अंबा शंकर वाजपेयी। लगभग एक हजार साल पुरानी और विश्व भर बोली जाने वाली दूसरी बड़ी भाषा हिंदी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार हिंदी विश्व की दस सशक्त भाषाओं में सम्मिलित है। लेकिन यह गौरवशाली भाषा अपने ही देश में स्वयं को बौद्धिक वर्ग कहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों वर्ग के हाथों उपेक्षित हैं दरअसल मामला JNU के एक प्रोफ़ेसर से जुड़ा हुआ है जो कि दक्षिण भारतीय मूल की हैं और ‘हिंदी’ और उत्तर भारतीयों (विशेषकर ब्राह्मणवाद) के खिलाफ लामबंद हैं! हिंदी भाषा और भाषियों के प्रति अपनी कुंठा जाहिर करने के लिए उन्होंने अपने नेम प्लेट में हिंदी भाषा में लिखे नाम को काला कर दिया।
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में आधुनिक भारतीय इतिहास की यह वही प्रोफेसर हैं जो केंद्रीय मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण के बीजेपी में शामिल होने पर कह चुकी हैं कि “मैं नहीं जानती कि कैसे निर्मला सीतारमण ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक पार्टी बीजेपी में शामिल हो गयी”! आपको बताता चलूँ कि श्रीमती निर्मला सीतारमण इनकी JNU में बैचमेट, हॉस्टलमेट और पड़ोसी रह चुकी हैं। जब JNU जैसे प्रतिष्ठित संसथान के प्रोफेसर की मानसिकता इस तरह की है तो जरा सोचिये वह अपने विद्यार्थियों में ज्ञान का कौन सा बीज बोएंगे?
किसी देश को गुलाम बनाना हो उस देश की आस्था, संस्कृति, परंपरा, रीतिरिवाजों पर चोट करो जिससे उस देश की व्यवस्था हिल जाती है और यही कार्य विदेशी चंदे वाले NGO, वामपंथी, चर्च-मिशनरीज गिरोह कर रहा है। भारत की युवा नस्ल को मानसिक रूप से हिज़डा बना रहा है और मानसिक रूप से हिज़डा बनाने की प्रमुख कार्यशाला है JNU का सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज, सेकुलरिज्म के पैरोकारों और वामपंथी लेखकों और इतिहासकारों का गढ़!
एक तरफ जहाँ सोशल मीडिया के द्वारा पूरा उत्तर भारत जल्लीकुट्टू के समर्थन में तमिलनाडु और दक्षिण भारतीय लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है वहीं दूसरी तरफ एक दक्षिण भारतीय मूल की JNU की प्रोफेसर अपने हिंदी भाषा में लिखे नाम पर कालिख लगा कर आखिर क्या सिद्ध करना चाहती है?
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