लताजी एक भरापूरा, सुंदर और संगीतमय जीवन छोड़ कर 92 वर्ष की आयु में इस पृथ्वी से विदा हुई हैं। वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष की अधिकारिणी हैं।
सनातन में जब कोई पूर्णता को उपलब्ध होकर और इस दुनिया से विदा होता है, तो वह उत्सव का पल होता है। उत्सव के जरिए समाज उनके जैसे जीवन और उनके जैसी मृत्यु की ही कामना को प्रकट करता है।
मृत्यु एक अटल सत्य है, बस यह देखना है कि उसकी गति कैसी रही। यदि असामयिक मृत्यु है तो शोक, यदि पकी हुई मृत्यु है तो उत्सव!
चूंकि आज का समाज सनातन से पूरी तरह से कट चुका है, इसलिए वह हर मृत्यु पर शोकग्रस्त है। ‘परमात्मा लता जी जैसा पूर्ण जीवन और उनके समान ही पकी हुई मृत्यु हर कर्मयोगी को दे-‘ यदि यह भाव हो तो विषाद दूर हो जाएगा।
लताजी को भावभीनी श्रद्धांजलि!
हां कुछ लोग श्रद्धांजलि के साथ जो ‘विनम्र’ शब्द लगाते हैं वह भी अनुचित है। श्रद्धांजलि अकड़ के साथ नहीं दी जाती।
सनातन आपके जीवन के हर पल, हर कर्म, हर शब्द में प्रकट हो तो ही जीवन पूर्णता का साक्षी होगा। ‘मैं हिंदू हूं की घोषणा’ का येनकेन प्रकारेण प्रकटीकरण सिर्फ प्रतिकात्मक है, इसे हर क्षण जीवन में उतार कर ही आप शिवत्व को उपलब्ध होंगे। ऊं नमः शिवाय!