संदीप देव । कुछ लोग झुंड बांधकर वाल्मीकि रामायण के प्रक्षिप्त उत्तरकांड को सही साबित करने के लिए पिछले काफी दिनों से ISD के विभिन्न प्लेटफार्म पर आकर कुतर्क कर रहे हैं। इनकी लगातार की टिप्पणी बता रही है कि इन्होंने रामायण को पढ़ा तक नहीं है! अन्यथा अग्निपरीक्षा के समय अग्नि एवं अन्य लोकपाल व देवताओं के समक्ष दिए राम के इस वचन का मोल समझते:-
विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा।
न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा।।२०।। युद्ध कांड।
अर्थात्:- मिथिलेश कुमारी जानकी तीनों लोकों में परम पवित्र है। जैसे मनस्वी पुरुष कीर्ति का त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह मैं भी इन्हें नहीं छोड़ सकता।
जिस रघुकुल में प्राणों से अधिक वचन का मोल रहा, वचन के लिए राजा हरिश्चंद्र बिक गये, क्या वहां राम के वचन का कोई मोल नहीं? क्या उन्होंने अपने वचन को तोड़ कर गर्भवती सीता का त्याग किया था?
वन गमन के समय राम कहते हैं, ‘रामो द्विर्नाभिभाषते।’ अर्थात राम कभी दोहरी बात नहीं करते। ऐसे राम को अपने अपने आचार्यों को सही साबित करने के लिए ‘लीलावादियों’ ने दोहरी भाषा बोलने व आचरण करने वाला साबित करने का प्रयास किया है उत्तरकांड के आधार पर, जो अक्षम्य है।
ये ‘मिथ्यावादी’ ढंग से रामायण पढ़ लेते तो इनका सत्य से साक्षात्कार हो जाता। राम और वाल्मीकि से बड़ा आज के कोई आचार्य नहीं हैं, अतः मैं राम के वचन में अपनी श्रद्धा रखते हुए उन्हीं के कहे को मानता हूं। न जाने कितने कालक्रम बीत जाने के बाद लिखे गये अनेक रामायण, उद्धरण आदि मेरे लिए मिथ्या हैं। वाल्मीकि राम के समकालीन हैं और उनकी भाषा सुगठित व संयमित है, जो कहीं से उत्तरकांड से मेल नहीं खाती।
इन ‘मिथ्यावादियों’ को रत्ती भर शास्त्र का ज्ञान नहीं। केवल अपने-अपने आचार्यों को सही साबित करने के लिए ये भगवान राम और आदि कवि वाल्मीकि तक को झूठ साबित करने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि आदिशंकर ने स्पष्ट कहा है कि श्रुति(वेद) और स्मृति में विभेद होने पर केवल श्रुति को ही प्रमाण माना जाएगा।
आदि शंकराचार्य ने शैव नीलकंठ से शास्त्रार्थ के समय वेद के आगे कणाद, कपिल आदि की वाणी को भी प्रमाण नहीं माना। फिर ये आचार्य कणाद, कपिल से बड़े तो नहीं हैं न? और न ही ये वाल्मीकि और राम से बड़े हैं कि इनको माना जाए! राम के वचन के आगे किसी का मोल नहीं है मेरे लिए।
रामायण-महाभारत श्रुति ( वेदों) का ही व्यवहारिक रूप है। वेदों में कहीं निर्दोष गर्भवती स्त्री को छोड़ने और तपस्या कर रहे किसी जन्मना शूद्र के वध की बात नहीं की गई है।
अतः श्रुति के अनुसार भी उत्तरकांड प्रक्षिप्त रचना मानी जाएगी। अब आदिशंकराचार्य के दिए इस ‘श्रुति प्रमुख सिद्धांत’ को मानें या इन लीलावादियों के आचार्यों को?
