शंकर शरण :-
एक नेता ने तैश से कहा: “आप ने इतनी पुस्तकें प्रकाशित की हैं। मगर उस में काम की कितनी हैं? सरकारी धन का ऐसा दुरुपयोग!” उन का अंदाज देख हर सच्चे शिक्षक को क्षोभ होगा।…कभी एक नेता ने ताना दिया: ‘देश की एकता के लिए साहित्यकारों ने क्या किया है?’ इस पर वात्स्यायन जी ने कहा था: ‘देश की एकता छिन्न-भिन्न करने के लिए नेताओं ने क्या नहीं किया है?’ आज के नेताओं से वही पूछने की जरूरत है कि शिक्षा में कूड़ा-कचरा, प्रोपेगंडा जमाने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया है!
कुछ पहले एक ऐतिहासिक अकादमिक संस्थान में भाषण देते हुए एक नेता ने तैश से कहा: “आप ने इतनी पुस्तकें प्रकाशित की हैं। मगर उस में काम की कितनी हैं? सरकारी धन का ऐसा दुरुपयोग!” उन का अंदाज देख हर सच्चे शिक्षक को क्षोभ होगा। क्योंकि स्वतंत्र भारत में नेताओं, दलों ने ही राजकीय संसाधनों का अतुलनीय दोहन किया है। इसे सभी दलों के कार्यकर्ता मामूली अगर-मगर से मानते हैं। बल्कि, उन में अंदरूनी मार-पेंच तक उसी दोहन में हिस्से-बखरे की है।
दूसरे, उन नेता की अपनी बिरादरी ने ही अकादमिक संस्थाओं को क्रमशः तेजी से स्तरहीन, और बदहाल बनाया है। अनूठी संस्थाओं को भी बेसिर रख कर बरसों-बरस अपने हाल पर छोड़ दिया है। ऐसा व्यवहार अंग्रेज प्रशासक कभी नहीं करते थे!
सोचिए, जो अपने लिए एक और भाषण-भवन फौरन बनवा लेते हैं, वे देश के अनूठे ऐतिहासिक संस्थानों को छीजने छोड़ देते हैं। मानो मरम्मत हो या न, वह रहे या गिरे, बला से! यह कोई अपवाद नहीं। वस्तुत: शिक्षा-संस्कृति से ही जुड़े स्थानों, कामों पर एकाधिकार कर जैसै-तैसे करना, न करना, या उन की मिट्टी पलीद होने देना – यह नेताओं की एक संकीर्ण बिरादरी का सिग्नेचर व्यवहार रहा है।
लेकिन यह तो छोटे पाप हैं! जिस में सभी दल शामिल हैं। नेताओं का सब से बड़ा अपराध है: शिक्षा को राजनीतिक कीचड़ से लिथेड़ देना। संस्थानों को दलीय राजनीति और हिस्से-बखरे के अड्डे बना देना। उन की स्वायत्तता और आत्मा नष्ट करते जाना। विद्वानों को अपदस्थ करते हुए संस्थाओं को एक्टिविस्ट और क्लर्क जैसे लोगों से भर देना। शिक्षकों, विद्यार्थियों को नेताओं, उन के एजेंटों, ठेकेदारों के अज्ञान और क्षुद्र मंसूबों से चलाना। नेताओं के चित्र-विचित्र भाषण न केवल शिक्षकों को जबरन सुनाना, बल्कि छात्रों तक भी पहुँचाने का दबाव रखना! अनर्गल नारों, चालू घटनाओं, मुहावरों पर सेमिनार, प्रदर्शनी करने का हुक्म देना। उस पर करोड़ों रूपयों और हजारों लोगों के समय व ऊर्जा की बरबादी कर, वही सब ‘शैक्षिक’ क्रियाकलाप मानने का चलन बनाना। अर्थात नकली, व्यर्थ कामों से समाज को मानसिक दुर्बल, भ्रष्ट, और लाचार बना देना। चाहे उन्हें इस का बोध हो या नहीं।
सो, जब जिस दल गुट का दौर-दौरा, उस की ऊल-जुलूल बातों, घोषणाओं को शिक्षकों, छात्रों के गले उतारना। इस तरह, पूरी की पूरी पीढ़ियों के स्वच्छ, विश्वासी माथे में महान साहित्य, ज्ञान, और सदविचारों के बदले विषैली दलबंदी, विभाजक ईर्ष्या-द्वेष, और फूहड़ प्रोपेगंडा उतारना।
