर्ण भारतीयता देखना चाहता है। इस भारतीयता के दर्शन सैफ अली खान की फिल्म में नहीं होते। विदेश में बसे अप्रवासी भारतीयों पर कई उत्कृष्ट फिल्मों का निर्माण हुआ है। पुरानी फिल्मों को छोड़ दे तो कुछ साल पूर्व अक्षय कुमार की ‘नमस्ते लंदन’ का उल्लेख ही काफी है। जवानी-जानेमन में जिस विषय पर फोकस किया गया है, वह विषय भारतीयों के लिए बहुत नया है। अभी हमारे यहाँ ऐसी संस्कृति विकसित नहीं हुई कि बीस साल बाद बेटी को पिता और माँ का परिचय करवाना पड़े, क्योंकि उस रात वाइन के नशे में गाफिल दोनों टेम्परेरी प्रेमियों ने एक दूजे को जी भर देखा भी नहीं था।
सैफ अली खान हमेशा की तरह अपने किरदार में डूबे दिखाई दिए हैं। उन्होंने अच्छा अभिनय किया है लेकिन जब तीर गलत दिशा में चला दिया जाए तो कुछ हासिल नहीं होता। ये कहानी भारतीय कल्चर में पिरोकर पेश की जाती तो बॉक्स ऑफिस पर बेहतर परिणाम आ सकते थे। जैसे सन 1992 में प्रदर्शित हुई ‘वंश’ फिल्म कुछ ऐसी ही थीम पर थी। एक ही पिता की दो पत्नियों से पैदा हुई दो संतानों के संघर्ष की कहानी दर्शकों को बड़ी पसंद आई थी। जवानी-जानेमन एक पिता-पुत्री के पनपते रिश्ते पर फोकस की गई है। कैसे जैज पिता बनने के अनुभव से गुजरता है और कैसे उसे अपनी ढलती उम्र का अहसास होता है, यह दिखाने में निर्देशक लगभग कामयाब रहे हैं लेकिन अड़चन एक ही है कि निर्देशक ने कहानी को पाश्चात्य ढंग में ढाल कर कहानी की भावुकता खत्म कर दी।
नितिन कक्कड़ की ये फिल्म एक अमेरिकन पिज्जा है, जिस पर देसी टॉपिंग्स बुरक कर दर्शकों को परोस दिया गया है। परिवार के साथ क्या इसे तो अकेले भी नहीं देखा जाना चाहिए। इन दिनों बॉक्स ऑफिस का वातावरण ‘पूड़ी-सब्जी’ वाला हो रखा है। तानाजी की अविस्मरणीय सफलता ने ट्रेंड बदल दिया है। जब किसी फिल्म की बड़ी लहर चलती है तो ‘छपाक’ जैसी सामाजिक विषय वाली फ़िल्में भी बह जाती है। फिर ‘जवानी-जानेमन’ तो उसके सामने बहुत कमज़ोर फिल्म है। तानाजी का युद्ध अब तक जारी है। छपाक से लेकर ‘जय मम्मी दी’, स्ट्रीट डांसर और पंगा ने तानाजी के आगे घुटने टेक दिए। इस शुक्रवार को तानाजी ने ‘जवानी-जानेमन’ का शिकार कर लिया।