सुप्रसिद्ध लेखक डॉ. शैलेन्द्र कुमार के गहन शोध पर आधारित जिहाद, मतांतरण और झारखंड श्रृंखला का यह दूसरा भाग है। प्रथम भाग पाठक इस लिंक से पढ़ सकते हैं।
भाग 1 से आगे…….
सारिणी 3 : झारखंड के जिले — मुसलमान प्रतिशत में — 2011
जिला | मुसलमान | |
1 | पाकुड़ | 35.87 |
2 | साहिबगंज | 34.61 |
3 | गोड्डा | 22.02 |
4 | जामताड़ा | 20.78 |
5 | गिरिडीह | 20.80 |
6 | लोहरदग्गा | 20.57 |
7 | देवघर | 20.28 |
8 | हजारीबाग | 16.21 |
9 | धनबाद | 16.08 |
10 | कोडरमा | 14.94 |
11 | गढ़वा | 14.72 |
12 | राँची | 14.09 |
13 | रामगढ़ | 13.59 |
14 | पलामू | 12.28 |
15 | बोकारो | 11.71 |
16 | चतरा | 11.19 |
17 | लातेहार | 9.60 |
18 | पूर्वी सिंहभूम | 8.89 |
19 | दुमका | 8.09 |
20 | सराइकेला खरसावाँ | 5.97 |
21 | गुमला | 5.02 |
22 | पश्चिमी सिंहभूम | 2.54 |
23 | सिमडेगा | 2.52 |
24 | खूँटी | 2.47 |
स्रोत : बजाज ( 2015 )
सामान्यतया भारत के मुसलमानों की संख्या के तीव्र गति से बढ़ने के तीन कारण माने जाते हैं । पहला कारण है उच्च जन्म दर । इसका अर्थ होता है जन्म देने वाली एक महिला कितने बच्चों को जन्म दे सकती है । इसे ही ‘ कुल प्रजनन दर ’ भी कहा जाता है । भारत सहित सारे विश्व में औसतन मुसलमान महिलाओं की कुल प्रजनन दर सर्वाधिक है । अतः मुसलमानों की संख्या में होने वाली वृद्धि के लिए उच्च प्रजनन दर सर्वाधिक उत्तरदायी कारक है । झारखंड भी इसका अपवाद नहीं है और यही कारण है कि यहाँ मुसलमानों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है । दूसरा कारण है बांग्लादेशियों की घुसपैठ ।
जिन सात जिलों में मुसलमानों का अनुपात 20 प्रतिशत से अधिक है, उनमें लोहरदग्गा को छोड़कर शेष सभी छह जिले पश्चिम बंगाल की सीमा से सटे हुए हैं । विशेषकर साहिबगंज, पाकुड़, दुमका और जामताड़ा तो बहुत ही निकट हैं । पर गिरिडीह और देवघर भी बहुत दूर नहीं हैं । साहिबगंज और पाकुड़ की स्थिति ऐसी है कि ये दोनों जिले पश्चिम बंगाल के दो जिलों — मालदा और मुर्शिदाबाद से सटे हुए हैं । ध्यातव्य है कि मालदा और मुर्शिदाबाद दोनों ही मुसलमान-बहुल जिले हैं और जहाँ मालदा में मुसलमान 51.27 प्रतिशत हैं, वहीं मुर्शिदाबाद में 66.27 प्रतिशत हैं। संयोगवश पूरे पश्चिम बंगाल में इन दो जिलों में मुसलमानों का अनुपात सर्वाधिक है । और सबसे बड़ी बात यह है कि झारखंड के दो जिलों — पाकुड़ एवं साहिबगंज और बांग्लादेश के बीच मालदा और मुर्शिदाबाद से गुजरने वाली एक पतली-सी पट्टी है । इसलिए बिना अधिक परेशानी के बांग्लादेशी झारखंड के इन जिलों में घुसपैठ कर सकते हैं ।