यह स्वतंत्र भारत में आरंभ से ही चला। क्रमशः कुरूपतर होता। फलत: आज लाखों-लाख शिक्षितों में तथ्य और राय, फैक्ट या ओपीनियन में अंतर कर सकने की समझ नहीं। बचपन से ही तरह-तरह से नेताओं की नियमित पूजा देखते-सुनते सत्य और प्रोपेगंडा में अंतर करने की उन की क्षमता लुप्तप्राय हो चुकी है।
देश के जनगण पर ऐसा मानसिक घात देसी नेताओं का किया हुआ है। अंग्रेजों ने तो दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ साहित्य और सच्चे विद्वानों, शिक्षकों से हमारी शिक्षा को पोषित किया था। उसी को हर तरह से प्रोत्साहित किया था। यह हमारे देसी नेता थे, जिन्होंने अपने-आप को, रोज बात बदलने वाले नेताओं को मनीषियों से ऊपर रखने की समाजघाती रीति बनाई। अल्पज्ञ नेताओं के मामूली भाषणों, रोजमर्रा टिप्पणियों को मँहगी जिल्दों में प्रकाशित कर विशेष ज्ञान सामग्री के रूप में स्थापित कराया! जबकि अंग्रेज ऐसा फूहड़ काम, अपने वायसराय या प्रधानमंत्री के भाषणों, आदि का संग्रह बनाते तक नहीं थे – थोपना तो दूर रहा! उन्होंने भारत में अनेक शानदार पुस्तकालय बनाए, जिन में दुनिया भर के ज्ञान-ग्रंथ लाकर रखे। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक भारतीय विद्यार्थियों की कई पीढ़ियों ने उस से लाभ उठाया। उस से ही यहाँ अनेक महान चिंतक, वैज्ञानिक, कवि, विद्वान, आदि बने जिन का दुनिया में नाम हुआ। इस के विपरीत, स्वतंत्र भारत के शासकों ने अपने भाषण, उपदेश, चिट्ठियों, आदि के ‘कलेक्टेड वर्क्स’ को पुस्तकालयों में विशिष्ट स्थान दिया! देश-विदेश के महान दार्शनिकों, कवियों, लेखकों की सर्वोत्तम रचनाओं की कोई सुंदर जिल्द उपलब्ध कराने में उन की कभी कोई रुचि न थी। यह उन की बुद्धि से ही परे रहा कि यह भी कोई कर्तव्य हो सकता है!
आज स्थिति और बदतर हो रही। अब कथित नीतिगत दस्तावेज तक छापे नहीं जाते। लेकिन नेताई भाषणों की सालाना मोटी-मोटी जिल्दें बाकायदा छपती हैं। किन के लिए? अल्लाह जानता है! यह सार्वजनिक धन का सब से फूहड़, लज्जाजनक दुरुपयोग है, जिसे भाषणबाज लोग समझने में भी असमर्थ हैं।
इस तरह, शिक्षा का एकाधिकार लेकर नेताओं ने सब से मूल्यवान ज्ञान-सामग्री ही बच्चों, युवाओं तक पहुँचाना जरूरी न समझा। जो इसी आयु वर्ग के लिए स्वच्छ वायु और शुद्ध जल जैसा आवश्यक है! पर नेता अपने सीमित शब्दजाल और मन की तरंग को ही असल साहित्य समझने के आदी हैं। यह गाँधीजी से आरंभ हुआ, और आदर्श उदाहरण सा सब ने अपना लिया है। दुनिया के किसी अग्रणी देश में ऐसा नहीं है।
फलतः आज देश की सर्वोच्च विचार सभा – जो परिभाषा से ही विचारकों, नीतिज्ञों का स्थान था – उस की कौन कहे, उच्चतम शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थानों में भी चिंतकों, ज्ञानियों को स्थान/अधिकार देने का चलन लुप्तप्राय हो गया है। सामाजिक मानविकी विषयों की पाठ्य-सामग्री मुख्यतः राजनीतिक मतवादों का प्रचार बन गई है। फलत: अब सच्चे लेखक और विद्वान की भूमिका नगण्य हो गई है। देश में साहित्यिक, वैचारिक पत्र-पत्रिकाओं की क्रमशः अवनति और नि:शब्द लोप की दिशा भी उसी का परिणाम व प्रमाण है। यह अवनति चिन्तनीय भी नहीं! अब विकसित देश बन जाने का आसान नुस्खा आ गया है। नारे लगाइए, कीचड़ उछालिए, शेखी बघारिए, झूठ फैलाइए, और विश्वगुरु बन जाइए!
