शंकर शरण।
अपने देश में प्रायः ही किसी सांसद या विधायक के किसी वक्तव्य पर उसकी पार्टी के नेता नाराज होकर उसकी सार्वजनिक रूप से खिंचाई करते हैं। उसे केवल ‘पार्टी लाइन’ के अनुसार बोलने की चेतावनी देते हैं, जबकि जो नेता अपने दल के सांसदों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को फटकारते हैं, वे स्वयं दूसरे दलों को नीचा दिखाने के लिए घटिया, झूठी और उत्तेजक बयानबाजियां करते रहते हैं। यह अनैतिक तो है ही, देश-हित की दृष्टि से आत्मघाती चलन भी है।
यदि सर्वोच्च विचार सभा यानी संसद के सदस्य ही अपने विचार नहीं रख सकते तो इसका असर अन्य सभी वैचारिक, शैक्षिक संस्थानों, क्रियाकलापों पर पड़ता है। आखिर जो अधिकार सांसद को नहीं, वह किसी अन्य को भी क्यों हो? राजनीतिक दलों के सुप्रीमो जो तर्क अपने सांसदों का दिमाग बंद करने के लिए उचित समझ देते हैं, वह लेखक-पत्रकार, शिक्षक आदि पर लगाम लगाने में भी उपयुक्त है। सो जिस समस्या पर संसद ही विचार न करे, उस पर किसी शोध-आकलन की भी क्या जरूरत!
सत्ताधारी दल अनुदान और नियुक्तियों के माध्यम से अकादमिक संस्थाओं पर नियंत्रण रखते हैं। इसीलिए कश्मीरी हिंदुओं के संहार-विस्थापन, सांप्रदायिक विद्वेष के प्रचार, संगठित मतांतरण, जिहादी आतंकवाद, तरह-तरह के आरक्षण आदि अनेक विषयों पर कोई अध्ययन-अध्यापन नहीं होता। एक तरह से संबंधित समस्याओं की पूरी अनदेखी। इस चलन का परिणाम अच्छा नहीं होगा।
संविधान का कोई अनुच्छेद, अथवा संसद का कोई नियम संसद सदस्यों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित नहीं करता।
संविधान के अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार सभी नागरिकों के लिए है। राजनीतिक दलों के सुप्रीमो अपने सांसदों को इससे वंचित करके मूल मानवीय अधिकार पर चोट करते हैं। यदि सांसद की कोई बात गलत है तो उसकी गलती प्रमाणिक दिखा देना अधिक सटीक उत्तर है। इससे ही सबको लाभ होगा। जबकि सेंसरशिप से अंततः सबकी हानि होनी है सांसदों को ही अभिव्यक्ति स्वतंत्रता से खुलेआम वंचित करना देश को दुनिया के सामने हीन भी बनाता है, क्योंकि यह अपने ही संविधान और संसद की हेठी करना है। यह नागरिकों के मूल अधिकार पर एक संविधानेतर संस्था राजनीतिक दल का अतिक्रमण है। इससे संसद का कर्तव्य बाधित होता है। आखिर सांसद जो सोच-समझ-देख रहे हैं, उसे बोल ही नहीं सकते तो फिर उनकी आवश्यकता क्या है? तब संसद का भी क्या प्रयोजन? यह हानिकारक चलन निश्चित रूप से खत्म करना चाहिए।
किसी प्रतिष्ठित लोकतंत्र में ऐसा नहीं है। ब्रिटेन या अमेरिका में नियमित देखा जाता है कि गंभीरतम राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर भी हरेक सांसद स्वतंत्रता पूर्वक अपने विवेक से अपने विचार रखते हैं। उसमें उनकी पार्टी का कोई दखल नहीं है। ब्रिटेन में ब्रेक्जिट जैसे ऐतिहासिक मुद्दे पर भी हर सांसद अपनी-अपनी राय से बोलने और अभियान चलाने के लिए स्वतंत्र थे। कारण संसद सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राजनीतिक दल वहां कोई बंधन नहीं लगा सकते। सांसद पहले देश और जनता के प्रति जिम्मेदार हैं। वहां उनके सोच-विचार या संसद में राष्ट्रीय नीति बनाने में ‘पार्टी लाइन’ जैसी कोई बाधा नहीं है। इससे पार्टी नेता भी सतर्क और गतिशील रहते हैं। अमेरिका में एक ही दल में रहते हुए सीनेटर हर विषय पर न केवल अपनी राय स्वतंत्रतापूर्वक रखते हैं, बल्कि एक-दूसरे को चुनौती देते अपने लिए जनमत पाने की खुली लड़ाई भी लड़ते हैं। सांसदों को ऐसी स्वतंत्रता से ब्रिटेन, अमेरिका का लोकतंत्र अधिक मजबूत बना है। विभिन्न विचारों की खुली प्रस्तुति से ही किसी मसले की सभी बातें सामने आती हैं। तभी बेहतर समाधान पाना भी संभव है।
