डॉ शैलेन्द्र कुमार के गहन शोध पर आधारित जिहाद, मतांतरण और झारखंड श्रृंखला का यह चौथा और अंतिम भाग है। पिछले तीनों भाग इस लिंक से पढ़े जा सकते हैं। भाग-3 से क्रमशः
केशरी नाथ सहाय ने वनवासी समाज पर विशद अध्ययन किया है । सहाय भारत के वनवासी समाज को भारतीय सभ्यता का एक आयाम मानते हैं । वह लिखते हैं कि भारत सरकार अधिनियम 1919 और 1935 के द्वारा वनवासी समाज वाले क्षेत्रों को सामान्य क्षेत्रों से पृथक कर दिया गया, जिसने स्वभावत: पृथकतावाद को जन्म दिया । आश्चर्य की बात तो यह है कि इन कानूनों पर केंद्रीय या राज्य की विधायिका कोई कानून नहीं बना सकती थी । सहाय आगे लिखते हैं कि ईसाई शासकों के साथ ही इस राज्य में ईसावाद आया । यह विचित्र स्थिति थी । अब वनवासी समाज के दो हिस्से हो गए — वनवासी और ईसाई वनवासी । इस प्रकार पृथक क्षेत्र और मतांतरण के कारण ही वनवासी की पृथक पहचान बनी । यहाँ ध्यातव्य है कि हमारे शास्त्रों में वनवासी को कोई पृथक समाज नहीं माना गया है ।
अब वनवासी समाज द्वारा मतांतरण और तज्जनित हानि के विरुद्ध आवाज उठाई जा रही है ।
योगेश्वर शर्मा लिखते हैं कि अनुसूचित जनजाति सुरक्षा मंच ने अब मतांतरण के खिलाफ हल्ला बोलना शुरू कर दिया है । मतांतरण को राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनाने की दिशा में जोर-शोर से आंदोलन की शुरुआत कर दी है । मंच का मानना है कि मतांतरित होने वाले वनवासियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए । अपने धर्म व समाज के प्रति विश्वसनीय न रहने वाले लोगों के कारण समाज की मुख्यधारा के साथ जुड़े रहने वाले युवाओं को आरक्षण की सुविधा से वंचित होना पड़ रहा है । मतांतरित आरक्षण की सुविधा का लाभ ले रहे हैं और समाज की युवा पीढ़ी को भरमाने का काम भी कर रहे हैं ।
गौतम लिखते हैं कि यदि आप झारखंड जाएँ, तो राज्य के कोने-कोने में आपको उजला और लाल रंग का झंडा बहुतायत में दिखेगा । यह झंडा झारखंड में लगभग 27 प्रतिशत आबादी वाले वनवासी अथवा जनजातीय समुदाय का प्रतीक चिह्न है, जिसे सरना झंडा कहा जाता है। ‘सरना ’ वनवासियों के पूजा स्थल को भी कहा जाता है, जहाँ वे अपनी मान्यताओं के अनुसार विभिन्न त्यौहारों के अवसरों पर एकत्रित होकर पूजा-अर्चना करते हैं । वस्तुतः वनवासी समाज प्रकृति पूजक है । किंतु पिछले कई दशकों से वनवासी समाज को ‘आदिवासी ’ कहकर प्रचारित किया जा रहा है, जिसका उद्देश्य है कि वे शेष हिंदुओं से पृथक हैं । वनवासियों का एक वर्ग अब ‘ सरना कोड बिल ’ की माँग कर रहा है, जिससे वनवासी समाज को पृथक धर्म का दर्जा प्राप्त हो, जिसे उन्होंने ‘ सरना धर्म ’ कहा है ।
गौतम आगे लिखते हैं कि यदि हम वनवासियों के नाम पर प्रचारित किए जा रहे सरना धर्म की माँग पर ध्यान दें, तो जिस हिन्दू धर्म से वे अपने आपको पृथक बता रहे हैं, उसमें जो अनेक पूजा-पद्धतियाँ हैं, उनमें एक प्रकृति पूजा भी है । वट सावित्री का व्रत, जिसमें बरगद के पेड़ को पूजा जाता है, भारत में बड़े पैमाने पर मनाया जाता है । जिस प्रकार वनवासी प्रकृति के प्रतीकों को पूजते हैं अधिकतर हिन्दू भी वैसा ही करते हैं । अभिप्राय यह कि पूजा-पद्धतियों की विभिन्नता किसी को ‘ अहिंन्दू ’ नहीं ठहरा सकती । अतः सरना कोड की माँग न केवल अनुचित है, वरन वनवासी समाज को तोड़ने का षड्यंत्र भी है, जिसके पीछे ईसाई मिशनरियों का भी दिमाग है । इस षड्यंत्र की शुरुआत वनवासियों को आदिवासी कहने से शुरू हुई । वनवासी कहने पर वनवासी समाज को आत्मगौरव होता है । लेकिन आदिवासी कहने से वनवासियों की अपनी कोई पहचान नहीं बनती है । क्योंकि उनका अस्तित्व जिस वन से पृथक हुआ है आदिवासी कहने पर उसका कोई लक्षण प्रकट नहीं होता ।
