इरफ़ान खान को सिल्वर स्क्रीन पर देखकर दर्शक के मन मे एक हुमक उठती थी। ऐसी हुमक भीमसेन जोशी के गायन में थी, आरडी के संगीत में थी, संजीव कुमार के जीवंत अभिनय में थी। जब कोई कलाकार साधना कर्म की तपस्या के चरम शिखर पर होता है तो एक ईश्वरीय प्रकाश उसके भीतर उतर जाता है। इरफान का अर्थ होता है, कृतज्ञता। ऐसा लगता है इरफान के नाम का अर्थ उनका सम्पूर्ण जीवन सार बन गया था।
ऐसे कम ही अभिनेता होते हैं जो नकारात्मक किरदार में भी दर्शकों के प्रेम पात्र बन जाते हैं। इरफान की अभिनय यात्रा टीवी धारावाहिकों से शुरू हुई थी। इसके बाद उन्होंने ‘सलाम बॉम्बे‘ में एक छोटे किरदार से फिल्मी यात्रा शुरू की। प्रतिभाशाली होने के बावजूद उन्हें सफलता के लिए लंबे समय तक जूझना पड़ा। हिन्दी फ़िल्म उद्योग का स्टार सिस्टम कुछ ऐसा ही है। यहां नॉन एक्टर स्टार को सिर-माथे पर बैठाने का चलन है। उच्च कोटि के अभिनेताओं को स्टार स्टेटस जल्दी हासिल नहीं होता।
सन 2003 में तिग्मांशु धुलिया की फ़िल्म ‘हासिल’ में इरफान ने भ्रष्ट राजनीतिज्ञ रणविजय सिंह के किरदार से पहली बार दर्शकों के मन में जगह बनाई। कई वर्षों से जारी उनके संघर्ष को विराम मिला। इसके बाद ‘मकबूल’, ‘नेमसेक’, ‘लाइफ इन ए मेट्रो’ और पानसिंह तोमर ने उनको फ़िल्म उद्योग में स्थापित कर दिया। पानसिंह तोमर वह फ़िल्म थी, जिसके जरिये वह हिन्दी फिल्मों के दर्शकों के मन मे प्रवेश कर गए थे।
उनके अभिनय की रेंज ऐसी थी कि हॉलीवुड फिल्मों में उन्हें सशक्त किरदार दिए गए। वहां की भव्य फिल्मों में अब तक इरफान ही ऐसे अदाकार रहे, जिनको बड़े रोल नसीब हुए। ‘लाइफ ऑफ ए पाई’, अमेजिंग स्पाइडरमैन, ‘इन्फर्नो’, ‘जुरासिक वर्ल्ड’ में उनके निभाए प्रभावशाली किरदार कौन भूल सकेगा। फिर 2017 में प्रदर्शित ‘हिन्दी मीडियम’ न केवल बड़ी हिट हुई, बल्कि इसके लिए उन्होंने फ़िल्मफेयर के श्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड भी जीता। सफलता के रथ पर सवार इरफान खान को नहीं मालूम था कि काल के रूप में एक भयंकर रोग उनके शरीर मे प्रवेश कर गया है।
सन 2018 में न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर से ग्रसित होने के बाद इरफ़ान इलाज के लिए विदेश चले गए। एक समय ऐसा लगा कि वे ये लड़ाई जीत गए हैं। वापस भारत आने के बाद उन्होंने अपने जीवन की आखिरी फ़िल्म ‘अंग्रेज़ी मीडियम’ में काम किया। इस फ़िल्म की रिलीज तक कोरोना नामक जानलेवा वायरस भारत मे प्रवेश कर चुका था। कोरोना ने न केवल उनकी इस बेहतरीन फ़िल्म को सफल नहीं होने दिया बल्कि इरफान को भी डस लिया। कोरोना इंफेक्शन के चलते उनकी स्थिति बिगड़ गई थी। वे पहले से ही एक लाइलाज कैंसर से जूझ रहे थे।
वर्सोवा की वीरान गलियों से इरफान की निष्प्राण देह कब्रिस्तान ले जाई जा रही थी। उनकी अंतिम यात्रा में चंद परिवारजन मौजूद थे। कोरोना ने उनकी अंतिम यात्रा को भव्य नहीं होने दिया। बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने अपने नाम के आगे खान सरनेम हटा दिया था। कारण पूछने पर वे बोले थे ‘मैं बोझ लेकर जीना नहीं चाहता’। वे चाहते थे कि उनकी अम्मी उन्हें इरफान कहकर बुलाती है, वैसे ही दुनिया भी पुकारे।
करोड़ो की कार और बंगले उनको आकर्षित नहीं करते थे। वे अपनी वही सेकेंड हैंड कार ड्राइव करना चाहते थे, जो उन्होंने मुश्किल दिनों में खरीदी थी। उनका मस्तमौलापन और फकीरी का अंदाज सबसे अलग था।उनके प्रेम भरे मन को देखकर ही ईश्वर ने उन्हें ऐसा असीमित प्रतिभाशाली बनाया होगा।
जीवन की यात्राएं समाप्त नहीं होती, उन पर केवल विराम लगता है। इरफान की अगली यात्रा और अविस्मरणीय होगी। ईश्वर ऐसी अविस्मरणीय प्रतिभा को केवल एक ही यात्रा से कैसे नवाज़ सकता है। अगले नए चमकदार सफर के लिए शुभकामनाएं इरफ़ान।
बहुत ही जीवंत लेख है भाई, बिल्कुल इरफान के कद का लेख