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India Speaks Daily > Blog > इतिहास > स्वर्णिम भारत > दो अंग्रेज सर्जन जो नहीं कर पाए, वह सुश्रुत प्रणालि के जानकार एक भारतीय कुम्हार ने कर दिया! ऐसी थी हमारी चिकित्सा प्रणाली।
स्वर्णिम भारत

दो अंग्रेज सर्जन जो नहीं कर पाए, वह सुश्रुत प्रणालि के जानकार एक भारतीय कुम्हार ने कर दिया! ऐसी थी हमारी चिकित्सा प्रणाली।

Courtesy Desk
Last updated: 2018/07/07 at 7:45 AM
By Courtesy Desk 905 Views 6 Min Read
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6 Min Read
Ancient india,
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सुश्रुत शल्य चिकित्सा पद्धति के प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य थे। इन्होंने सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ में शल्य क्रिया का वर्णन किया है। सुश्रुत ने ही प्लास्टिक सर्जरी और मोतियाबिंद की शल्य क्रिया का विकास किया था। पार्क डेविस ने सुश्रुत को विश्व का प्रथम शल्यचिकित्सक कहा है।

साल 1793, स्थान पुणे, संदर्भ Madras Gazette, 1795
सुरेश गज्जर। एक दिन अंग्रेज सर्जन जेम्स फिन्डले और थॉमस क्रुसो के पास एक ऐसा केस आया जिसका इलाज करना उनके लिए नामुमकिन था। पेशेंट का नाम कासवजी (शायद पारसी) था। ब्रिटिश आर्मी में वाहन चालक का काम करने वाले कासवजी का टीपू सुल्तान की सेना ने नाक काटकर उसे छोड़ दिया था। ये एक चेतावनी थी अंग्रेजों को, क्योंकि अंग्रेज टीपू से युद्ध लड़ना चाहते थे।

कासवजी की कटी हुई नाक को दुबारा कैसे जोड़ा जाए इसका अंग्रेजी मेडिकल साइंस की किताबों में कोई उल्लेख नहीं था। लेकिन जेम्स फिन्डले और थॉमस क्रुसो को पता चला कि पुणे से 640 किलोमीटर दूर गाँव मे एक आदमी नाक पुनर्निर्माण विशेषज्ञ (Nose Reconstruction Specialist) है। ये आदमी एक कुम्हार था। उसे बुलावा भेजा गया, कुम्हार आया और अपने साथ कुछ शल्य चिकित्सा उपकरण भी लेकर आया। अंग्रेज सर्जनों की उपस्थिति में उसने कासवजी के कपाल वाले भाग से चमड़ी का बड़ा सा हिस्सा निकल कर नाक का आकार दिया और उसे ठीक जगह पर लगा दिया और कहा कि कुछ दिनों में यह परमानेंट हो जाएगा। दूसरे साल Madras Gazette में सर्जरी के पहले और सर्जरी के बाद के फोटो छपे, तब ब्रिटेन की मेडिकल सोसायटी में ‘नाक पुनर्निर्माण मामले’ की बहुत चर्चा हुई। पुणे में तो कुम्हार ने जेम्स फिन्डले और थॉमस क्रुसो को बता दिया कि ये कला की जानकारी उसे अपने बाप दादा से विरासत में मिली है। कुम्हार ने उनके बहुत से प्रश्नों के उत्तर दिए। लेकिन यह पता नहीं चला कि इस कला की खोज कब हुई और किसने की ?

साल 1888-90, स्थान काराकोरम घाट संदर्भ Royal Asiatic Society ऑफ Bengal
मध्य एशिया पर अंकुश जमाने के लिए भारत शासक ब्रिटेन और रशिया दोनों ही प्रयास कर रहे थे। ये वो जमाना था जब ब्रिटेन का लेह और मध्य एशिया के बीच काराकोरम घाट के रास्ते सिल्क रूट पर बड़े पैमाने पर व्यापार चलता था। 1888 में एंड्रयू डेलगलैश नामक स्कॉटिश सौदागर (सम्भवतः ब्रिटिश जासूस) अपना माल बेचने लेह से निकला। उसके साथ दूसरे व्यापरी भी थे। काराकोरम घाट म् उसकी मुलाकात दाद मोहमेद नामक पठान सौदागर से हुई और वह भी साथ हो लिया। रात को मौका मिलते ही दाद मोहमेद ने एंड्रयू डेलगलैश का खून कर दिया और माल लूट कर भाग गया।

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इस घटना की जानकारी साथ वाले व्यापारियों से भारत की ब्रिटिश सरकार को मिली तो एंड्रयू के खून का शक रशिया ने करवाया होगा, ऐसा शक पैदा हुआ। हत्यारे दाद मोहमेद का ढूंढने के लिए सरकार ने गुप्तचर विभाग के मेजर जनरल हेमिल्टन बेवर को भेजा। रास्ता काफी लंबा और दुश्वार था। तीन चार दिन की यात्रा के बाद हेमिल्टन ने चीनी तुरकिस्तान के पास तियान शान पहाड़ों की तराई में कुचान नामक गाँव में एक तुरकिस्तानी के यहां रात गुजारी।

ये तुरकिस्तानी भारत में बहुत साल रह चुका था। मेजर जनरल हेमिल्टन बोवर के साथ बात करते करते उसने कपड़े में लपेट कर रखे गए कई भोज पत्र निकाल कर बताए। ये भोजपत्र भारत के तो थे लेकिन लिपि अनजान थी। किसी तरह समझा बूझा कर हेमिल्टन वो भोजपात्र अपने साथ भारत ले आया। भोजपत्र कुल मिलाकर 51 थे। धागे से सिलकर उसने भोजपत्रों की पोथी बना दी। ये साहित्य उसने बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसायटी (Royal Asiatic Society of Bengal) के विद्वानों को सुपुर्द कर दिए, तब उन्होंने अध्ययन करके पाया कि ये चौथी से छटवीं शताब्दी (गुप्त वंश) में लिखे गए हैं। भाषा की लिपी ब्रह्मी और प्राकृत थी। जब उन्होंने भाषा का अनुवाद किया तो आश्चर्य का ठिकाना ना रहा, भोजपत्रों में शल्यचिकित्सा की पध्दति और उसके औजारों का विवरण था। विकृत नाक, होंठ, कान की पुनर्रचना का तरीका समझाया हुआ था।

तुलनात्मक अध्ययन के प्रथम चरण में ही पता चल गया कि इन भोजपत्रों को महर्षि सुश्रुत ने लिखा है और ये उनकी ज्ञानसागर जैसी सुश्रुत संहिता का एक भाग है। ये थी हमारे प्राचीन भारत की अस्मिता, लेकिन मेजर जनरल हेमिल्टन बोवर के दिए गए पत्रों के साथ महर्षि सुश्रुत का नाम जोड़ने के बदले The Bover Manuscript का शीर्षक दे दिया गया। ये भोजपत्र भारत में नहीं, इंग्लैंड की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ग्रंथालय में आज भी हैं।

ज्यादा जानकारी के लिए The Bower Manuscript, by A. F. Rudolf Hiernte , 1987, Aditya Prakashan, New Delhi.

साभार: सुरेश गज्जर द्वारा सफारी मैग्जीन के एक लेख का गुजराती से हिंदी अनुवाद। (अंक नं. 286, मार्च, 2018)

URL: maharishi sushrut had developed the surgical procedure in gupta dynasty

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TAGGED: Ancient india, Ayurveda, History
Courtesy Desk July 7, 2018
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