प्रसिद्द अभिनेता प्राण फिल्मों में खलनायक की भूमिका को इस विश्वसनीयता के साथ अदा करते थे कि सिनेमा हॉल में बैठे दर्शकों में सिहरन पैदा हो जाती थी। परदे पर उनके द्वारा निभाई गई इन भूमिकाओं ने यूं तो उनको बेहिसाब ख्याति प्रदान की लेकिन उनके द्वारा निभाए गए पात्रों का खौफ़ और उनसे नफरत लोगों के मन में इस कदर समा गई थी कि उस दौर में लोग अपने बच्चों का नाम तलक भी प्राण नहीं रखना चाहते थे। जबकि निजी जीवन में प्राण साहब बेहद सज्जन और संजीदा क़िस्म के इंसान थे।
दरअसल हमारी सोच और समाज की संरचना ही कुछ इस प्रकार की है जहाँ हमारे पास किसी से प्रेम और घृणा करने की वजह उस व्यक्ति के कार्य और कर्म ही होते हैं। जो हमारे चेतन और अवचेतन मस्तिष्क में हर उस वक्त मौजूद रहते हैं, जब हम किसी व्यक्ति विशेष के जीवन का मूल्यांकन कर रहे होते हैं। हम अपने जीवन में जिस तल्लीनता से मानवता के सेवकों की पूजा करते हैं उतनी ही शिद्दत से उन लोगों से नफ़रत भी जो इंसानियत और समाज के दुश्मन रहे हैं। जहाँ हमारे समाज में महापुरुषों की शोभा यात्राएँ निकाली जाती हैं वहीँ दानवों के पुतले भी फूंके जाते हैं ।
हम तो अपने सद्चरित्रों और सुपात्रों का अनुसरण करने के लिए अपने बच्चों का नामकरण भी उन्हीं के नाम से करते हैं ताकि अप्रत्यक्ष ही सही ये महान आत्माएं हमारे मध्य सदैव जीवंत रहें। यही कारण है कि हमारे बीच में अनेकों राम तो होते हैं लेकिन एक भी रावण नहीं। कृष्ण होते हैं कंस नहीं। भगत सिंह और चंद्रशेखर तो होते हैं लेकिन डलहौजी और डायर नहीं। यह केवल एक धर्म की बात नहीं है बल्कि अलग अलग धर्मों और पंथों में भी अपने अपने मार्गदर्शकों और जगत कल्याण की भावना रखने वाले महापुरुषों के नाम पर बच्चों के नाम रखने की परम्परा है ताकि हम सत्य का अधिकाधिक अनुसरण कर सकें और असत्य के खिलाफ खड़े हो सकें।
लेकिन इसके विपरीत जब मुंबई के एक फ़िल्मी दम्पत्ति ने अपने नवजात को एक बर्बर लुटेरे और हत्यारे तैमूर का नाम दिया तब इक्कीसवीं सदी के इस आधुनिक कालखंड में आगे बढ़ते हमारे कदमों का ठिठक जाना स्वाभाविक है। हम सोचने को विवश हो जाते हैं कि ये किस मानसिकता के लोग हमारे बीच में रह रहे हैं जिन्होंने आठ सौ साल बाद भी अपनी जेहनियत में तैमूर को बसाया हुआ है! वह तैमूर जो दुनिया भर में मौजूद इतिहास के संस्करणों में सिर्फ और सिर्फ एक खूंखार लुटेरा, हत्यारा और दुराचारी के तौर पर दर्ज है। इसके अलावा उसके व्यक्तित्व का कोई भी ऐसा पहलू नहीं है जिसकी वजह से उसे कभी याद किया जाए।
इसके बावजूद भी अगर कुछ लोग आज तैमूर, बाबर और औरंगजेब के साकार होने की सोच रखते हैं तो हमारे लिए एक निराशा और चेतावनी का सबब है कि हम अपनी गंगा-जमुना में ‘तहजीब’ का अथाह पानी बहाने के बाद भी उस धर्म विशेष की मानसिकता को नहीं मिटा पाए हैं जो खुद को अरब और मध्य एशिया के उन लुटेरों और हत्यारों की वंश बेल से जोड़ना पसंद करते हैं जिन्होंने हमारे देश की अखंडता और अस्मिता को एक बार नहीं बल्कि अनेकों बार अपनी बर्बरता से लहूलुहान किया, जिन्होंने हैवानियत की तमाम हदों को पार करते हुए इस देश में लाशों के पिरामिड खड़े किये।
आज बेशक आधुनिक युग के आलोक में हम अपनी सहृदयता और सहिष्णुता के बलबूते पर इतिहास के उन जख्मों को भुला देना चाहते हैं एक तबका ऐसा नहीं होने देना चाहता ।ये लोग गाहे बगाहे अपनी विकृत सोच से इस देश के जख्मों पर नमक भुरकने में आनंद का अनुभव करते हैं।
We all have human rights to follow any religion … no one can a abuse us to do silly things ……. This is smadhi..Shri ashutosh maharaj ji will come back soon 100 % sure ………
Very simple question, instead of looking samadhi as a scientific or spritual angle y people are insisting to creminate the body.
I think beofre making up your mind one should get enough knowledge by going through our history of saints where “nirvikalp” samadhi was taken by “purn guru” for the benfit of universe.
Any one going to make any comment or start typing without knowledge. Please turn up the history pages and find what is nirvikalp samadhi
And when, who and why (a purn guru) went in nirvikalp samadhi n stays for how much time in samadhi.
Well that’s true. These are there constitutional rights.