उधार के ज्ञान की यही विडंबना है कि वह धर्म को नहीं अपने-अपने संप्रदाय और गुरुओं को सही साबित करने के लिए अनाप-शनाप कुतर्क करता है और भारी भरकम शब्दों से ज्ञानी बनने का पाखंड रचता है।
ये कुतर्कशास्त्री सबका समय बर्बाद कर रहे हैं। ऐसों को रामायण के प्रथम अध्याय में ही पाखंडी कहा गया है।
पाखंडालापनिरता: पाखण्डजनसंगिन:।।१३।।
यदा द्विजा भविष्यंति तथा वृद्धिं गत: कलि:।
अर्थात्:- जब ब्राह्मण (अब आप इसे जन्मना मानें या कर्मणा, आपकी इच्छा) पाखंडी लोगों के साथ रहकर पाखंडपूर्ण बातें करने लगें, तब जानना चाहिए कि कलियुग खूब बढ़ गया।
मैं बता दूं कि मैं साक्षात राम और कृष्ण के वचन को मानता हूं पाखंडियों को नहीं, जिनमें गुण ब्राह्मणों का है नहीं, लेकिन ब्राहणत्व का दावा है। हे शंबूकवादियों पढ़ो भगवान् श्रीकृष्ण गीता में वर्ण को जन्मना कह रहे हैं या कर्मणा:-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
अतः उत्तराकांड पर ये लोग अपनी उल्टी अपने-अपने प्लेटफार्म पर करें। किसी ने इन्हें रोका नहीं है। जिसको मानना है मानें, जिसको न मानना है न मानें, यह बार-बार मैंनै कहा है।
ISD के सारे प्लेटफार्म पर इस विषय पर काफी समय दिया जा चुका है। संस्कृत के आचार्य डॉ रजनी रमण झा को बुला कर इस पर पूरी श्रृंखला की गई है। इसलिए अब मैं इन पर और समय नहीं दूंगा। अब इन कुतर्कवादियों को भगा रहा हूं।
इन कुतर्कवादियों की मानसिक दशा देखिए। इनमें से एक कृष्ण को रायता बोल रहा है, दूसरे को पुराण व उप पुराण में अंतर तक पता नहीं है, तीसरा कहता है बिना गुरु के रामायण नहीं पढ़ सकते, जो वाल्मीकि जी की कहे के साफ विपरीत है, चौथा गाली-गलौज की भाषा में बात कर रहा है। अतः ऐसे सभी मिथ्यावादियों को मैं भगा रहा हूं। अब इस पर कोई विमर्श नहीं होगा।
रामायण में लिखा है:-
घोरे कलियुगे ब्रह्मन जनानां पापकर्मिणाम् ।।१४।।
मन: शुद्धिविहीनानां निष्कृतिश्च कथं भवेत्।
अर्थात्:- ब्राह्मण! घोर कलियुग आने पर सदा पाप परायण रहने के कारण जिनका अंत:करण शुद्ध नहीं हो सकेगा, उन लोगों की मुक्ति कैसे होगी?
तब सुतजी कहते हैं कि जो मनुष्य रामायण का पाठ और श्रवण करते हैं, इतने मात्र से उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं।
अतः हे मूढ़ों, रामायण को पढ़ने या श्रवण करने के लिए तुम्हारे किसी आचार्य की आवश्यकता नहीं है। सनातनधर्मी स्वयं उसे पढ़ सकता है।
तो हे मूढ़ों इधर उधर की टीका-मीमांसा पर अपना समय नष्ट करने की जगह सीधे रामायण का पाठ करो, और भव सागर से पार उतर जाओ। बिना स्वयं पढ़े न तुम्हें वाल्मीकि समझ आएंगे न राम!
नारदजी भी ऐसे लोगों से विमर्श न करने की सलाह देते हैं। समय का मूल्य होता है। ऐसे आपत्ति काल में और अधिक समय नष्ट नहीं किया जा सकता है ऐसे मूढों पर!
इन ‘मिथ्यावादियों’ व ‘लीलावादियों’ ने सनातन धर्म का अहित किसी विधर्मी, म्लेच्छ और कम्युनिस्टों से कम नहीं किया है। अतः ऐसों से दूर रहें, यह नारद से लेकर चाणक्य तक का स्पष्ट आदेश है। जय राम जी की 🙏