यह ध्यान रहे कि कम्युनिस्ट देशों में दलीय निर्देश पर सारे सांसदों द्वारा बंधी-बधाई बातें ही कहने की रीति से उनकी वैचारिक, नैतिक और राजनीतिक क्षति हुई। किसी भी समस्या पर खुली चर्चा के बजाय संसद तोतारटंत दिखावटी विमर्श का स्थान बना रहा। फलत: अच्छे-अच्छे जानकार सांसद चुपचाप मिथ्या दावों और नीतियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हुए। पूरी जनता भी सदा अंधेरे में रही। सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के सभी कम्युनिस्ट देशों में 1989-91 के दौर में इसी के आश्चर्यजनक नजारे दुनिया ने देखे थे। इससे पहले इन देशों की संसद में किसी भी विषय पर कभी कोई सच्चा विमर्श नहीं हुआ। सब कुछ पार्टियों के शीर्ष नेताओं द्वारा रचा गया झूठा आकलन था, जिसे उन देशों के नीति-निर्माण और जनता पर जबरन थोपा गया। इससे इन देशों की अपूरणीय बौद्धिक क्षति हुई। इसके दुष्परिणाम वे अभी भी झेल रहे हैं।
इसकी तुलना में यूरोप और अमेरिका में संसद खुले विचार-विमर्श का स्थान है। हर प्रकार के विचार, सुझाव और विरोध को अबाध स्वतंत्रता रहने से ही वे शोध, आकलन, स्वस्थ नीति तथा गतिशील व्यवस्था बनाए रखने में सफल रहे हैं। हर तरह के मौलिक चिंतन, लेखन और दार्शनिक वैज्ञानिक आविष्कारों में भी वही अग्रणी हैं। तमाम गड़बड़ियों के बावजूद यूरोपीय लोकतंत्रों में रचनात्मकता और आत्मविश्वास का सबसे बड़ा साधन वह स्वतंत्रता ही है, जो किसी को अपनी बात या आलोचना से नहीं रोकती। उस देश का क्या होगा जहां सर्वोच्च विचार-सभा यानी संसद के सदस्यों को ही अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता न हो? यह एक डरावनी स्थिति है। हमारे संवैधानिक संरक्षकों को समय रहते इस पर ध्यान देना चाहिए।
स्वतंत्र भारत के संविधान में यूरोपीय-अमेरिकी लोकतंत्र वाली भावना और प्रविधान रखे गए थे, पर व्यवहार में धीरे-धीरे कम्युनिस्ट देशों वाला चलन ही बढ़ता गया। इसके दुष्परिणाम भी उसी तरह के हुए। अल्पसंख्यकवाद का बढ़ता एकाधिकार, कश्मीर से हिंदुओं का सफाया, कई अन्य इलाकों में वही दिशा, शैक्षिक क्षेत्र में बढ़ती राजनीति, क्षरण, नियमित प्रतिभा-पलायन आदि गंभीरतम मुद्दों पर हमारी संसद का इतिहास एक लज्जाजनक चुप्पी दिखाता है, क्योंकि सांसदों पर राजनीतिक दलों की असंवैधानिक, अनैतिक लगाम है। यह दयनीय स्थिति केवल इसलिए छिपी रही है, क्योंकि सभी दलों के नेता इस संकीर्ण स्वार्थ में समान रूप से डूबे हैं। इसीलिए अभी बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे जुल्म पर हमारे किसी सांसद ने संसद में चर्चा का प्रस्ताव नहीं दिया।
चूंकि वैचारिक सेंसरशिप क्रमशः हर प्रकार की तानाशाही, सामाजिक रोग और बुराइयां बढ़ाती है, अतः सांसदों को विचार विमर्श के क्षेत्र में पार्टी-कैद से मुक्त करना चाहिए। ऐसा न करना दूरगामी पतन सुनिश्चित करने के समान होगा। यह कम्युनिस्ट देशों के अनुभव से समझना चाहिए।