यह इस बात से भी स्पष्ट है कि जैसे-जैसे हम झारखंड के उन क्षेत्रों में जाते हैं, जो बांग्लादेश से दूर हैं, तो वैसे-वैसे मुसलमानों के अनुपात में कमी आने लगती है । इस प्रकार संथाल परगना क्षेत्र में मुसलमानों के अनुपात में जिस प्रकार की अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है उसका कारण मात्र उच्च जन्म दर न होकर बांग्लादेशी घुसपैठ भी है और मुसलमानों के अनुपात को इतना अधिक बढ़ाने में घुसपैठ कहीं बड़ा कारण है । तीसरा कारण है मतांतरण । वैसे मुसलमानों के मामले में मतांतरण थोड़ी दूर की कौड़ी है, क्योंकि मतांतरण के लिए जिस प्रकार के धैर्य की आवश्यकता होती है वह मुसलमानों में नहीं है । फिर भी वे ‘ दीन की दावत ’ देते रहते हैं और कभी-कभी कोई जाल में फँस जाता है, विशेषकर वनवासी समाज के लोग । साथ ही, लव जिहाद जैसे तरीकों से भी कुछ लोग फँस जाते हैं । वैसे मतांतरण से मुसलमानों की संख्या में कोई उल्लेखनीय बढ़ोतरी नहीं होती, परंतु इसे हल्के में भी नहीं लिया जा सकता । वास्तव में भारत में पिछले दो-तीन सौ सालों से मुसलमानों की संख्या में जो भी वृद्धि हुई है, उसका सर्वप्रमुख कारण उच्च जन्म दर ही है । बड़े पैमाने पर मतांतरण तो औरंगजेब के मरते ही अत्यंत धीमा पड़ गया ।
अब देखिए कि ईसाइयों के अनुपात में क्या परिवर्तन हुआ है । वर्ष 1951 में ईसाई 4.12 प्रतिशत थे, परंतु 2011 में बढ़कर 4.3 प्रतिशत पर पहुँच गए । किंतु 1981 और 1991 में ईसाइयों के प्रतिशत में गिरावट देखी गई । फिर भी कुल मिलाकर देखा जाए, तो पिछले छह दशकों में ईसाइयों का अनुपात बढ़ा ही है । सारिणी 4 के आँकड़ों के अनुसार पलामू क्षेत्र में 1951 से 2011 के बीच ईसाइयों का प्रतिशत 1.39 से बढ़कर 1.78 पर पहुँचा । वहीं हजारीबाग-धनबाद में 0.53 से बढ़कर 0.62 प्रतिशत और सिंहभूम में 1.75 से 2.59 प्रतिशत पर पहुँचा । परंतु संथाल परगना में ईसाइयों के अनुपात में सर्वाधिक और अविश्वसनीय रूप से वृद्धि हुई । यहाँ ईसाइयों का अनुपात मात्र 0.18 प्रतिशत से छलाँग लगाकर 4.21 प्रतिशत पर पहुँच गया । इसका अर्थ यह है कि छह दशकों में 23 गुना से अधिक की वृद्धि हुई । चाहे जन्म दर कितनी भी ऊँची क्यों न हो, जनसंख्या में इस प्रकार की वृद्धि संभव नहीं है । इसलिए हमें इस गुत्थी पर अलग से विचार करना होगा ।
हाँ, राँची अवश्य एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहाँ ईसाइयों के अनुपात गिरावट देखी गई । यहाँ छह दशकों में ईसाइयों का अनुपात 18.24 प्रतिशत से गिरकर 15.48 प्रतिशत पर आ गया । परंतु, जैसा कि बजाज बताते हैं कि, झारखंड में सर्वाधिक ईसाई राँची क्षेत्र में ही हैं । राज्य के 14 लाख ईसाइयों में से 8.4 लाख या 60 प्रतिशत ईसाई इसी क्षेत्र में रहते हैं । जैसा कि पहले ही बताया गया है कि इस क्षेत्र में ईसाइयों का अनुपात 1951 से निरंतर घटता रहा है । अपवादस्वरूप केवल 2011 में इस हिस्से में तनिक बढ़ोतरी देखी गई । किंतु, बजाज का सुझाव है कि इसका अर्थ यह नहीं है कि ईसाइयों की वृद्धि दर में कोई कमी आई थी, वरन वास्तविक कारण यह है कि यहाँ मुसलमानों का हिस्सा लगातार और अधिक तेजी से बढ़ा । और जो थोड़ी-सी बढ़ोतरी 2011 में दिखाई दी, उसका कारण भी यही है कि 2011 में मुसलमानों के हिस्से में हो रही बढ़ोतरी में थोड़ी कमी आई । इस प्रकार वास्तव में मुसलमानों और ईसाइयों के बीच ही जनसख्या बढ़ाने की होड़ लगी है । हिन्दू और वनवासी समाज को तो केवल और केवल खोना ही है । राँची क्षेत्र में सर्वाधिक ईसाई सिमडेगा ( 51% ), खूँटी ( 25.7% ) और गुमला ( 19.8% ) में हैं । सिमडेगा, झारखंड का ईसाई-बहुल जिला है और इसे हम झारखंड का वैटिकन कह सकते हैं ।
