पिछले कुछ दिनों से आप सब देख ही रहे हैं कि जवाहरलाल नेहरु विश्वविघालय किस तरह से देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने वालों का अड्डा बन गया है। ‘भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी—जंग चलेगी’— आखिर किस भारत के खिलाफ जेएनयू के तथाकथित प्रगतिशील छात्र जंग छेड़ने की बात कर रहे हैं? वही भारत जो उनकी पढ़ाई का खर्च उठा रहा है? वही भारत जो जेएनयू के एक एक छात्र के पढ़ने, खाने से लेकर रहने तक के लिए देश के करोड़ों करदाताओं का हर साल 244 करोड़ रुपए इन पर खर्च कर रहा है? वही भारत, जिसकी नागरिकता इन छात्रों के पास है और जिसका स्टांप इनकी पासपोर्ट पर आज भी लगा हुआ है? क्या वास्तव में ……
कश्मीर मांगे आजादी
हिंदुस्तान तू सुन ले आजादी
कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा
गो इंडिया गो बैक
पाकिस्तान जिंदाबाद
कश्मीर की आजादी तक जंग चलेगी— जंग चलेगी
केरल की आजादी तक जंग चलेगी—जंग चलेगी
भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी—जंग चलेगी
भारत तेरे टुकड़े होंगे- इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह
क्या ऐसे नारे लगाने वालों के पास भारत की नागरिकता होनी चाहिए? क्या इनके पास से भारत का पासपोर्ट जब्त नहीं होनी चाहिए? क्या देशद्रोह का मुकदमा चला कर इन्हें आजीवन सलाखों के पीछे नहीं ढकेल देना चाहिए? क्या हमारे—आपके कर के पैसे से ऐसे देशद्रोहियों को पाला जाना चााहिए? आखिर क्या वजह है कि जेएनयू पिछले कई दशकों से ऐसी राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है और वहां के छात्रों व प्रोफेसरों पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है?
अमेरिका में पाकिस्तानी एजेंट गुलामनबी फई की हुई गिरफतारी के बाद भी यह तथ्य सामने आया था कि जेएनयू के कई प्रोफेसरों को पाकिस्तानी खूफिया एजेंसी आईएसआई फंडिग करती है ताकि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर पर पाकिस्तानी पक्ष को सपोर्ट कर सकें। 9 फरवरी 2016 की रात अफजल व पाकिस्तान के पक्ष में जेएनयू कैंपस में लगे नारे के बाद पूरे देश ने इसे और खुलकर देख लिया।
आइए इतिहास के पन्ने को थोड़ा पलटते हैं ताकि पता चले कि पूरी दुनिया में अप्रासांगिक हो चुकी मार्क्सवादी विचारधारा का गढ़ जेएनयू आज भी कैसे न केवल वजूद में है, बल्कि भारत को तोड़ने में जुटे देशद्रोहियों का अड्डा भी बना हुआ है? आखिर दिल्ली में एक पार्षद तक की सीट न जीतने वाली मार्क्सवादी पार्टियों की छात्र इकाई— एआईएसएफ, आइसा, एसएफआई— का कब्जा अभी भी जेएनयू पर किस तरह से बरकरार है? किस तरह से भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले पत्रकारों से लेकर एकेडमीशियन तक को जेएनयू ही प्रोड्यूस कर रहा है? आखिर क्या वजह है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारत को टुकड़े—टुकड़े करने का स्वप्न जेएनयू के भीतर से निकल रहा है?
जेएनयू की स्थापना सन् 1969 में हुई थी। नेहरु जी की मृत्यु के बाद थोड़े समय के लिए लालबहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने थे। शास्त्री जी राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रधानमंत्री थे, जबकि नेहरु का समाजवाद रूस के साम्यवाद से प्रभावित था। 1917 की वोल्शेविक की खूनी क्रांति के बाद लेनिन के नेतृत्व में रूस में साम्यवादियों की सरकार आयी। यह पूरी दुनिया में पहली मार्क्सवादी सरकार थी, जिसमें सर्वहारा सत्ता की वकालत करते हुए तानाशाही राज्य की स्थापना की गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध में रूस बेहद शक्तिशाली होकर उभरा। पूरी दुनिया में अमेरिका व रूस के बीच कोल्ड वार छिड़ गया और दुनिया के देशों को अपने अपने पाले में करने की होड़ रूस और अमेरिका के बीच छिड़ गई। नेहरू बात तो गुटनिरपेक्षता की करते रहे, लेकिन उनकी पूरी सोच साम्यवादी रूस के नजदीक खड़ी थी।
1962 में साम्यवादी चीन से हार के कुछ समय बाद नेहरू का साम्यवाद से न केवल मोह भंग हुआ, बल्कि सदमे से उनकी मौत भी हो गई। उनके बाद लालबहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। शास्त्री जी की सोच साम्यवादी नहीं, राष्ट्रवादी थी। 1965 में पाकिस्तान पर जीत के बाद अचानक उसी रूस के ताशकंद में रहस्यम तरीके से शास्त्री जी की मौत हो गई। उनका पोस्टमार्टम तक नहीं कराया गया और आनन—फानन में नेहरू जी की बेटी इंदिरा गांधी को भारत का प्रधानमंत्री बना दिया गया।