लेकिन वनवासियों को हिन्दू समाज से अलग-थलग दिखाने की मुहिम को अंततः अलग धर्म तक ले जाना है, इसलिए झारखंड की सरकार ने विधानसभा में ‘ सरना आदिवासी धर्म कोड बिल ’ को सर्वसम्मति से पारित करवाकर केंद्र सरकार के पास भेज दिया । पिछले दो वर्षों से केंद्र सरकार ने इस बिल पर कोई निर्णय नहीं लिया है । ऐसा लगता है कि वनवासियों की धार्मिक स्वतंत्रता तथा सांस्कृतिक विरासत को बचाने के नाम पर यह सारी राजनीति मात्र भारतीय समाज की सांस्कृतिक एकता को निर्बल करने के लिए हो रही है । ऐसी कई प्रथाएँ हैं, जिन्हें वनवासी समाज तो मानता है, किंतु वे कानून के रूप में स्वीकार्य नहीं हैं, जिनमें बहुविवाह प्रमुख है । इसके इतर संपत्ति हस्तांतरण, उत्तराधिकार आदि जैसे नियम भी भिन्न हैं । गौतम आगे लिखते हैं कि देश की 700 से अधिक जनजातियों के विकास के लिए संविधान में आरक्षण सहित अन्य सुविधाओं का प्रावधान किया गया था । आज इन सुविधाओं का लाभ जनजातियों की आड़ में वे लोग उठा रहे हैं, जो अपनी जाति छोड़कर ईसाई बन चुके हैं । ऐसा करके मतांतरित लोग मूल जनजातियों का अधिकार छीन रहे हैं । वनवासी समाज के हितैषी सांसदों द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 235 सांसदों का हस्ताक्षर सहित ज्ञापन देकर इस संदर्भ में कानून बनाए जाने के लिए संसद में भी प्रयास किया गया था । 1970 में डॉ कार्तिक उराँव ने लोकसभा में 348 सांसदों के हस्ताक्षर से इस विसंगति के विरोध में प्रस्ताव रखा था । यदि उराँव का यह प्रस्ताव मान लिया जाता, तो मतांतरण माफिया स्वतः ही समाप्त हो जाता । परंतु यह समस्या आज भी यथावत बनी हुई है । वनवासी समाज के कुछ लोग राजनीतिक लाभ तथा धन के लालच में आकर मोहम्मदवाद या ईसावाद को अपना लेते हैं और बाद में दोहरा लाभ लेकर वनवासी समाज का ही शोषण करते हैं ।
इस समस्या के मूल में जाते हुए गौतम लिखते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 341 एवं 342 में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अखिल भारतीय राज्यवार आरक्षण तथा संरक्षण की व्यवस्था की गई थी । सूची जारी करते समय मतांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जनजाति में तो शामिल नहीं किया गया था, किंतु अनुसूचित जनजातियों से मतांतरित होने वालों को इस सूची से बाहर नहीं किया गया, जो आज बड़ी विसंगति बन गया है । इस बारे में समाचारपत्र दैनिक भास्कर लिखता है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सूचियाँ अंतिम बार 1950 में जारी हुई थीं, जबकि उसके बाद बड़े पैमाने पर जनजाति वर्ग ने अपना मतांतरण कर लिया है । जनजाति समाज सुरक्षा मंच का कहना है कि वह तब तक संघर्ष करेगा, जब तक मतांतरित ईसाइयों और मुसलमानों को अनुसूचित जनजाति की पात्रता और परिभाषा से बाहर नहीं निकाल दिया जाता । इस कारण, गौतम जोड़ते हैं कि, हमारे समाज में आरक्षण की मूल भावना व आत्मा नष्ट हो रही है । देश के एक बड़े वनवासी समुदाय की भावनाओं को भड़काकर देश को अस्थिर करने का जो प्रयत्न किया जा रहा है, उससे वनवासी समाज को बचाने की आवश्यकता है । यह अकारण नहीं है कि पिछले कई महीनों से मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में जनजाति सुरक्षा मंच के तत्वावधान में बड़ी-बड़ी रैलियाँ आयोजित हो रही हैं, जिनमें सरकार से ‘ डीलिस्टिंग ’ की माँग की जा रही है । अर्थात ऐसे वनवासी जो मतांतरित हो गए हैं, उन्हें वनवासी समाज से अलग किया जा सके, ताकि वंचित, कमजोर तथा वास्तविक वनवासी समाज को उसका संवैधानिक अधिकार प्राप्त हो सके ।
समाचारपत्र दैनिक भास्कर बैतूल में वनवासी सुरक्षा मंच द्वारा आयोजित एक सम्मेलन का ब्यौरा देते हुए लिखता है कि मतांतरित वनवासी आरक्षण और राजनीतिक पदों पर चुनाव लड़कर वास्तविक वनवासियों के अधिकारों का हनन कर रहे हैं । आयोजकों के अनुसार रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सभी क्षेत्रों पर मतांतरित वनवासियों का कब्जा लगातार बढ़ रहा है । इसे रोका नहीं गया, तो आने वाले समय में मूल वनवासी पिछड़ जाएँगे । सारे प्रशासनिक और राजनीतिक पदों पर मतांतरित और नकली वनवासियों का कब्जा रहेगा । मंच इसी की डीलिस्टिंग की माँग कर रहा है । यह भी कहा गया कि जिन लोगों ने अपनी पूजा-पद्धति, मत, विश्वास और वनवासी परंपराओं को त्याग दिया है, उन्हें अब वनवासी आरक्षण से बाहर किया जाए । मिशनरियों और जिहादी संगठनों द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वनवासी परिवारों का मतांतरण जोरों पर किया जा रहा है । ऐसे मतांतरित परिवार अल्पसंख्यक और जनजाति समुदाय को मिलने वाले दोहरा लाभ ले रहे हैं, जो कि अनुचित है । इसके कारण वास्तविक जनजातीय परिवारों को संवैधानिक संरक्षण, आरक्षण आदि का लाभ नहीं मिल पा रहा है । अतः प्रकृति पूजक जनजातीय समाज की प्राचीन संस्कृति को बचाने के लिए मातंतरित वनवासियों की डीलिस्टिंग अत्यंत आवश्यक है ।
अब यह भी देखिए कि किस प्रकार वनवासी समाज हिन्दू धर्म से प्राचीन काल से ही जुड़ा रहा है । जैसे हिन्दू धर्म में गोत्र होता है, ठीक वैसे ही वनवासी समाज में भी गोत्र की प्रथा है । इस संदर्भ में समाचारपत्र नई दुनिया लिखता है कि उराँव समाज की अपनी संस्कृति, परंपरा, बोली और गौरवशाली इतिहास है । इस समाज की विशेषता यह भी है कि यह अपना गोत्र परंपरागत रूप से वृक्षों, लताओं, पशुओं आदि के नाम पर रखता है । वैवाहिक संबंध स्थापित करने में गोत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इस समाज में सगोत्रीय विवाह नहीं किया जाता है । उराँव समाज के जो गोत्र हैं, उनमें केरकेट्टा, किंडो, कुजूर, टोप्पो, मिंज, तिर्की, पन्ना, खलखो, खेस, किसपोट्टा, बेक आदि प्रमुख हैं । यदि इन गोत्रों का शाब्दिक अर्थ जाना जाए, तो हमें पता चलेगा कि सभी गोत्र किसी-न-किसी लता, वृक्ष व पशु से जुड़े हैं । मान्यता है कि विभिन्न शुभ अवसरों पर, जैसे पूजा, त्यौहार, अनुष्ठान, शुभ कार्य आदि, इस समाज में अपने गोत्र का उच्चारण किया जाता है । परंतु इसे उराँव समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इसका अधिकांश ईसाई बन गया है । मैं स्वयं उराँव समाज के अनेक लोगों को जानता हूँ, जो निरपवाद रूप से ईसाई हैं ।
वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि वनवासी समाज शुरू से ही अपनी परंपरा और संस्कृति की रक्षा को लेकर संघर्षरात रहा है । लेकिन उनकी आशिक्षा, गरीबी और भोलेपन का अनुचित लाभ उठाते हुए तरह-तरह के प्रलोभन देकर उनका मतांतरण कराया जाता रहा है । जबकि कई वनवासी समूह ऐसे हैं, जिन्होंने कभी भी अपनी पहचान और सनातन संस्कारों से समझौता नहीं किया और उनके सामने मतांतरण की साजिश रचने वालों के दाँव उल्टे पड़े । गोंड वनवासी भी इन्हीं में एक हैं । झारखंड के ईसाई-बहुल सिमडेगा जिले में बड़े पैमाने पर वनवासियों का मतांतरण हुआ है । परंतु यहाँ भी गोंड समाज के लोगों की अपने धर्म, संस्कृति और परंपरा के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता रही है कि इस समुदाय के लोगों का मतांतरण करा पाना मिशनरियों के लिए अत्यंत कठिन रहा है । तमाम विपरीत परिस्थितियों और संघर्ष के बावजूद इस वनवासी समाज के लोग अपने पारंपरिक मूल्यों को संरक्षित रखने में सफल रहे हैं । सिमडेगा में पिछले लगभग 40 वर्षों की बात करें, तो गोंड वनवासियों में मतांतरण के गिने-चुने मामले ही सामने आए हैं । यदि कोई मतांतरित हुआ भी तो बाद में समाज के लोग उसे समझा-बुझाकर मूल धर्म में वापस ले आए । जिलेभर में 54 हजार गोंड वनवासियों के परिवार निवास करते हैं । स्वभाव से सीधे-सरल गोंड वनवासियों में सामाजिकता और सामूहिकता की भावना प्रबल है । इनकी पूजा-पद्धति, रीति-रिवाज और संस्कृति में सनातन परंपरा का स्पष्ट प्रभाव दिखता है । आरंभ से ही समाज के लोग महादेव को बड़ा देव के रूप में अपना आराध्य देव मानते हैं । गोंड समाज की भाषा-संस्कृति प्राचीन व समृद्ध हैं । समाज के लोग अपनी संस्कृति को लेकर गंभीर हैं । यही कारण है कि वे मतांतरित होने से बचे हैं । गोंड समाज को देखकर यही लगता है कि कुछ दायित्व वनवासी समाज का भी है, क्योंकि ईसाइयों के लिए वैटिकन कहे जाने वाले सिमडेगा में भी यदि यह समाज अपने-आप को सुरक्षित रखने में सफल रहता है, तो कोई कारण नहीं अन्य वनवासी समाज अपने-आप को सुरक्षित न रख पाएँ । बस थोड़े-से भौतिक सुख या लाभ के लिए वनवासी अपना धर्म और संस्कृति सदा के लिए मिटाने को तैयार हो जाते हैं ।
गोंड समाज के बाद यह भी देखिए कि कुछ वनवासी अपनी घर-वापसी भी कर रहे हैं । मुनेश्वर कुमार हमें बताते हैं कि मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित मकरोनिया नगरपालिका में पार्षद पद के प्रत्याशी ने घोषणा की है कि वह अपना मतांतरण कर रहा है । वह ईसाई से सनातन धर्म में प्रवेश कर रहा है । पार्षद प्रत्याशी विवीन टोप्पो ने हलफनामे में कहा है कि बचपन से मैं ईसावाद को मानता रहा हूँ । मेरे पूर्वज सनातन धर्म के अनुयायी थे । वे अनुसूचित जनजाति के गौड़ ठाकुर थे । मेरी हिन्दू धर्म में आस्था है । मैं आज भी हिन्दू धर्म का पालन करता हूँ । विवीन टोप्पो ने आगे कहा कि मैं हिन्दू धर्म के त्यौहारों और रीति-रिवाजों में भी विश्वास करता हूँ । इसलिए मैं ईसावाद को त्यागकर परिवार सहित अपने मूल धर्म में लौट रहा हूँ, बिना किसी लालच और भय के । उन्होंने यह भी कहा कि कुछ दिनों में मैं जिलाधिकारी को मतांतरण करने के लिए आवेदन देकर कानून प्रक्रिया पूरी कर दूँगा ।