संथाल परगना दूसरा ऐसा क्षेत्र है, जहाँ राँची क्षेत्र के बाद सर्वाधिक ईसाई हैं । राँची क्षेत्र के विपरीत यहाँ ईसाइयों का हिस्सा बढ़ता रहा है । ईसाइयों के हिस्से में सर्वाधिक बढ़ोतरी 1991 के बाद देखी गई । 1991 से 2001 के बीच इस क्षेत्र में ईसाइयों का हिस्सा 1.68 प्रतिशत से बढ़कर 3.24 प्रतिशत हो गया और जो 2011 में 4.21 प्रतिशत पर पहुँच गया । यहाँ ध्यातव्य है कि 1951 में संथाल परगना में संभवतः एक भी ईसाई नहीं था । संथाल परगना में सर्वाधिक ईसाई साहिबगंज, पाकुड़ और दुमका में हैं, जहाँ संयोगवश मुसलमानों का हिस्सा भी लगभग सर्वाधिक है । संथाल परगना के बाद सिंहभूम क्षेत्र में भी ईसाइयों के हिस्से में पर्याप्त बढ़ोतरी देखी जा सकती है । यहाँ 2001 और 2011 के बीच ईसाइयों का अनुपात 2.41 प्रतिशत से बढ़कर 2.59 प्रतिशत हो गया । इस क्षेत्र के एक जिले — पश्चिमी सिंहभूम में तो ईसाई 5.83 प्रतिशत पर पहुँच गए हैं ।
सारिणी 4 : झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में ईसाई ( प्रतिशत में ), 1951-2011
पलामू | हजारीबाग-धनबाद | संथाल परगना | राँची | सिंहभूम | |
1951 | 1.39 | 0.53 | 0.18 | 18.24 | 1.75 |
1961 | 1.67 | 0.34 | 1.14 | 17.71 | 2.07 |
1971 | 1.79 | 0.59 | 1.55 | 17.70 | 2.23 |
1981 | 1.88 | 0.53 | 1.64 | 16.57 | 2.26 |
1991 | 1.76 | 0.57 | 1.68 | 15.71 | 2.18 |
2001 | 1.91 | 0.63 | 3.24 | 15.42 | 2.41 |
2011 | 1.78 | 0.62 | 4.21 | 15.48 | 2.59 |
स्रोत : बजाज ( 2015 )
सारिणी 5 के आँकड़े हमें बताते हैं कि पिछले दो दशकों में सभी संप्रदायों की तुलना में ईसाइयों की वृद्धि दर किस प्रकार बढ़ी है । उदाहरण के लिए, जहाँ पूरे झारखंड में 1991-2001 के बीच सभी संप्रदायों की वृद्धि दर 23.24 प्रतिशत रही, वहीं ईसाइयों की वृद्धि दर 34.53 प्रतिशत रही । अर्थात ईसाइयों की वृद्धि दर 11.29 प्रतिशत अंक अधिक रही । परंतु जब हम 2001-2011 के बीच की तुलना करते हैं, तो यह अंतर घटकर 7.32 प्रतिशत अंक हो जाता है । अभिप्राय यह कि दोनों ही दशकों में ईसाइयों की वृद्धि दर सभी संप्रदायों की तुलना में अधिक रही । किंतु पहले दशक में यह वृद्धि दर दूसरे दशक की तुलना में अधिक रही । तात्पर्य यह कि दूसरे दशक में सभी संप्रदायों और ईसाइयों के बीच की वृद्धि दर थोड़ा निकट आई है । फिर भी यह अंतर अभी बहुत अधिक है और इसलिए अस्वीकार्य है । अब देखिए कि झारखंड के अलग-अलग क्षेत्रों में सभी संप्रदायों और ईसाइयों के बीच वृद्धि दर का क्या संबंध है ?