कांग्रेस में उस समय के. कामराज के नेतृत्व में बुजुर्ग कांग्रेसियों का कब्जा था, जिसे सिंडिकेट के नाम से जाना जाता था। सिंडिकेट की सोच थी कि इंदिरा उनके हिसाब से चलेगी, लेकिन इंदिरा की सोच भी पिता नेहरू की तरह रूस की साम्यवादी तानाशाही के करीब थी, जिसे बाद में अपातकाल के रूप में देश ने देखा भी।
रूस में शास्त्री जी की संदिग्ध मौत से सीधे तौर पर इंदिरा को ही फायदा हुआ था। इंदिरा ने सिंडिकेट को साइड करने के लिए उस वक्त के विपक्ष से हाथ मिलाया। उस वक्त की मुख्य विपक्षी पार्टी कम्यूनिस्ट पार्टियां थी, जो सीधे साम्यवादी रूस और चीन से निर्देशित थी। कम्यूनिस्ट पार्टियों ने चीन के भारत पर हमले का स्वागत किया था और कहा था कि ट्टचीन ने भारत पर हमला नहीं किया, बल्कि भारत ने उसकी जो जमीन हड़प रखी है, उसे वह लेने आया है!’ उन्होंने माओ की रेड सेना का स्वागत किया था। उस वक्त के अखबारों को यदि आप पलटेंगे तो आपको सारी खबर मिल जाएगी।
मार्क्सवादी पार्टियों और इंदिरा गांधी में एक समझौता हुआ। इस समझौते के तहत इंदिरा को अबाध रूप से सत्ता संचालन की छूट देने के एवज में मार्क्सवादी पार्टियों ने देश के श्ौक्षणिक व अकादमिक संस्थान पर कब्जा मांगा, जिसे इंदिरा ने स्वीकार कर लिया। उनकी मांग पर इंदिरा ने ही 1969 में जेएनयू की स्थापना की और इसका पूरा कंट्रोल मार्क्सवादियों के हाथ में दे दिया। दस्तावेजों में तो यह जवाहरलाल नेहरू की नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए स्थापित किया गया था, लेकिन इसका वास्तविक मकसद भारत में रूस और चीन की नीतियों को लागू करना व उसके हितों के अनुरूप काम करना, भारतीय इतिहास को नष्ट करना और देश का विखंडन था!
यहां यह भी बता दें कि आजादी से पूर्व भारत विभाजन के टू—नेशन थ्योरी को सपोर्ट करते हुए मार्क्सवादी पार्टियों ने न केवल ‘गंगाधर अधिकारी प्रस्ताव’ पास कर मुस्लिम लीग का समर्थन किया था, बल्कि देश को 14 से 22 भाग में बांटने की बात कहते हुए एक की जगह 22 संविधान सभा की वकालत की थी। देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया डिवाइडेड’ में साफ तौर पर मार्क्सवादी पार्टियों द्वारा मुस्लिम लीग के समर्थन की बात लिखी है।
अकादमिक व शैक्षणिक संस्थानों पर कब्जे के बाद मार्क्सवादियों ने देश के पूरे इतिहास को बदलने का प्रयास किया। इसमें सबसे प्रमुख भूमिका जेएनयू के प्रोफेसरों ने निभायी। इंदिरा गांधी की तानाशाही व उनके द्वारा लगाए गए अपातकाल का सपोर्ट करते हुए मार्क्सवादियों ने स्वतंत्रता आंदोलन के पूरे इतिहास को बदल दिया और देश को स्वतंत्र कराने में मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और मार्क्सवादी पार्टियों का गुणगान किया। यहां तक कि देश की आजादी में महात्मा गांधी की भूमिका को भी चंद लाइनों में समेट दिया गया। इंदिरा गांधी ने लाल किले के प्रांगण में एक टाइम कैप्स्यूल को जमीन में गड़वाया, जिसमें मार्क्सवादियों के द्वारा लिखे उस झूठे इतिहास को जमीन में दबाया गया ताकि यदि कभी सम्यता नष्ट हो तो आने वाली पीढ़ी केवल नेहरू परिवार और मार्क्सवादियों को ही भारत का वास्तविक नायक समझे।
आपातकाल की समाप्ति के बाद हुए चुनाव में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनतापार्टी की सरकार बनी। जनता पार्टी की सरकार ने लाल किला प्रांगण को खुदवा कर उस टाइम कैप्स्यूल को निकलवाया था, तब जाकर इंदिरा और कम्यूनिस्ट पार्टियों की इस साजिश का पर्दाफाश हुआ था! उस वक्त के अखबार में इसका जिक्र भी है, लेकिन फिर से सत्ता में आते ही इंदिरा गांधी व उसके बाद के कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने इस पूरे मामले को दबा दिया। आज आरटीआई से भी इस बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आज जो जेएनयू में भारत विरोधी नारे लग रहे हैं, दरअसल वह उसी बुनियाद की वजह से है। इसका मकसद भारत को जाति व धर्म में कई टुकड़ों में बांटने की कम्यूनिस्ट सोच का परिणाम है, जिसे सत्ता के लालच में कांग्रेस ने शुरु से ही समर्थन दिया है। हैदराबाद विवि में कथित दलित छात्र रोहित वेमूला की मौत पर वहां ‘पोलिटिकल पर्यटन’ करने वाले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जेएनयू में भारत की बर्बादी के नारे लगाने वालों को किस तरह खामोश रहकर सपोर्ट कर रहे हैं, यह सारा देश आज देख रहा है!