उपरोक्त विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि झारखंड में जिस गति से ईसाई फैल रहे हैं, उसके लिए हमें क्रांतिकारी कदम उठाना होगा । डीलिस्टिंग जैसे कार्य तो अपरिहार्य हैं ही । हमें ईसाई विद्यालयों और अस्पतालों का पूर्ण बहिष्कार भी करना होगा, क्योंकि इनके माध्यम से न केवल मतांतरण होता है, वरन चर्च की कमाई का मुख्य स्त्रोत भी ये ही हैं । परंतु सर्वाधिक आवश्यक कार्य है घर-वापसी का । इस कदम को उठाए बिना हमारी खोयी जमीन वापस नहीं आ पाएगी । सुखद समाचार है कि आज देश में अनेक ईसाई ईसावाद को त्याग रहे हैं । साथ ही, हमें यह भी बताना चाहिए कि क्यों विकसित कहे जाने वाले देशों में ईसावाद छोड़ने की भगदड़ मची हुई है ।
इसी प्रकार के प्रयास मुसलमानों के लिए भी अपेक्षित हैं । उर्दू समाचारपत्र ‘ इनकलाब ’ को उद्धृत करते हुए राज किशोर एवं अशोक भारद्वाज लिखते हैं कि, ‘ मुसलमानों को अपने दिल से इस खौफ को दूर कर देना चाहिए कि वे अल्पसंख्यक हैं और उनके साथ जो जैसा चाहे वैसा सलूक कर सकता है। सच पूछिए तो मुसलमान हिंदुस्तान के दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक हैं ।” ( पृष्ठ 93 ) वैसे तो यहाँ संदर्भ है अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए स्वयं को दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक कहना, परंतु हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि हमें अपनी शब्दावली से मुसलमानों को अल्पसंख्यक मानने की बात हटा देनी चाहिए । हमें अपनी बातचीत, लेखन आदि में मुसलमानों को दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक ही कहना चाहिए । अल्पसंख्यक-बहुसंख्यकवाद शुद्ध रूप से एक विदेशी अवधारणा है और हमारे देश में इसकी कोई उपादेयता नहीं है । इस अवधारणा से हमारे देश को केवल और केवल हानि ही हुई है, क्योंकि यह पृथकतावाद की जननी है । अतः हमें इस वाद को अमान्य ठहरा देना चाहिए और मुसलमानों को दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक कहना चाहिए, ताकि अल्पसंख्यक के नाम पर दी जा रही सुविधाओं का औचित्य ही समाप्त हो जाए । इसके अतिरिक्त, जैसा कि “ बनावटी मुसलमान ” पुस्तक में बताया गया है, भारत में अधिकतर मुसलमान, मुसलमान न होकर मुनाफिकीन हैं । मुनाफिक ( बहुवचन — मुनाफिकीन ) उसे कहते हैं जो कहने को तो मुसलमान होता है, किंतु इस्लाम के अनेक कानूनों को नहीं मानता । जबकि इस्लाम ऐसी कोई ढील नहीं देता । इस प्रकार जो इस्लाम की दृष्टि में मुसलमान नहीं है, उसे मुसलमान के रूप में अल्पसंख्यक को दी जाने वाली विशेष सुविधाएँ लेने का कोई हक नहीं है । ऐसे मुनाफिकीन मदरसे, मस्जिद आदि नहीं बना सकते ।
मुसलमानों की घर-वापसी का भी प्रयास किया जाना चाहिए । संयोगवश भारत में एक्स-मुस्लिमों या पूर्व-मुसलमानों की संख्या जंगल की आग की तरह बढ़ रही है । इन पूर्व-मुसलमानों का समर्थन किया जाना चाहिए ।
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आलेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं । 9 अगस्त 2022
इस श्रृंखला का भाग-1 , भाग-2 , और भाग-3 यहाँ से पढ़े जा सकते हैं .
