किसी फिल्म में कलात्मक वीडियोग्राफी, वीएफएक्स इफेक्ट और आइटम गीत एक ‘महंगी तश्तरी’ की तरह होते हैं। दर्शक को इस महंगी तश्तरी में रखे ‘कंटेंट’ से मतलब होता है। वह तश्तरी की सुंदरता देखना नहीं चाहता। यदि ‘कंटेंट’ प्रभावशाली हो तो दर्शक ‘तश्तरी’ की प्रशंसा भी कर सकता है। मगर सिर्फ ‘तश्तरी’ की प्रशंसा वह कभी नहीं करेगा। आज प्रदर्शित फिल्म ‘केदारनाथ’ के बारे में ठीक यही बात कही जा सकती है। केदारनाथ एक नक्काशीदार महंगी तश्तरी से ज्यादा कुछ नहीं है। नयाभिराम सिनेमेटोग्राफी और वीएफएक्स निर्मित भयावह क्लाइमैक्स की तश्तरी में दर्शक को बोझिल कहानी और अतार्किक स्क्रीनप्ले मिलते हैं।
केदारनाथ त्रासदी की पृष्ठभूमि में एक काल्पनिक प्रेम कहानी है जो एक सच्ची त्रासदी के साथ अतार्किक धागों में गूँथ दी गई है। कहानी का मूल ही इसकी विफलता का कारण है। जब आप सन 2013 की दुःखद त्रासदी पर फिल्म बनाने का निर्णय लेते हैं तो कहानी का केंद्र ‘केदारनाथ ‘ के सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता । दूसरी विफलता ये है कि आप केदारनाथ की महान त्रासदी से ऊपर ‘हिन्दू-मुस्लिम’ एंगल को रखते हैं। यानी एक तो जख्म देते हैं और उस पर नमक भी रगड़ते हैं। तीसरी विफलता है मुक्कु और उसके पंडित पिता के बीच हुआ संवाद। रूढ़िवादी पिता कहता है ‘रिश्ता हुआ तो प्रलय आ जाएगी।’ बेटी कहती है ‘उस प्रलय के लिए मैं जाप करुँगी।’ अपना प्रेम हारता देख दारुण नायिका समस्त केदारनाथ क्षेत्र को श्राप देती प्रतीत होती है। फिल्म की दशा बिगाड़ने के लिए ये संवाद ही काफी होगा।
इन दिनों बॉलीवुड इतनी तेज़ी से फ़िल्में बना रहा है कि वह फिल्म बनाने के ‘बेसिक नियम’ ही भूल चुका है। फिल्म का किरदार तब प्रभावित करेगा, जब उस पर गहराई से काम हुआ हो। मंसूर और मुक्कु की चारित्रिक विशेषताएं बताए बगैर निर्देशक उन्हें कहानी के ट्रेक पर लाकर खड़ा कर देता है। दर्शक ये तक नहीं जान पाता कि उनके बीच पनपे तीव्र आकर्षण का कारण क्या है। सिचुएशन स्ट्रांग न होने के कारण इन दोनों का लव एंगल ‘फेब्रिकेटेड’ सा महसूस होता है। यही बात अन्य किरदारों के बारे में कही जा सकती है। पंडित पिता की भूमिका में नितीश भारद्वाज का चयन पूरी तरह मिस कास्टिंग का ज्वलंत उदाहरण कहा जा सकता है। वे इस किरदार के लिए पूरी तरह मिसफिट थे।
सारा अली खान को ‘अधपका’ ही पेश कर दिया गया है। चूँकि ये उनकी पहली फिल्म है इसलिए उन्हें अभिनय के विभिन्न आयामों पर काम करना चाहिए था। उनकी स्क्रीन प्रेजेंस उत्सुकता नहीं जगाती। कोई एक दृश्य याद नहीं आता, जिसमे वे अभिनय से प्रभावित करती हो। उनके पास ‘एक्सप्रेशंस’ भी सीमित मात्रा में है। फिल्म में उनका किरदार सुशांत सिंह राजपूत के किरदार से सशक्त था लेकिन वे न्याय नहीं कर पाईं। बेहतर होता कि वे इस रण में उतरने से पहले खुद को थोड़ा माँझ लेती। सुशांत सिंह राजपूत का किरदार जानबूझकर सारा के किरदार के सामने कमज़ोर बनाया गया है। उनके पास ज्यादा कुछ करने के लिए था ही नहीं।
निर्देशक अभिषेक कपूर ने केदारनाथ के पंडितों को ‘खलनायक’ की तरह प्रस्तुत किया है। फिल्म का ‘अंडरकरंट’ कहता है कि सारे पंडित लोभी होते हैं। पैसे के लालच में केदारनाथ को व्यापारिक केंद्र बना देना चाहते हैं। इसके उलट सारे मुस्लिम पात्र नेकदिल हैं। इस तरह के प्रस्तुतिकरण ने हिन्दू समुदाय को भड़का दिया है। उस त्रासदी में दस हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए थे। सत्तर हज़ार से अधिक लापता हो गए। कितने लोग आज भी अपनों के लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं। इस भीषण त्रासदी को मुख्य विषय बनाया जाता तो फिल्म सराही जाती लेकिन निर्देशक तो ‘हिन्दू-मुस्लिम’ प्रेमकथा में फंसकर रह गए।
पहले दिन दर्शकों की ठंडी प्रतिक्रिया ने फिल्म का भविष्य लगभग तय कर दिया है। फिल्म को सारा अली खान का लॉन्चिग पैड बनाने का असफल प्रयास किया गया है। केदारनाथ का कथानक उथले पानी में तैरता है और इस कारण सारा अली खान और सुशांत सिंह राजपूत का कॅरियर नाकामी की गहराइयों में जा सकता है। सारा अली खान में उनके माता-पिता की प्रतिभा का तिनका भी नहीं दिखाई देता। कुल मिलाकर ‘केदारनाथ’ एक बोझिल और थकी हुई फिल्म है। इस पर पैसा बर्बाद करने से बेहतर है ‘रजनीकांत की 2.0 देखकर ‘तर्कहीनता’ का उत्सव मनाना। अतार्किक होने से अच्छा ‘तर्कहीन’ हो जाना।
URL: Sara Ali Khan makes her debut in Kedarnath
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Bhai bilkul aapka likh hua ek ek shabd mata sarasswati ki kalam se likha gaya hai bahut hi sundar aur tejasvi lekhak