अतः शैक्षिक संस्थानों को दलबंदी के अड्डे बनाने, नेताओं को मनीषियों से ऊपर मानने, उन की बातों को समाज का दिशा-निर्देशक बताने, और अकादमिक क्षेत्र को लगुओं मुंशियों के हवाले करते जाने में एक तारतम्य है। किसी मामूली नेता द्वारा विशिष्ट अकादमिक संस्थान पर तानाकशी उसी का उदाहरण है।
आरंभिक नेताओं ने शैक्षिक योजनाओं और संस्थाओं में अपने हमख्यालों को प्रश्रय दिया। दूसरों ने अपनी ‘चालीसा’ लिखने वालों और नेटवर्किंग धंधेबाजों को बढ़ाया। सच्चे विद्वान, लेखक, कवि, आदि, जो वैसे ही बहुत कम होते हैं, उन का स्थान क्रमशः खत्म हो गया। यद्यपि स्कूल-कॉलेज व्यवसाय के रूप में चल और फैल रहे हैं। डिग्री-डिप्लोमा भी बँट रहे हैं। तकनीकी विषयों में युवा तैयार होकर काम-धाम भी कर रहे हैं। पर यह सब भी निजी अध्यवसाय से अधिक हुआ। स्कूलों-विश्वविद्यालयों से अधिक महत्व अनायास कोचिंग-सेंटरों का हो जाना इसी का संकेत है। किस ‘शिक्षा नीति’ ने ऐसा लक्ष्य रखा था? यदि नहीं रखा था, तो यह कैसे हुआ?
आज देश में ज्ञान-विवेक, चिंतन-मनन और साहित्य का मैदान सूना हो रहा है। यह हमारे बौद्धिक दिवालियेपन का संकेत है कि आज भी रोज लॉर्ड मैकॉले को कोसने वाले सोचने की क्षमता नहीं रखते कि गत 77 सालों से हमारी नीति किस ने बनाई! क्या स्वतंत्र भारत की नीतियाँ अनाम कबन्ध बनाते रहे हैं?
गाली देने के लिए मैकॉले, और जयकारे के लिए ऐसे-ऐसे नेता जो टीवी पर कहते हैं कि अमुक दस्तावेज उन्होंने ‘अभी पढ़ा नहीं’, पर उस से भारत विश्वगुरु बन जाएगा! यह है अपने नारों से अपना माथा चकरा लेना। तभी मामूली नेता भी विद्वान से हिसाब माँगते हैं कि उन की पुस्तकों में ‘काम की कितनी हैं?’
एक बार वात्स्यायन जी (अज्ञेय) ने ऐसे कटाक्ष का उत्तर दिया था। तब नेताओं का नारा था ‘राष्ट्रीय एकता’। इसी से वे अपनी झक, और तरह-तरह की सतही, मिलावटी सामग्री शिक्षा में थोपते रहते थे। तो, कभी एक नेता ने ताना दिया: ‘देश की एकता के लिए साहित्यकारों ने क्या किया है?’ इस पर वात्स्यायन जी ने कहा था: ‘देश की एकता छिन्न-भिन्न करने के लिए नेताओं ने क्या नहीं किया है?’
आज के नेताओं से वही पूछने की जरूरत है कि शिक्षा में कूड़ा-कचरा, प्रोपेगंडा जमाने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया है!
साभार : https://www.nayaindia.com/opinion/columnist/politics-and-politicization-of-education-472005.html