मैंने कल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मोदी सरकार के अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण किये जाने पर लिखा और आक्रोश व्यक्त किया था। वहां आयी कुछ प्रतिक्रियाओं से ऐसा आभास हुआ जैसे लोग, सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करने को नरेंद्र मोदी जी की कमजोरी या कायरता समझ बैठे है।
दरअसल कल अपनी बात समझाने के लिये कुछ इतिहास के पन्ने उलटने थे लेकिन उसकी प्रस्तावना ही इतनी बड़ी हो गयी कि उसको एक मोड़, एक प्रश्न देकर छोड़ना पड़ा था। पिछले वर्षों में हुआ यह है कि सर्वोच्च न्यायालय की अतिसक्रियता और उसका, निष्पक्ष न दिख कर, एक विपक्षी दल की तरह होने के भान ने, भारतीय जनसमुदाय के एक बड़े वर्ग को आक्रोशित कर दिया है। कल का लेख उसी वर्ग के आक्रोश को प्रतिध्वनि दे रहा था।
कुछ लोगो को, नरेंद्र मोदी जी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से टकराव न लेकर उसके आदेशो का शतप्रतिशत अनुपालन करना बड़ा अपमानित लगा है और इस शंका को अपने अंदर जन्म लेने दिया है कि मोदी सरकार का आत्मबल कमजोर है, जिसके कारण, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका पर हावी हो रही है। लेकिन ऐसा कुछ भी नही है। मैं समझता हूँ कि मोदी सरकार राफ़ेल सौदे पर इतनी मजबूत है कि उसने यह जानते हुये की सर्वोच्च न्यायालय, न्यायपालिका की भूमिका से अलग हट कर विपक्ष की भूमिका में है, सौदे की सभी वांछित सूचनाओं को न्यायालय को देने की चुनौती को स्वीकार किया है।
एक बात लोगो को समझ लेना चाहिये कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब भी कोई ऐसा व्यक्तित्व नेतृत्व के शीर्ष पर पहुंच जाता है, जो पुर्व में स्थापित राजनैतिक व शासकीय तन्त्र की मान्यताओं को चुनौती देता है और उसका अस्तित्व स्थापित राजनीतिज्ञों व संविधान सम्मत प्रहरियों को गरिमाहीन व अविवेकशील बना देता है, तो उसको सबसे बड़ी चुनौती संविधान के अंदर से ही मिलती है। उस वक्त वह व्यक्ति, जहां संविधान की गरिमा को भी बनाये रखता है, वहीं अपवाद स्वरूप, उन घटनाओं को स्वेच्छा से होने देता है, जो न सिर्फ संविधानिक मर्यादा के विरुद्ध होती है बल्कि खुद उसके कार्यक्षेत्र का शीलभंग करती है।
चलिये अब इसको इतिहास के पन्नो को पलट कर देखते है।
अब्राहम लिंकन ने जब 1860 में राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के बाद, अपने मंत्रिमंडल का गठन किया था तब उन्होंने राष्ट्रपति पद के हारे तीन दावेदारों को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी। विलियम सेवार्ड को सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट , सलमोन चेस को सेक्रेटरी ऑफ़ ट्रेसरी और एडवर्ड बेट्स को अटॉर्नी जेनेरल बनाया था और इसके आलावा पार्टी के नेताओ के दबाव में पैसे के मामले में कुख्यात, साइमन कैमरॉन को सेक्रेटरी ऑफ़ वार को भी बनाया था।
कालांतर में, जब इन सभी मंत्रियों में विलियम सेवार्ड, अब्राहम लिंकन के सबसे करीबी बने, तब कई प्रभावशाली लोग इस बात से नाराज़ होगये थे। सालोमन चेस सहित अन्य रेडिकल रिपब्लिकन, लिंकन की असफलताओ का दोषी, लिंकन पर सेवार्ड के प्रभाव को मानने लगे थे। लिंकन पर सेवार्ड के प्रभाव को लेकर यहां तक खबरे फ़ैल रही थी की अब मंत्रिमंडल की बैठक में निर्णय भी, मंत्रिमंडल की राय ने न होकर, सेवार्ड की राय से, लिंकन एकतरफा लेते है। इस बात को लेकर जब रिपब्लिकन पार्टी व सीनेट(अमेरिका की संसद) में चर्चे होने लगे थे तब इस बात को लेकर लिंकन पर दबाव बनाया गया और उनसे कहा गया कि सेनेटर लोग खुद मंत्रिमंडल की बैठक की कार्यवाही देखेंगे।
यह एक असंवैधानिक घटना व मांग थी। लिंकन इस मांग को अस्वीकार कर सकते थे, यह उनका संवैधानिक अधिकार था लेकिन लिंकन ने टकराव के रास्ते को नही अपनाया। इसके बाद 9 सीनेटरों ने अब्राहम लिंकन के मंत्रिमंडल की बैठक में भाग लिया और पूरी कार्यवाही देखी थी। यह एक अंसवैधानिक कदम था, मंत्रिमंडल की कार्यवाही देखने का किसी भी सेनेटर को कोई भी वैधानिक अधिकार नही था। लेकिन लिंकन ने इसको होने दिया और जब सेनेटर बैठक के बाद कमरे के बाहर जा रहे थे तब लिंकन ने उनसे कहा, ‘आप लोगो ने जो आज किया है वह अंसवैधानिक था, लेकिन फिर भी मैंने उसे स्वीकारा है। यदि आज यह लोकतंत्र नही होता तो आप में से कोई भी यहां से वापस नही जासकता था।’
लिंकन ने यह सब इस लिये किया क्यूंकि उन्हें युद्ध जीतना था और अपने राष्ट्र अमेरिका को टूटने से बचाना था।
मोदी जी भी यही कर रहे है। उन्हें, सर्वोच्च न्यायालय और उसकी ढाल लिये विपक्ष की कुटिलता व दुष्चरित्र का पूरा भान है। उन्हें पता है कि आज वे अपने संवैधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण की बात कह कर सर्वोच्च न्यायालय से टकराव ले सकते है लेकिन उनको यह भी मालूम है कि चुनाव में अभी वक्त है और चोट खाया कांगीवामी न्यायालय किसी भी सीमा तक जाकर अन्याय कर सकता है।
मोदी जी ने टकराव का रास्ता न अपना कर, सर्वोच्च न्यायलय को जनता की निगाह में और नग्न हो जाने का रास्ता दिखाया है। वे चुनाव तक, बिना बोले, जनता के मनमस्तिष्क में यह बात अच्छी तरह बैठा देंगे कि भारत की न्यायपालिका निष्पक्ष न हो कर एक विपक्षी दल ही हो गया है।
मुझको यह विश्वास हो चला है कि 2019 के चुनाव का एक मुख्य मुद्दा न्यायपालिका में सुधार का होगा और यह सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे कोलोजियम सिस्टम के विरुद्ध जनता का जनमतसंग्रह होगा।
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