न्यायामूर्ति काटजू का कहना है कि हाल के दिनों में कुछ फैसलों से स्पष्ट पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1930 के दशक में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय की तरह एक खतरनाक, अति सक्रिय, अप्रत्याशित राह पर चलना शुरू कर दिया है, जिसका अंत पूरे विघटन के रूप में होना तय है। उन्होंने कहा है कि देश के सुप्रीम कोर्ट को बहुत ही आत्म-संयम बरतना चाहिए क्योंकि उनकी गलती को सुधारने वाला कोई और दूसरा कोर्ट नहीं होता। काटजू ने कहा सुप्रीम कोर्ट के इस व्यवहार की ओर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायधीन फ्रैंकफर्ट ने बार-बार इंगित किया था।
सुप्रीम कोर्ट विशेषकर वहां के कुछ जज अपनी सीमाओं को लांघने पर तुले हैं, जो आने वाले समय के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकता है। हमारे संविधान में विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिक के अधिकार और कर्तव्यों का पूरा उल्लेख निहित है। संविधान के प्रदत्त अधिकार के तहत न्यायपालिका का काम कानून बनाना नहीं बल्कि बने कानूनों का हिफाजत करना है। कानून बनाने का काम विधायिका का है। दूसरी बात कोई भी जज अपनी मनमर्जी से न तो किसी कानून को संवैधानिक या असंवैधानिक ठहरा सकते हैं। संविधान में ऐसे कई कानून हैं जिससे सुप्रीम कोर्ट के कई जज इत्तेफाक नहीं रखते, इसका मतलब यह नहीं होता है कि वे उसे असंवैधानिक घोषित कर दे।
जम्मू कश्मीर के लिए 35-ए का प्रावधान पूरी संवैधानिक प्रक्रिया के तहत नहीं किया गया फिर भी हमारे देश के लिए वह एक कानून है। कोई भी जज अपने भले-बुरे के हिसाब से फैसला नहीं दे सकते। अमेरिका के प्रसिद्द जज रहे फ्रैंकफर्ट का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों को सबसे ज्यादा संयत रहना चाहिए। हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज न्यायपालिका की मानक मान्याताओं को छिन्न-भिन्न करने पर तुले हुए हैं। जो पूरी न्यायपालिका के लिए खतरनाक संकेत हैं।
मुख्य बिंदु
* न्याय को लेकर जस्टिस होम्स और फ्रैंकफर्ट के न्यायिक सुझावों की अवेहलना कर जोखिम भरे रास्ते की ओर बढ़ चले हैं
* सुप्रीम कोर्ट तथा डीवाई चंद्रचूड़ जैसे कुछ न्यायधीशों ने भानुमती का पिटारा खोल दिया है, जिससे पूरी न्यायपालिका का नुकसान होगा
काटजू ने कहा कि लेकिन भारत के वर्तमान सुप्रीम कोर्ट में कुछ जज अपनी मर्जी का व्यवहार करते हैं और उन्हें ही कानून मानते है तथा मनाना भी चाहते हैं। वे अपना व्यक्तिगत विचार संविधान पर थोपना चाहते हैं, जो होम्स और फ्रैंकफर्ट जैसे बड़े न्यायधीशों के मानकों की अवहेलना है। जबकि यह स्पष्ट है कि विधि निर्माण का काम विधायिका का है, न कि न्यायपालिका का। मिसाल के तौर पर हाल ही में समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही ले लें। इस फैसले पर चंद्रचूड़ के बयान पर अगर ध्यान देंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि इस फैसले में उन्होंने अपना विचार ही थोपा है। उनका कहना है कि संविधान में निहित धारा 497-ए लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करती है इसलिए इस धारा को हटाकर, एडल्ट्री और समलैंकिता को अपराध होने से मुक्त कर दिया गया। काटजू ने कहा कि उनका इस प्रकार का विचार अमेरिकी और यूरोपीय संस्कृति के लिए तो ठीक हो सकता है लेकिन भारतीय परिवेश में बिल्कुल ठीक नहीं हो सकता है।
काटजू ने कहा कि चंद्रचूड़ ने इस फैसले में संयम बरतने की बजाय उन्होंने अपना मत थोपते हुए इसे आर्टिकल 21 (लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता) के खिलाफ बताया है। इसी प्रकार का फैसला सबरीमाला मंदिर मामले में किया गया है। इस मामले में काटजू ने न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा की प्रशंसा करते हुए कहा कि एक जज तो निकली जिसने सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस दिखाया। सबरीमाला वाले फैसले में जजों ने अपनी मनमर्जी से फैसला दिया है।
इस दोनों फैसलों ने देश की पूरी न्यायपालिका पर सवाल खड़ा कर दिया है। इसलिए कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने शेर की सवारी शुरू कर दी है। ऐसे में या तो शेर थक के मर जाएगा या फिर सवारी बंद हुई तो शेर अपने सवार को खा जाएगा।
URL: Justice Katju said some judges of Supreme Court have willful behavior and treat them as law
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