सिंहभूम क्षेत्र में जहाँ 1991-2001 में सभी संप्रदायों की वृद्धि दर रही 19.55 प्रतिशत, वहीं ईसाइयों की वृद्धि दर रही 32.07 प्रतिशत । अर्थात दोनों की वृद्धि दर के बीच अंतर रहा 12.52 प्रतिशत अंक का । इसका अर्थ यह हुआ कि ईसाइयों की वृद्धि दर सभी संप्रदायों की तुलना में बहुत तीव्र गति से बढ़ी । अगले दशक — 2001-2011 में यह अंतर आ जाता है 9.13 पर । इसका अर्थ यह हुआ कि दोनों दशकों में ईसाइयों की वृद्धि दर सभी संप्रदायों की तुलना में बहुत अधिक तेजी से बढ़ी । परंतु देखिए कि संथाल परगना में 1991-2001 के बीच जहाँ सभी संप्रदायों की वृद्धि दर 22.03 प्रतिशत रही, वहीं ईसाइयों की वृद्धि दर रही 136.1 प्रतिशत । यह सामान्य स्थिति नहीं है, क्योंकि ऐसी वृद्धि दर संभव नहीं है । चाहे कितनी भी ऊँची जन्म दर क्यों न हो, वर्तमान युग में दशकीय वृद्धि दर 136.1 प्रतिशत पर नहीं पहुँच सकती । भारत में 1951 से लेकर 2011 तक सर्वाधिक दशकीय वृद्धि दर रही 1961-71 में जब यह 24.8 प्रतिशत पर पहुँची और उसके बाद से निरंतर नीचे आती गई है ।
स्पष्ट है कि इस अभूतपूर्व वृद्धि दर के अन्य कारण होंगे। अब देखिए कि दूसरे दशक में सभी संप्रदायों ( 24.4% ) की तुलना में ईसाइयों की वृद्धि दर थी 61.7 प्रतिशत । वैसे तो 61.7 प्रतिशत की वृद्धि दर भी असंभव-सी है, परंतु यह 136.1 प्रतिशत से आधे से भी कम है । इस प्रकार वृद्धि दर की गति में कमी आई । किंतु इसने खेल तो पहले ही बिगाड़ दिया । इसका कितना भयंकर दुष्परिणाम हो सकता है उसे समझिए । यदि मान लें कि ईसाइयों की संख्या थी 100, तो पहले दशक में यह बढ़कर हो गई 236 और दूसरे दशक में जबकि वृद्धि दर आधी से कम हो गई, फिर भी उसमें बढ़ोतरी हुई 146 की । अब देखिए कि दो ही दशकों में कुल बढ़ोतरी हुई 236+146 = 382 की अर्थात लगभग चार गुनी बढ़ोतरी । चाहे जितनी भी धीमी गति से वृद्धि हो, अब आगे ईसाइयों की संख्या तेज गति से बढ़ती जाएगी । पूर्वोत्तर भारत में ऐसा ही हुआ है, जहाँ दो-तीन पीढ़ियों में ही सर्वत्र ईसाई-ईसाई ही हो गए । इसका मूलभूत कारण मतांतरण है ।…………… क्रमशः अगले भाग में