श्वेता पुरोहित। मनुष्य संयम-नियम से रहे और नियमित पथ्य, आहार- विहार रक्खे तो उसके रोगी होने की सम्भावना बहुत कम रहती है। रोग प्रायः आहार-विहार के असंयम से अथवा कहीं किसी प्रकार की सावधानी में त्रुटि हो जानेसे होते हैं । जब रोग हो जाता है, तब उसकी चिकित्सा करनी पड़ती है ।
‘रोगी स्वयं कुशल चिकित्सक भी हो तो भी अपनी चिकित्सा स्वयं न करे, यह नियम है।’ उसे दूसरे अच्छे चिकित्सक की सम्मति लेनी चाहिये । जो चिकित्सा-शास्त्र जानते ही नहीं अथवा अपूर्ण जानते हैं, उनके द्वारा कोई चिकित्सा करायेगा तो परिणाम जो कुछ होगा, वह आप समझ सकते हैं।
पाप मानसिक रोग हैं। जैसे आहार एवं आचारमें च्युति होनेसे शारीरिक रोग होते हैं और वे दुःख देते हैं, वैसे ही विचार-आचार में च्युति का होना ही ‘पाप’ कहलाता है। इससे मनमें रोग होते हैं और कालान्तरमें ये जब फल- दानोन्मुख होते हैं तो तन-मन दोनोंके लिये दुःखद होते हैं।
शारीरिक रोग तत्काल दुःख देने लगते हैं; किंतु पाप तो एक रोग के बीज के समान हैं। जैसे किसी के शरीर में कैन्सर का बीज पहुँच जाय तो वह बहुत देर में रोग के रूप में प्रकट होता है और पीड़ादायक बनता है, उसी प्रकार पाप दुःख के बीज हैं, जो देर में या जन्मान्तर में अपना भयानक रूप प्रकट करते हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति कैन्सर तथा दूसरे किसी रोग का बीज शरीर में पहुँचने की सम्भावना होने पर जाँच कराता है और यदि बीज शरीर में हुआ तो उसकी उसी समय चिकित्सा करता है। उस समय रोग की चिकित्सा सरल होती है। इसी प्रकार पाप- अशुभ कर्म हो जायँ, अपने को लगे कि हुए तो इनकी तुरंत चिकित्सा कर दी जानी चाहिये । इस समय इनका प्रायश्चित्त उतना कठिन नहीं होता; किंतु जन्मान्तर में जब ये फलोन्मुख होंगे, तब इनके प्रभाव को मिटाने के लिये जो अनुष्ठानादि करने होंगे; वे पर्याप्त कठिन होंगे ।
अपकर्म का प्रायश्चित्त स्वयं कर्ता निश्चित नहीं कर सकता; क्योंकि एक ही कर्म देश, काल, पात्र तथा कर्ता की योग्यता, मनः- स्थिति के अनुसार लघु या गुरु बनता है। पाप में लघु-गुरु, शुष्क आर्द्र के स्वतः भी भेद होते हैं। चींटी की हत्या, गधे की हत्या, मृग या वाराह की हत्या, हाथी की हत्या, मनुष्य या गौ की हत्या – ये सब प्राणिवध हैं; किंतु इनमें हत्या का पाप समान नहीं है। क्षुद्र जीवों के वधका पाप ‘क्षुद्र’ माना गया है। बड़े प्राणियों में भी किन्हीं के वधका पाप अल्प एवं किन्हींका बहुत माना गया है । हाथी उन्मत्त न हो तो युद्ध के अतिरिक्त उसका वध महाहत्या – गोवध के समान मानी गयी है। जो पाप तुरंत के हैं, वे आर्द्र हैं और जिनको पर्याप्त समय बीत गया है, वे शुष्क हैं। आर्द्रपाप का प्रायश्चित्त शुष्क की अपेक्षा अधिक होता है; क्योंकि शुष्कपाप का अर्थ ही है कि वह मनोवृत्ति अब रही नहीं, अन्यथा उस पापकी पुनरावृत्ति हुई होती ।
