अमित श्रीवास्तव. आज की घटित घटना ने एक नया अनुभव प्रदान किया जिसे साझा कर रहा हूँ। यह अनुभूति एक प्रश्न का उत्तर भी है जो एक साधारण मनुष्य के मन मे सदैव उतपन्न होता रहता है या उतपन्न करवाया जाता रहा है कि हम मंदिरों व ब्राह्मणों को दान क्यों देते हैं? इस प्रश्न का उत्तर जो आज मेरी अनुभूति से प्राप्त हुआ है, उसकी अभिव्यंजना से पूर्व घटना ओ संक्षिप्त में रखता हूँ।
यधपि घटना कितनी बड़ी है या इसका प्रभाव कितना व्यापक है यह भुक्तभोगी के निजी अनुभव से ही समझा जा सकता है तथापि घटना से प्राप्त सीख आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूँ। परसों शुक्रवार की संध्या से पूर्वी दिल्ली के बड़े हिस्से में पानी सप्लाई बंद है। बिना किसी पूर्व सूचना के पानी का सप्लाई बंद होना दिल्ली जैसे बड़े घनत्व वाले क्षेत्र के लिए एक आपदा से कम नहीं है।
मात्र कुछ घण्टों की बात हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता किन्तु विचार कीजिए कि तीन दिनों तक पानी आए ही न तो आपके जीवनचर्या पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
कल यानि शनिवार की शाम की स्थिति ऐसी थी कि सीलबंद बोतलें भी नहीं मिल रही थी। कुछ लक्ष्मी प्रसन्न लोग बिसलेरी का पानी तीन गुणे कीमत पर खरीद कर ऐसे कार्यों में उपयोग में ला रहे थे कि इस आधार पर उनके घर आयकर का छापा पड़ सकता है।
हर ओर भागादौड़ मची हुई थी। जैसे तैसे रात कटी। सुबह तो जैसे हंगामा ही बरपा हुआ था। 20 लीटर के सीलबंद पानी के डब्बे बेचने वालों ने भी हाथ खड़ा कर दिया। लोग सड़कों पर पानी की जुगत में इधर उधर भटक रहे थे। कोरोना काल में बुजुर्गों व बच्चों वाले परिवार का हाल बेहाल था। फिर मदद को सामने वही आए जिनसे कुछ लोगों को आजादी चाहिए।
पांडव नगर में एक मंदिर है राधाकृष्ण मंदिर। स्वाभाविक रूप से मंदिर का निर्माण व व्यवस्था का दायित्व आस पास के लोगों ने ही उठा रखा है। मंदिर में संसाधन भी है जो दान के रूप में मंदिर में इकट्ठा हुआ है।
समाज मंदिर को देता आ रहा है किंतु आज लौटाने की बारी थी। सो पंडित जी ने मंदिर के द्वार खोल दिए और फिर मंदिर द्वारा पहले टँकी में जमा पानी और फिर SUBMERSIBLE पंप खोल कर पूरे मोहल्ले के लोगों में पानी की आपूर्ति करवाई गई। घटना छोटी है किंतु निहित सन्देश बड़ा है जो निराकरण है आज की पीढ़ी के प्रश्न का कि हम मंदिर में/ निर्माण में दान क्यों देते हैं?
आज की घटना यह बताने में सक्षम है कि हमारे पूर्वज अपने संचित कोष से मंदिर का निर्माण क्यों करवाते थे व अपने प्राण देकर भी इसकी रक्षा क्यों करते थे? मंदिरों व ब्राह्मणों को दान इस कारण दिया जाता था ताकि आवश्यकता पड़ने पर व आपात स्थिति में मंदिर इनकी मदद कर सकें। मंदिर के प्रति आस्था व इतना प्रेम कि इसकी रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने प्राण तक गवाएं, को मनोविज्ञान की दृष्टि से समझने के लिए आज महिलाओं के मन में आभूषणों के प्रति लगाव को उदाहरण के रूप में रख सकते हैं।
आज ऐसा देखा जाता है कि महिलाओं में आभूषणों के प्रति एक विशिष्ट लगाव होता है। इसका कारण रूप सज्ज़ा से कहीं ज्यादा भविष्य की चिंता है। विवाह में पिता व रिस्तेदारों द्वारा पुत्री को दिए जाने वाले कीमती धातुओं के दान का ध्येय उसके सौंदर्यमें की चिंता न होकर उसके भविष्य की चिंता होती है। हमारे समाज में कहा जाता है कि आभूषण सुख में श्रृंगार व दुख में आहार होता है।
यही कारण है कि महिलाएं आभूषण बनवाती भी है और इसके रक्षा की चिंता भी करती है। जिसे बाजार व गलत व्याख्या ने सौंदर्य व स्टेटस सिंबल तक सीमित कर दिया है। मंदिर के प्रति आस्था दरअसल व्यक्ति व समाज का अपने भविष्य के प्रति चिंता ही है। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं कि आपदा के समय मंदिर व ब्राह्मणों ने समाज की रक्षा हेतु अपने खजाने का मुंह खोला दिया ताकि समाज की रक्षा हो सके। शास्त्रों के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों के लिए भी नियम तय कर उनके सामाजिक दायित्व तय किए गए हैं।
शास्त्रों में ब्राह्मण के छः कार्य बताए गए हैं-
अध्ययन करना व अध्ययन करवाना।
यज्ञ- हवन करना व करवाना।
समाज से दान लेना व समाज को दान देना।
मंदिर व मंदिर में रहने वाले ब्राह्मणों को दिया जा रहा दान समाज की रक्षा हेतु समाज की ही चिंता है और सामाजिक कार्य भी। हमारे पूर्वजों द्वारा व्यक्ति, समाज व राष्ट्र हित में किए गए कार्य ही हमारी संस्कृति है, हमारा धर्म है, हमारी परंपरा है। यही वेदों का सार भी है। हमारी परंपराएं, संस्कार, हमारी जीवन पद्धति जिसे हिन्दू अथवा सनातन धर्म की संज्ञा दी जाती है वह किसी एक व्यक्ति का दिवास्वप्न अथवा एक ही व्यक्ति के द्वारा थोपा गया नियम न हो कर संपूर्ण समाज का सामूहिक अनुभव है।
पूर्वजों का वह जीवनचर्या, आहार-विहार जिसका ध्येय संपूर्ण मानव जीवन के साथ साथ प्रकृति की रक्षा था उन्हीं जीवन पद्धति, नियमों का संकलन वेद है और यही सनातन धर्म है और इसी का नाम हिंदुत्व है जिसका आधार कोई व्यक्ति विषेध न होकर संपूर्ण समाज है। जिसके संस्कार है वैश्विक सहिष्णुता व सार्वभौमिक सहभागिता।
भारत की सनातनी परंपराओं के गूढ़ को समझे बिना हम इस पर प्रश्न उठाते हैं। दरअसल यह हमारे अंदर की कमजोरी है जिसे छिपाने के लिए ऐसी महान व वैज्ञानिक संस्कृति व परंपराओं को ही कमजोर बता देते हैं। आशा करता हूँ आपके मन में कभी उतपन्न हुए इस प्रश्न का उत्तर मेरे जीवन का छोटा सा यह अनुभव बताने में सफल रहा होगा।