
मूवी रिव्यू : ख्यातनाम हस्ती का बॉयोपिक बनाना बड़ा उत्तरदायित्व है
किसी ख्यातनाम हस्ती का बॉयोपिक बनाना बड़ा उत्तरदायित्व है, यदि आपको फिल्मों की प्रभावित करने की क्षमता पर विश्वास है तो आप इस उत्तरदायित्व को निश्चित ही समझेंगे। बॉयोपिक बनाने का सबसे बड़ा उद्देश्य है कि उस प्रसिद्ध व्यक्ति के जीवन से लोग, विशेष रूप से बच्चे और युवा प्रभावित हो, उससे प्रेरित होकर जीवन में अच्छा कार्य करे और राष्ट्र निर्माण में सहयोग दे। शुक्रवार को ओटीटी पर प्रसिद्ध गणितज्ञ शकुंतला देवी की बायॉपिक रिलीज हुई। फिल्म से जितनी अपेक्षाएं लगाई गई थी, वे सब ध्वस्त हो गई। विद्या बालन की ‘शकुंतला देवी’ एक फ्लॉप शो सिद्ध हुई है।
शकुंतला देवी की जीवन यात्रा बड़ी दिलचस्प रही है। फिल्म निर्देशिका अनु मेनन उनकी जीवन यात्रा से बहुत से सकारात्मक तथ्य उठा सकती थी लेकिन उन्होंने सेंट्रल थीम शकुंतला देवी के निजी जीवन पर केंद्रित कर दी। हम उनके गणित के कमाल देखना चाहते थे और परदे पर हमें उनके प्रेम प्रसंग और उनकी बेटी से कटु रिश्तों की कहानी दिखाई जाती है। हम देखना चाहते थे कि ‘ह्यूमन कम्प्यूटर’ पर कोई शोध हुआ हो तो निर्देशिका ने उसे स्क्रिप्ट में शामिल किया हो लेकिन हम कथित नारी स्वतंत्रता के प्रसंगों को देखते हैं।
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शकुंतला देवी की अविस्मरणीय प्रतिभा का पता चलते ही उसके पिता ने उसे तमाशे से पैसे कमाने का जरिया बना दिया। उनके पिता सर्कस में काम करते थे इसलिए उनकी सोच वैसी ही थी। पिता ने उन्हें स्कूल में नहीं डाला, ये शकुंतला देवी के जीवन की सबसे बड़ी गलती थी।
उसके बाद वह अपने पिता के साथ लंदन चली गई। वहां रहकर वे शिक्षित होने का सपना पूरा कर सकती थी, उन्होंने नहीं किया। ये उनके जीवन की दूसरी बड़ी गलती थी। क्या होता यदि शकुंतला जी का ये नायाब हुनर तमाशों के बजाय किसी वैज्ञानिक गणना में काम आता। फिर वे महज बाजीगर न होकर इस देश के लिए एक थाती बन जाती।

अधिकांश जनमानस का विचार था कि विद्या बालन की ये फिल्म भावी पीढ़ी के लिए बनाई गई है। लेकिन अनु मेनन ने शकुंतला देवी का स्वतन्त्र व्यक्तित्व दिखाया, उनका बिंदासपन दिखाया, ये दिखाया कि वे अपनी बेटी को उसके पति को तलाक देने के लिए कहती है क्योंकि पति साथ रहने के लिए लंदन आना नहीं चाहता।
निर्देशिका शकुंतला देवी की इनसिक्योरिटी दिखाना चाहती थी, वे उनकी पजेसिवनेस दिखाना चाहती थी। वास्तविकता में तो अनु के पति उन्हें लंदन में मिले थे और फिल्म में पति को भारत स्थित दिखाया गया। निर्देशिका ने ऐसे भ्रामक तथ्य क्यों डाले जबकि उन्होंने सारे पात्रों को असली नाम दिए हैं।
फिल्म शकुंतला देवी के परिवार की सहमति से बनाई गई है और उन्हें उनके निजी जीवन को दिखाए जाने पर कोई आपत्ति भी नहीं होगी। ऐसा लगता है अनु मेनन शकुंतला देवी की उस फिलॉसफी से प्रभावित हो गई, जिसमे वे मानती हैं कि ‘उन्हें कैसे भी कैद नहीं किया जा सकता।’
शकुंतला देवी ने समलैंगिकता पर किताब लिखी। क्या उन्होंने वास्तव में किताब के विमोचन में प्रेस से ये बोला होगा कि ‘मेरे पति समलैंगिक थे’। इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिलते। बाद में वे अपनी बेटी से कहती हैं कि किताब बेचने के लिए ऐसा करना पड़ता है। फिल्म पूरी होते-होते दर्शक का ध्यान शकुंतला की विलक्षण प्रतिभा से हटकर उनके निजी जीवन पर केंद्रित हो जाता है। फिल्म की शुरुआत में जो महिला सम्माननीय थी, अंत होते-होते उससे वितृष्णा होने लगती है।
हर व्यक्ति के जीवन के अँधेरे पक्ष होते हैं, शकुंतला देवी के भी थे। अच्छा होता ये फिल्म उनकी असीमित प्रतिभा पर आधारित होती, न कि उनके निजी जीवन पर। फिर अनु मेनन स्कूली बच्चों को उम्मीदों से भरी एक फिल्म दे पाती, जैसे नीरज पांडे ने ‘एमएस धोनी’ दी है। आज भी सुशांत सिंह राजपूत अभिनीत ये फिल्म बच्चों और युवाओं में ललक पैदा करती है, जीवन में कुछ करने का संबल प्रदान करती है।
काश अनु एक ऐसी प्रेरक फिल्म का निर्माण कर पाती। विद्या बालन की ओवर एक्टिंग से सजी ये फिल्म दर्शकों ने नकार दी है। इसे औसत रेटिंग मिल रही है और कुछ समीक्षकों ने निष्ठा से रिव्यू करते हुए इसे एक अर्थहीन फिल्म करार दिया है। ये शुक्रवार फिल्मों के लिहाज से बहुत बोझिल रहा। अच्छा है इसे ओटीटी पर कुछ दर्शक तो मिल गए, बॉक्स ऑफिस के अखाड़े में तो ये पहले दांव में ही चित हो जाती।
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