रोगोंकी चिकित्साके समान ही पाप का प्रायश्चित्त है। रोग-निदान के समान ही पाप-निदान होता है। पाप का स्वरूप, समय, स्थल, कर्ता की शक्ति, साधन, स्थिति एवं मनोभावादि का पूरा विचार करके तब उसके अनुसार प्रायश्चित्त निर्धारित होता है । अतः जैसे प्रत्येक मनुष्य चिकित्सक नहीं होता, उसके लिये पर्याप्त अध्ययन एवं अनुभव आवश्यक होता है; वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति प्रायश्चित्त- निर्देशक नहीं हो सकता, भले वह उच्चकोटि का साधक अथवा महात्मा हो । इसके लिये प्रायश्चित्त-शास्त्र का गम्भीर अध्ययन तथा स्थितियों को समझने का अच्छा अनुभव आवश्यक है। ऐसे व्यक्तिसे ही प्रायश्चित्त-विधान प्राप्त किया जाना चाहिये ।
जो लोभ, द्वेष, भय अथवा मोह के वश हो- इनसे प्रेरित हो, वह जैसे योग्य होनेपर भी उपयुक्त चिकित्सक नहीं है, वैसे ही ऐसा व्यक्ति उपयुक्त प्रायश्चित्तनिर्देशक भी नहीं हो सकता ।
रोग अशुभ कर्मोंके फलसे ही आते हैं। अतः रोगकी चिकित्सा तथा ग्रह-शान्ति के अनुष्ठान प्रायश्चित्त ही हैं। सकाम अनुष्ठानों में तथा प्रायश्चित्त में इतना ही अन्तर है कि प्रायश्चित्त प्रायः वर्तमान जीवन में किये गये पापों को मिटाने के लिये – निष्प्रभाव करने के लिये किया जाता है और सकाम अनुष्ठान पूर्वकृत अज्ञात अशुभ कर्मोंसे प्राप्त रोग, शोक, दुःख या असफलता को दूर करने के लिये होता है।
एक दिन के सामान्य उपवास, गङ्गास्नान, पञ्चगव्यपान से लेकर चान्द्रायण, कृच्छ्रचान्द्रायण एवं देहत्याग तक प्रायश्चित्त-विधान के अन्तर्गत हैं।
आज के युग मैं मनुष्य वैसे ही अल्पशक्ति, अल्पप्राण और श्रद्धाहीन हो गया है। वह कठिन प्रायश्चित्त कर सकेगा ? ठीक-ठीक प्रायश्चित्त बतलाने वाले कठिनाई से मिलते हैं । बतलानेवाला मिल जाय तो उसके बतलाये उपाय पर श्रद्धा होनी कठिन और श्रद्धा भी हो तो क्या आज उतने कष्ट उठा लेने की क्षमता सामान्य व्यक्ति में है ?
ऐसी दशामें आजका मनुष्य क्या करे ? इस युगके लिये पाप-परिमार्जन का, सबके लिये सब पापों के परिमार्जन- का सुगम साधन शास्त्र ने पहले से सुनिश्चित कर दिया है-
सर्वेषामप्यघवतामिदमेव सुनिष्कृतम् ।
नामव्याहरणं विष्णोर्यतस्तद्विषया मतिः ॥
( श्रीमद्भागवत ६ । २।१०)
‘सब प्रकार के पापों के कर्ता पापियोंके लिये केवल यही समुचित प्रायश्चित्त है कि वे भगवान् नारायणके नामका उच्चारण-जप-संकीर्तन करें, जिससे भगवान्में उनकी बुद्धि लगे।’
भगवन्नाम-कीर्तन, भगवन्नाम-जप सब पापों का सुनिश्चित एवं सर्वसम्मत प्रायश्चित्त है । यह सर्वत्र, सब समय, सबके लिये सुगम है। अतः नाम का आश्रय ही लेने योग्य है।