संसार को जीनोसाइड (सामुदायिक नरसंहार) जैसा शब्द देने वाले और संयुक्त राष्ट्र में जीनोसाइड के क़ानून लागू करवाने के लिए असाधारण संघर्ष करने वाले पोलिश वकील रेफेल लेम्किन ने सांस्कृतिक नरसंहार पर विशेष बल दिया था। किसी देश का विध्वंस करना कितना घातक होता है लेम्किन ने स्पष्ट कर दिया था। उन्होंने कहा था कि संसार में उतनी ही संस्कृति और उतनी ही बौद्धिक शक्ति होती है जितनी उसमें उपस्थित सभी राष्ट्र मिलकर बनाते हैं। राष्ट्र के विचार की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि राष्ट्र अनिवार्यतः लोगों के सहयोग और मौलिक योगदान से बनता है।
यह सहयोग और योगदान वास्तविक परंपराओं, वास्तविक संस्कृति और एक सुविकसित राष्ट्रीय मनोविज्ञान पर आधारित होता है। तो किसी राष्ट्र का विनाश, संसार को इसके भावी योगदान से वंचित कर देता है। सभ्यता के आधारभूत लक्षणों में से एक लक्षण है उन राष्ट्रीय विशेषताओं और गुणों की समझ और उनके प्रति सम्मान, जिनका योगदान विभिन्न देशों ने वैश्विक संस्कृति को दिया। इन विशेषताओं और गुणों को राष्ट्र की राजनीतिक या अन्य प्रकार की शक्ति और धन-संपत्ति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
सोनाली मिश्र का यह उपन्यास‘नेहा की लव स्टोरी’ भारत के सांस्कृतिक नरसंहार, उसके उपकरणों और उसकी प्रक्रियाओं पर से परदा उठाने वाला उपन्यास है। विध्वंसकारी शक्तियां किस तरह से एक राष्ट्र के निवासियों के सहयोग को तोड़ती हैं, किस तरह से उसकी वास्तविक परंपरा को लेकर उसके निवासियों में भ्रम और अविश्वास पैदा करती हैं और उसके राष्ट्रीय मनोविज्ञान को विकृत कर देती हैं इस उपन्यास में इस स्थिति के भयावह चित्र खींचे गये हैं।
‘लव जिहाद’ उस अतिक्रमण की कथा है जिसकी शिकार सिमेटिक संस्कृतियां गैर सिमेटिक संस्कृतियों को बनाती हैं। इसके लिए प्रगतिशीलता, नारीवाद, सेक्युलरिज़्म जैसी विचारधाराओं को उपकरणों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इतना ही नहीं उपन्यास में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि लव जिहाद को लेकर भारत के ईसाई समुदाय ने भी शोर मचाया था।
अतः सिमेटिक संस्कृतियां एक दूसरे का अतिक्रमण करके अपना प्रभुत्व स्थापित करने में भी लगी रहती हैं। कहना न होगा कि ईसाई और इस्लामी दोनों ही संस्कृतियां हिन्दू समुदाय,जिसकी भारत में युगों पुरानी परंपरा है, का अतिक्रमण करके उसका विनाश करके संसार के उसके योगदान से वंचित करने पर तुली हुई हैं। यह अतिक्रमण अनेक स्तरों पर होता है। भावनाओं और लैंगिकता के स्तर पर, साहित्य, मीडिया, धर्म, सामजिक न्याय, भाषा जनसांख्यिकी और संस्कृति के हर स्तर पर होता है जिससे कि स्थान के रूप में भारत के अर्थों को मिटा कर सिमेटिक विचारों की तथाकथित श्रेष्ठता को थोपा जा सके।
यह उपन्यास जिहादी अतिक्रमण के षडयंत्रों और उनकी गहराई और सूक्ष्मता पर से पर्दा उठाने का अत्यंत साहसिक प्रयत्न है। पर ऐसा करते हुए लेखिका इस सत्य को रेखांकित करने से भी नहीं चूकतीं कि इस अतिक्रमण की मानसिकता से अनेक लोगों का मोहभंग हो चुका है और वे मज़हब छोड़ रहे हैं।
उपन्यास सोचने के लिए विवश करता है कि क्या वास्तव में हमारे जीवन का कोई आयाम है जिसको अतिक्रमणकारियों ने प्रभावित न किया हो? ऐसा शायद ही कोई आयाम हो।
क्या इस विध्वंस का प्रतिरोध संभव है? बिलकुल संभव है! इन अतिक्रमणकारी षडयंत्रों के प्रति निरंतर सचेत रहने, उनका विश्लेषण करके सजग रहने में ही प्रतिरोध है। तभी इन षडयंत्रों को निष्प्रभावी किया जा सकता है। यही इस उपन्यास का उद्देश्य भी है।
डॉ. दिलीप कुमार कौल
दिल्ली
26-12-2021