जब तक दर्शकों को ये पता चलता कि महज तीस करोड़ की लागत से बनी फिल्म ‘ड्रीमगर्ल’ कैसी फिल्म है, ये पहले ही दिन आयुष्यमान खुराना की स्टार पॉवर से नौ करोड़ से ज्यादा व्यवसाय कर चुकी थी। आज बॉलीवुड का ट्रेंड यही चल रहा है कि भारी-भरकम फीस लेने वाले सितारों के बजाय छोटे सितारों को लेकर कम लागत में अच्छे कंटेंट वाली फिल्म बनाई जाए और शुरूआती पांच दिन में लागत के साथ मुनाफा भी निकाल लिया जाए। ड्रीमगर्ल इसी ट्रेंड को फॉलो करती हुई फिल्म है। ये आयुष्यमान की स्टार पॉवर है कि सामने ‘छिछोरे’ जैसी स्ट्रांग फिल्म होते हुए भी ‘ड्रीमगर्ल’ ने पहले दिन संतोषजनक व्यवसाय किया है।
ड्रीमगर्ल एक ऐसे युवा की कहानी है जो लड़कियों की आवाज़ निकालने में माहिर है। बाप पर बड़ा कर्ज है। नौकरी मिल नहीं रही। ऐसे में वह एक ऐसा काम चुनता है, जिसे समाज में ठीक नहीं माना जाता। कर्मवीर(आयुष्यमान खुराना) एक ऐसे कॉल सेंटर में नौकरी करता है, जहाँ महिलाएं तन्हा मर्दों से फोन पर बात करके दिल बहलाती है। लोकेश उर्फ़ पूजा का काम चल पड़ता है। हालांकि उसे अंदर ही अंदर अफ़सोस है कि वह कई लोगों को धोखा दे रहा है। मुश्किलें शुरू होती हैं जब कर्मवीर उर्फ़ पूजा से बात करने वाले तीन लोग उसे बेइंतहा चाहने लगते हैं और भयंकर बात ये कि उन प्रेमियों में से एक खुद कर्मवीर का पिता है।
ये बहुत अच्छी मजाकिया सिचुएशंस से भरपूर कहानी थी। कलाकार भी आला दर्जे के थे लेकिन फिर भी लगता है निर्देशक ने कई गलतियां कर डाली हैं। फिल्म का खाका बहुत बेहतर था लेकिन उसमे आत्मा नहीं थी। संवाद लेखक से पहली बार निर्देशक बने राज शांडिल्य ने सोचा कि बॉक्स ऑफिस की जंग केवल डायलॉग से ही जीत लेंगे। जब हास्य दृश्यों के लिए सही सिचुएशन क्रिएट न की जाए तो ऐसा परिणाम सामने आता है। फिल्म बुरी नहीं लेकिन बहुत अच्छी भी नहीं है। कुछ दृश्य जरूर गुदगुदाते हैं लेकिन समग्र प्रभाव में ‘ड्रीमगर्ल’ एक औसत फिल्म है जो आयुष्यमान की स्टार पॉवर और कम बजट के कारण फायदे में रहेगी।
नुसरत भरुचा को आयुष्यमान के साथ लेना एक बड़ी गलती साबित हुई। उनका किरदार एक मासूम घरेलु लड़की का है जबकि नुसरत की पब्लिक इमेज इसके बिलकुल उलट है। वे माही के किरदार में कतई फिट नहीं हुई। किसी एक सीन में भी आयुष्यमान के साथ उनकी केमेस्ट्री नहीं झलकती। विजय राज और अन्नू कपूर जैसे विलक्षण कलाकारों से निर्देशक मन मुताबिक काम नहीं ले सके। अन्नू कपूर फिर भी बेहतर रहे हैं। उनके हिस्से में कुछ अच्छे दृश्य आए हैं। इस फिल्म का ट्रीटमेंट अस्सी के दशक सा लगता है। उस दौर के निर्देशकों को फिल्म के अंत में सब कुछ ठीक करने की भयंकर हड़बड़ी सी रहती थी। ऐसा ही इस फिल्म में दिखाई देता है।
किरदारों का अचानक हृदय परिवर्तन बनावटी सा लगता है। निधि बिष्ट (रोमा) का किरदार ऐसा ही है। आखिरी समय में उसका दिल कैसे बदल गया, ये निर्देशक ने बताया ही नहीं। कॉल सेंटर में फोन पर बात कर पुरुषों का दिल बहलाना एक ‘टैबू’ है। एक सामाजिक बुराई को खूबसूरती से फिल्म का केंद्रीय विषय हास्य बरक़रार रखते हुए बनाया जा सकता था। लेकिन ये विषय फिल्म ख़त्म होने के कुछ मिनिट पहले उठाया जाता है इसलिए प्रभाव नहीं छोड़ पाता।
कुल मिलाकर ‘ड्रीमगर्ल’ की कहानी में जबरदस्त हास्य की संभावनाएं थी लेकिन उन पर विचार ही नहीं किया गया। इस विचार के अभाव में ‘ड्रीमगर्ल’ दर्शक को गहराई से नहीं जोड़ पाती और एक औसत फिल्म बनकर रह जाती है। इसे एक बार देखा जा सकता है या टीवी पर आने की प्रतीक्षा कर सकते हैं। आयुष्यमान खुराना अपने किरदार पर इतनी मेहनत करने के बावजूद असर छोड़ने में कामयाब नहीं होते।