संदर्भ :
हिन्दी
राज किशोर एवं अशोक भारद्वाज ( सं ), “ मुसलमान क्या सोचते हैं,” वाणी प्रकाशन, 1995
डॉ. शैलेन्द्र कुमार, “ ईसावाद और पूर्वोत्तर भारत का सांस्कृतिक संहार,” गरुड़ प्रकाशन, 2021
डॉ. शैलेन्द्र कुमार, “ ईसावाद तथा औपनिवेशिक कानूनों के चक्रव्यूह में झारखंड,” सभ्यता अध्ययन केंद्र, 2022
डॉ. शैलेन्द्र कुमार, “ नामघर : असम की सांस्कृतिक क्रांति और शौर्यगाथा,” सभ्यता अध्ययन केंद्र, 2021
योगेश्वर शर्मा, “ अनुसूचित जनजाति सुरक्षा मंच की बढ़ने लगी सरगर्मी,” नई दुनिया, 21 मई 2022
सिद्धार्थ शंकर गौतम, “वनवासी समाज को हिंदुओं से अलग करके सरना धर्म की माँग और द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना, वनइंडिया, 26 जुलाई 2022
“ जनजाति महासम्मेलन में जुटे हजारों लोग: धर्मांतरण करवा चुके लोगों की डीलिस्टिंग करवाने की उठी माँग,” दैनिक भास्कर, अप्रैल 2022
“ जनजाति सुरक्षा मंच ने रैली निकाली: डीलिस्टिंग को लेकर कहा ‘ कंवर्टेड लोगों को आदिवासियों की सूची से बाहर किया जाए’,” दैनिक भास्कर, मई 2022
प्रो. रामेश्वर मिश्र ‘ पंकज ’, “ सच्चे मोमिनों का हक छीनते बनावटी मुसलमान : एक अराजक चुनौती,” सभ्यता अध्ययन केंद्र, 2021
वाचस्पति मिश्र, “ झारखंड के इस जिले में धर्म बदलना आसान नहीं … मतांतरण को मात दे रहा यह जनजाति समाज,” जागरण, 7 जून 2022
मुनेश्वर कुमार, “ मैं हिन्दू बनने जा रहा हूँ … निकाय चुनाव में वोटिंग से पहले बीजेपी के ईसाई प्रत्याशी का ऐलान,” नवभारत टाइम्स, 26 जून 2022
“ वृक्ष, लता और पशु, पक्षियों के नाम रखे जाते हैं गोत्र,” नई दुनिया, 4 जून 2014
अंग्रेजी
Dr. Amit Jha, “Contemporary Religious Institutions in Tribal India,” 2009.
Dr. J. K. Bajaj, “Religion Data of Census 2011 : Jharkhand and Reversal of the Imbalance,” IndiaFacts, 18 November 2015.
Keshari Nath Sahay, “Under the Shadow of the Cross : A Study of Nature and Processes of Christianisation Among the Uraon of Central India,” Institute of Social Research and Anthropology, 1976.
1 इस विषय में अधिक जानकारी के लिए जिज्ञासु देखें पुस्तक “ नामघर : असम की सांस्कृतिक क्रांति व शौर्यगाथा ”।
2 इस विषय पर विस्तार से जानने के लिए देखिए — “ ईसावाद और पूर्वोत्तर भारत का सांस्कृतिक संहार ” और “ ईसावाद और औपनिवेशिक कानूनों के चक्रव्यूह में झारखंड ”।